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मेरी भी इक मुमताज़ थी....मधुकर राजस्थानी के दर्द को अपनी आवाज़ दी मन्ना दा ने..

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #५८ आ ज की महफ़िल में हम हाज़िर हैं शरद जी की पसंद की पहली नज़्म लेकर। शरद जी ने जिस नज़्म की फ़रमाईश की है, वह मुझे व्यक्तिगत तौर पर बेहद पसंद है या यूँ कहिए कि मेरे दिल के बेहद करीब है। इस नज़्म को महफ़िल में लाने के लिए मैं शरद जी का शुक्रिया अदा करता हूँ। यह तो हुई मेरी बात, अब मुझे "मैं" से "हम" पर आना होगा, क्योंकि महफ़िल का संचालन आवाज़ का प्रतिनिधि करता है ना कि कोई मैं। तो चलिए महफ़िल की विधिवत शुरूआत करते हैं और उस फ़नकार की बात करते हैं जिनके बारे में मोहम्मद रफ़ी साहब ने कभी यह कहा था: आप मेरे गाने सुनते हैं, मैं बस मन्ना डे के गाने सुनता हूँ। उसके बाद और कुछ सुनने की जरूरत नहीं होती। इन्हीं फ़नकार के बारे में प्रसिद्ध संगीतकार अनिल विश्वास यह ख्याल रखते थे: मन्ना डे हर वह गीत गा सकते हैं, जो मोहम्मद रफी, किशोर कुमार या मुकेश ने गाये हो लेकिन इनमें कोई भी मन्ना डे के हर गीत को नही गा सकता है। सुनने में यह बात थोड़ी अतिशयोक्ति-सी लग सकती है, लेकिन अगर आप मन्ना दा के गाए गीतों को और उनके रेंज को देखेंगे तो कुछ भी अजीब नहीं लगेगा। मन्ना द

मौसम है आशिकाना, ये दिल कहीं से उनको ऐसे में ढूंढ लाना...आईये सज गयी है महफिल ओल्ड इस गोल्ड की

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 251 दो स्तों, शरद तैलंग जी और स्वप्न मंजूषा शैल 'अदा' जी के बाद एक लम्बे इंतेज़ार के बाद हमें मिली हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड पहेली प्रतियोगिता' के तीसरे विजेयता के रूप में पूर्वी जी। और आज से अगले पाँच दिनों तक हम सुनने जा रहे हैं पूर्वी जी के पसंद के पाँच सदाबहार नग़में। पूर्वी जी ने हमें कुल दस गानें चुन कर भेजे थे, जिनमें से हमने पाँच ऐसे गीतों को चुना है जिनकी फ़िल्मों का कोई भी गीत अब तक 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर नहीं बजा है। हमें पूरी उम्मीद है कि पूर्वी जी के पसंद ये गानें आप सभी बेहद एन्जॉय करेंगे, क्योंकि उनका भेजा हुआ हर एक गीत है गुज़रे ज़माने का सदाबहार नग़मा, जिन पर वक़्त का कोई भी असर नहीं चल पाया है। शुरुआत कर रहे हैं लता मंगेशकर के गाए फ़िल्म 'पाक़ीज़ा' के गीत "मौसम है आशिक़ाना" से। वैसे तो 'पाक़ीज़ा' फ़िल्म का कोई भी गीत ताज़े हवा के झोंके की तरह है जो इतने सालों के बाद भी वही ताज़गी, वही ख़ुशबू लिए हुए है। इन मीठे धुनों को साज़ों से निकालकर फ़ज़ाओं में बिखेरने वाले जादूगर का नाम है ग़ुलाम मोहम्मद। जी हाँ,

गुनगुनाते लम्हे- गीतों भरी कहानीः एक नये कार्यक्रम की शुरूआत

गुनगुनाते लम्हे- 1 जब जमाना रेडियो का था तो रेडियो ने फिल्मी गीतों से सजा-धजाकर कई तरह के प्रयोग किये। इसी में एक प्रयोग था 'गीतों भरी कहानी' का, जिसमें कहानी को फिल्मी गीतों के माध्यम से शुरूआत से अंजाम तक पहुँचाया जाता था। आवाज़ वेब रेडियो के माध्यम से रेडियो का वो दौर इंटरनेट पर लाना चाहता है। हिन्द-युग्म आज से अपने 'आवाज़' मंच पर एक नये कार्यक्रम की शुरूआत कर रहा है, जिसे नाम दिया है 'गुनगुनाते लम्हे' । इसकी होस्ट हैं मखमली आवाज़ की मल्लिका 'रश्मि प्रभा'। हमारे श्रोता रश्मि प्रभा से पॉडकास्ट कवि सम्मेलन के माध्यम से परिचित हैं। 'गुनगुनाते लम्हे' महीने में दो बार पहले मंगलवार और तीसरे मंगलवार को सुबह 9 से 9:30 बजे के मध्य प्रसारित होगा। तो इंतज़ार किस बात का, आइए शुरू करते हैं आज का कार्यक्रम॰॰॰ बड़ा जोर है सात सुरों में, बहते आंसू जाते हैं थम ' -तो आंसुओं को थामकर हम लाये हैं कुछ गुनगुनाते लम्हें! हमारा बचपन शुरू होता है कहानियों की धरती पर, इसीलिए शुरू है हमारी कहानी और साथ में सात सुरों के रंग.... जी हाँ, हम आपकी थकान दूर करेंग

जिन्हें नाज़ है हिंद पर वो कहाँ हैं....हमें नाज़ है कि ये क्लासिक गीत है आज ओल्ड इस गोल्ड के 250वें एपिसोड की शान

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 250 सा हिर लुधियानवी के लिखे और सचिन देव बर्मन के स्वरबद्ध किए गीतों को सुनते हुए हम आज आ पहुँचे हैं इस ख़ास शृंखला 'जिन पर नाज़ है हिंद को' की अंतिम कड़ी में। दोस्तों, यह जो शीर्षक हमने चुना था इस शृंखला के लिए, ये आपको पता ही होगा कि किस आधार पर हमने चुना था। जी हाँ, साहिर साहब की एक कालजयी रचना थी फ़िल्म 'प्यासा' में "जिन्हे नाज़ है हिंद पर वो कहाँ है"। तो फिर इस शृंखला को समाप्त करने के लिए इस गीत से बेहतर भला और कौन सा गीत हो सकता है। मोहम्मद रफ़ी की अविस्मरणीय आवाज़ में यह गीत जब भी हम सुनते हैं तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं। 'प्यासा' १९५७ की फ़िल्म थी। गुरु दत्त ने इससे पहले सचिन दा और साहिर साहब के साथ 'बाज़ी' (१९५१) और 'जाल' (१९५२) में काम कर चुके थे। लेकिन जब उन्होने अपने निजी बैनर 'गुरु दत्त फ़िल्म्स' के बैनर तले फ़िल्मों का निर्माण शुरु किया तो उन्होने ओ. पी. नय्यर को बतौर संगीतकार और मजरूह साहब को बतौर गीतकार नियुक्त किया ('आर पार' (१९५४), 'मिस्टर ऐंड मिसेस ५५' (१९५५), 'सी.आ

हमारे यहाँ के नेताओं का कोई भी बयान किसी व्यंग से कम नहीं होता....पठकथा और संवाद लेखक आर डी तैलंग से एक ख़ास बातचीत

ताजा सुर ताल TST (33) दोस्तों, ताजा सुर ताल यानी TST पर आपके लिए है एक ख़ास मौका और एक नयी चुनौती भी. TST के हर एपिसोड में आपके लिए होंगें तीन नए गीत. और हर गीत के बाद हम आपको देंगें एक ट्रिविया यानी हर एपिसोड में होंगें ३ ट्रिविया, हर ट्रिविया के सही जवाब देने वाले हर पहले श्रोता की मिलेंगें २ अंक. ये प्रतियोगिता दिसम्बर माह के दूसरे सप्ताह तक चलेगी, यानी 5 अक्टूबर से १४ दिसम्बर तक, यानी TST के ४० वें एपिसोड तक. जिसके समापन पर जिस श्रोता के होंगें सबसे अधिक अंक, वो चुनेगा आवाज़ की वार्षिक गीतमाला के 60 गीतों में से पहली 10 पायदानों पर बजने वाले गीत. इसके अलावा आवाज़ पर उस विजेता का एक ख़ास इंटरव्यू भी होगा जिसमें उनके संगीत और उनकी पसंद आदि पर विस्तार से चर्चा होगी. तो दोस्तों कमर कस लीजिये खेलने के लिए ये नया खेल- "कौन बनेगा TST ट्रिविया का सिकंदर" TST ट्रिविया प्रतियोगिता में अब तक- पिछले एपिसोड में एक बार फिर वही कहानी दोहराई गयी सीमा जी ने दो सही जवाब दिए तो तनहा जी ने एक सही जवाब देकर बाज़ी समाप्त की. सीमा जी हैं २६ अंकों पर, और तनहा जी हैं १२ अंकों पर....देखते हैं

फैली हुई है सपनों की बाहें...साहिर के शब्द और बर्मन दा की धुन का न्योता है, चले आईये...

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 249 आ ज साहिर साहब और सचिन दा पर केन्द्रित शृंखला 'जिन पर नाज़ है हिंद को' में बजने वाले गीत का ज़िक्र शुरु करने से पहले आइए सचिन दा के बेटे पंचम के शब्दों में अपने पिता से संबंधित एक दिल को छू लेनेवाला क़िस्सा जानें। पंचम कहते हैं "वो कभी मेरी तारीफ़ नहीं करते थे। मैं कितना भी अच्छा धुन क्यों ना बनाऊँ, वो यही कहते थे कि इससे भी अच्छा बन सकता था, और कोशिश करो। एक बार वो मॊर्निंग् वाक्' से वापस आकर बेहद ख़ुशी के साथ बोले कि आज एक बड़े मज़े की बात हो गई है। वो बोले कि आज तक जब भी मैं वाक् पर निकलता था, लोग कहते थे कि देखो एस. डी. बर्मन जा रहे हैं, पर आज वो ही लोगों ने कहा कि देखो, आर. डी. बर्मन का बाप जा रहा है! यह सुनकर मैं हँस पड़ा, हम सब बहुत ख़ुश हुए। " दोस्तों, सच ही तो है, किसी पिता के लिए इससे ज़्यादा ख़ुशी की बात क्या होगी कि दुनिया उसे उनके बेटे के परिचय से पहचाने। ख़ैर, ये तो थी पिता-पुत्र की बातें, आइए अब ज़िक्र छेड़ा जाए आज के गीत का। आज भी हम एक बहुत ही सुरीली रचना लेकर उपस्थित हुए हैं, जिसे सुनते ही आप के कानों में ही नहीं बल्क

रविवार सुबह की कॉफी और कुछ दुर्लभ गीत (१९) फिल्म गीतकार शृंखला भाग १

जब फ़िल्मी गीतकारों की बात चलती है तो कुछ गिनती के नाम ही जेहन में आते हैं, पर दोस्तों ऐसे अनेकों गीतकार हैं, जिनके नाम समय के गर्द में कहीं खो से गए हैं, जिनके लिखे गीत तो हम आज भी शौक से सुनते हैं पर उनके नाम से अपरिचित हैं, और इसके विपरीत ऐसा भी है कि कुछ बेहद मशहूर गीतकारों के लिखे बेहद अनमोल से गीत भी उनके अन्य लोकप्रिय गीतों की लोकप्रियता में कहीं गुमसुम से खड़े मिलते हैं, फ़िल्मी दुनिया के गीतकारों पर "रविवार सुबह की कॉफी" में हम आज से एक संक्षिप्त चर्चा शुरू कर रहे हैं, इस शृंखला की परिकल्पना भी खुद हमारे नियमित श्रोता पराग सांकला जी ने की है, तो चलिए पराग जी के संग मिलने चलें सुनहरे दौर के कुछ मशहूर/गुमनाम गीतकारों से और सुनें उनके लिखे कुछ बेहद सुरीले/ सुमधुर गीत. हम आपको याद दिला दें कि पराग जी मरहूम गायिका गीत दत्त जी को समर्पित जालस्थल का संचालन करते हैं. १) शैलेन्द्र महान गीतकार शैलेन्द्र जी का असली नाम था "शंकर दास केसरीलाल शैलेन्द्र". उनका जन्म हुआ था सन् १९२३ में रावलपिन्डी (अब पाकिस्तान में). भारतीय रेलवे में वास मुंबई में सन् १९४७ में काम कर रहे

दुखी मन मेरे सुन मेरा कहना...जहाँ न गूंजे बर्मन दा के गीत वहां क्या रहना

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 248 आ ज है ३१ अक्तुबर। १९७५ साल के आज ही के दिन सचिन देव बर्मन हम सब को हमेशा के लिए छोड़ गए थे। आज उनके हमसे बिछड़े लगभग ३५ साल हो चुके हैं, लेकिन ऐसा लगता ही नहीं कि वो हमारे बीच नहीं है। उनके रचे गीत इतने ज़्यादा लोकप्रिय हैं कि आज भी हर रोज़ उनके गानें रेडियो पर सुनने को मिल जाते हैं। किसी ने ठीक ही कहा है कि एक अच्छा कलाकार ना तो कभी बूढ़ा होता है और ना ही मरता है, वो अमरत्व को प्राप्त करता है अपनी कला के ज़रिए, अपनी रचनाओं के ज़रिए, अपनी प्रतिभा के ज़रिए। सचिन देव बर्मन एक ऐसे ही संगीत शिल्पी थे। उनकी सुमधुर संगीत रचनाएँ आज भी हमारे मन की वादियों में अक्सर गूँजते ही रहते हैं। शारीरिक रूप से वो भले ही हमसे बहुत दूर चले गए हों, लेकिन उनकी आत्मा उनके ही रचे संगीत के माध्यम से दुनिया की फ़िज़ाओं में गूँजती रहती है, और गूँजती रहेगी अनंत काल तक। 'जिन पर नाज़ है हिंद को' शृंखला में सचिन देव बर्मन और साहिर लुधियानवी की जोड़ी के गीतों का सफ़र जारी है, और आज जिस सुरीले मोती को हम चुन लाए हैं वह है फ़िल्म 'फ़ंटूश' का, "दुखी मन मेरे सुन मेरा कहना

घर-जमाई - प्रेमचंद

सुनो कहानी: प्रेमचंद की "घर-जमाई" 'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में हिंदी साहित्यकार प्रेमचंद की हृदयस्पर्शी कहानी " सवा सेर गेहूं " का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं मुंशी प्रेमचंद की कहानी " घर-जमाई ", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने। कहानी का कुल प्रसारण समय 15 मिनट 59 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें। मैं एक निर्धन अध्यापक हूँ...मेरे जीवन मैं ऐसा क्या ख़ास है जो मैं किसी से कहूं ~ मुंशी प्रेमचंद (१८८०-१९३६) हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी इस घर में वह कैसे जाय? क्या फिर वही गालियाँ खाने, वही फटकार सुनने के लिए? ( प्रेमचंद की "घर-जमाई" से एक अंश ) नीचे के प्लेयर से सुने

ये रात ये चांदनी फिर कहाँ, सुन जा दिल की दास्ताँ....पुरअसर आवाज़ संगीत और शब्दों का शानदार संगम

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 247 सा हिर लुधियानवी और सचिन देव बर्मन को एक साथ समर्पित शृंखला 'जिन पर नाज़ है हिंद को' में आप सभी का एक बार फिर से हार्दिक स्वागत है। लता, गीता, तलत, किशोर और मन्ना दा के बाद आज जिस गायक की आवाज़ साहिर साहब के बोलों पर और दादा बर्मन की धुनों पर हवाओं में गूँजेंगी, उस गायक का नाम है हेमन्त कुमार। जब भी साहिर और सचिन दा की एक साथ बात चलती है, यकायक 'नवकेतन' बैनर की याद भी आ ही जाती है। और क्यों ना आए, इसी बैनर के तले ही तो इस गीतकार - संगीतकार जोड़ी ने ५० के दशक के शुरुआती सालों में एक से एक बेहतरीन नग़में हमें दिए थे। सचिन दा ने नवकेतन बैनर की पहली फ़िल्म 'अफ़सर' में संगीत दिया था १९५० में। उसके बाद १९५१ में आई सुपरहिट फ़िल्म 'बाज़ी', जिसका एक गीत आप सुन चुके हैं। १९५२ में नवकेतन ने बनाई 'आंधियाँ', लेकिन इसके संगीत के लिए चुना गया था उस्ताद अली अक़बर ख़ान साहब को। देव आनंद और कल्पना कार्तिक अभिनीत यह फ़िल्म नहीं चली, लेकिन हेमन्त दा का गाया "दिल है किसी दीवाने का" गीत मशहूर हुआ था। १९५२ में भले ही बर्मन दादा ने

आन मिलो आन मिलो श्याम साँवरे...लोक धुनों पर भी बेहद सुरीले गीत रचे साहिर और बर्मन दा की जोड़ी ने

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 246 'जि न पर नाज़ है हिंद को' शृंखला इन दिनों आप सुन रहे हैं जिसके अंतर्गत हम आपको साहिर लुधियानवी के लिखे कुछ ऐसे गानें सुनवा रहे हैं जिन्हे सचिन देव बर्मन ने संगीतबद्ध किए हैं। युं तो इस जोड़ी ने बहुत सारे लाजवाब गीत हमें दिए हैं, लेकिन हमने उस ख़ज़ाने में से १० मोतियों को चुन लाए हैं, और हमें उम्मीद है कि आपको हमारे चुने हुए ये गानें पसंद आ रहे होंगे। आज की कड़ी के लिए हमने चुना है मन्ना डे और गीता दत्त का गाया एक भक्ति मूलक रचना। ये भजन है १९५५ की फ़िल्म 'देवदास' का "आन मिलो आन मिलो श्याम साँवरे आन मिलो, बृज में अकेली राधे खोई खोई सी रे"। 'देवदास' फ़िल्म से जुड़ी तमाम बातें हमने आपको उस दिन बताई थी जिस दिन हमने आपको इस फ़िल्म से लता जी का गाया " जिसे तू क़बूल कर ले वो अदा कहाँ से लाऊँ " सुनवाया था। बंगाल की पृष्ठभूमि पर आधारित पीरियड फ़िल्म होने की वजह से इस फ़िल्म के गीत संगीत में उसी पुराने बंगाल को जीवित करना था। ऊर्दू के शायर होते हुए भी साहिर साहब ने जो न्याय इस फ़िल्म के गीतों के साथ किया है, इस फ़िल्म के गी

'नर हो न निराश करो मन को' को संगीतबद्ध कीजिए और जीतिए रु 7000 के नगद पुरस्कार

पिछले महीने हमने गीतकास्ट प्रतियोगिता में राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की कविता 'कलम, आज उनकी जय बोल' को संगीतबद्ध कविता करने की प्रतियोगिता आयोजित की थी। छठवीं गीतकास्ट प्रतियोगिता के आयोजन की उद्‍घोषणा करने में हमें लगभग 20 दिनों का विलम्ब हुआ क्योंकि कोई प्रायोजक नहीं मिल पाया था। परंतु जहाँ चाह है, वहाँ राह है। दुनिया में साहित्य और भाषा प्रेमियों की कमी नहीं है। जब हमने छठवीं गीतकास्ट प्रतियोगिता का प्रायोजक बनने का प्रस्ताव उत्तरी आयरलैण्ड के क्वीन'स विश्वविद्यालय के शोधार्थी दीपक मशाल के समक्ष रखा तो उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया। इन्होंने यह ज़रूर कहा कि रु 7000 की धनराशि एक विद्यार्थी के लिए जुटाना थोड़ा मुश्किल है, तो ये अपने दो अन्य शोधार्थी मित्रों को इस आयोजन के प्रायोजकों में जोड़ना चाहेंगे। हमने इन तीन शोधार्थी मित्रों के साथ मिलकर छठवीं गीतकास्ट प्रतियोगिता में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की कविता ' नर हो न निराश करो मन को ' का निश्चय किया है। दीपक मशाल एक कवि भी हैं और सितम्बर 2009 के यूनिकवि घोषित किये गये हैं। दीपक के अनुसार इनके दादाजी राम बि

जाएँ तो जाएँ कहाँ....तलत की आवाज़ में उठे दर्द के साथी बने साहिर और बर्मन दा

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 245 १९५४ की फ़िल्म 'आर पार' की कहानी टैक्सी ड्राइवर कालू (देव आनंद) की थी। फ़िल्म में दो नायिकाएँ हैं, जिनमें से एक के पिता अंडरवर्ल्ड से जुड़ा हुआ है और वो चाहता है कि कालू भी उसके साथ मिल जाए ताकि वो जल्दी अमीर बन जाए। कालू भी ख़ुद अपने पैरों पर खड़ा होना चाहता है, लेकिन सही रास्तों पर चलकर या ग़लत राह पकड़कर? यही थी 'आर पार' की मूल कहनी। गुरु दत्त साहब ने अपनी प्रतिभा से इस साधारण कहानी को एक असाधारण फ़िल्म में परिवर्तित कर चारों ओर धूम मचा दी। और इसी कामयाबी से प्रेरित होकर आनंद भाइयों ने इसी साल १९५४ में अपने 'नवकेतन' के बैनर तले इसी भाव को आगे बढ़ाते हुए एक और फ़िल्म के निर्माण का निश्चय किया। और इस बार फ़िल्म का शीर्षक भी रखा गया 'टैक्सी ड्राइवर'। चेतन आनंद ने फ़िल्म का निर्देशन किया, विजय आनंद ने कहानी लिखी, और देव साहब नज़र आए टैक्सी ड्राइवर मंगल के किरदार में। नायिका बनीं कल्पना कार्तिक। गीतकार साहिर लुधियानवी और संगीतकार सचिन देव बर्मन की जोड़ी ने एक बार फिर से अपना जादू दिखाया और इस फ़िल्म के लिए बने कुछ यादगार सदाबह

इश्क़ की रस्म को इस तरह निभाया हमने...."अदा" के तखल्लुस से गज़ल कह रहे हैं शहरयार साहब

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #५७ आ ज की महफ़िल में हम हाज़िर हैं सीमा जी की पसंद की आखिरी गज़ल लेकर। सीमा जी की पसंद औरों से काफ़ी अलहदा है। अब आज की गज़ल को हीं ले लीजिए। लोग अमूमन मेहदी हसन साहब, गुलाम अली साहब या फिर जगजीत सिंह जी की गज़लों की फ़रमाईश करते हैं, लेकिन सीमा जी ने जिस गज़ल की फ़रमाईश की है, उसे आशा ताई ने गाया है। इस गज़ल की एक और खासियत है और खासियत यह है कि आज की गज़ल और आज से दो कड़ी पहले पेश की गज़ल (जिसकी फ़रमाईश सीमा जी ने हीं की थी) में दो समानताएँ हैं। दो कड़ी पहले हमने आपको "गमन" फिल्म की गज़ल सुनाई थी और आज हम "उमराव जान" फिल्म की गज़ल लेकर आप सबके सामने हाज़िर हैं। इन दोनों फ़िल्मों का निर्माण मुज़फ़्फ़र अली ने किया था और इन दोनों गज़लों के गज़लगो शहरयार हैं। ऐसा लगता है कि मुज़फ़्फ़र अली हमारी महफ़िल के नियमित मेहमान बन चुके हैं। अब चूँकि मुज़फ़्फ़र अली और शहरयार के बारे में हम बहुत कुछ कह चुके हैं, इसलिए क्यों न आज आशा ताई के बारे में बातें की जाएँ। ८ सितम्बर १९३३ को जन्मी आशा ताई अब ७६ साल की हो चुकी हैं, लेकिन उन्हें सुनकर उनकी उम्र का तनिक भी भान