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वो जब याद आए बहुत याद आए...

जब सोनू निगम ने जलाए गीतों के दीप एल पी के लिए हिन्दी फ़िल्म संगीत के सबसे सफलतम संगीत जोड़ी के लक्ष्मीकांत और प्यारेलाल का एक साधारण स्तर से उठ कर इतने बड़े मुकाम तक पहुँचने की दास्तान भी कम दिलचस्प नही है. दोनों लगभग १०-१२ साल के रहे होंगे जब मंगेशकर परिवार द्वारा बच्चों के लिए चलाये जाने वाले संगीत संस्थान, सुरील कला केन्द्र में वो पहली बार एक दूसरे के करीब आए (हालांकि वो एक स्टूडियो में पहले भी मिल चुके थे). दरअसल लक्ष्मीकांत को एक कंसर्ट में मँडोलिन बजाते देख प्रभावित हुई लता दी ने ही उन्हें इस संस्था में दाखिल करवाया था. वहीँ प्यारेलाल ने अपने गुरु पंडित राम प्रसाद शर्मा से trumpet और गोवा के अन्थोनी गोंसाल्विस (जी हाँ ये वही हैं जिनके लिए उन्होंने फ़िल्म अमर अकबर एंथोनी का वो यादगार गीत समर्पित किया था) से वोयालिन बजाना सीखा वो भी मात्र ८ साल की उम्र में. वोयालिन के लिए उनका जनून इस हद तक था कि वो दिन में ८ से १२ घंटे इसका रियाज़ करते थे. दोनों बहुत जल्दी दोस्त बन गए दोनों का जनून संगीत था और दोनों के पारिवारिक और वित्तीय हालात भी लगभग एक जैसे थे. लता जी ने उन्हें नौशाद साहब, एस

लक्ष्मीकांत प्यारेलाल से लक्ष्मी प्यारे..और आज के एल पी तक...एक सुनहरा अध्याय

३७ लंबे वर्षों तक श्रोताओं को दीवाना बनाकर रखने वाले इस संगीत जोड़ी को अचानक ही हाशिये पर कर दिया गया. आखिर ऐसा क्यों हुआ. ५०० से भी अधिक फिल्में, अनगिनत सुपरहिट गीत, पर फ़िर भी संगीत कंपनियों ने और मिडिया ने उन्हें नई पीढी के सामने उस रूप में नही रखा जिस रूप में कुछ अन्य संगीतकारों को रखा गया. गायक महेंद्र कपूर ने एक बार इस मुद्दे पर अपनी राय कुछ यूँ रखी थी- "उनका संगीत पूरी तरह से भारतीय था, जहाँ लाइव वाद्यों का भरपूर प्रयोग होता था. चूँकि उनके अधिकतर गीत मेलोडी प्रधान हैं उनका रीमिक्स किया जाना बेहद मुश्किल है और संगीत कंपनियाँ अपने फायदे के लिए केवल उन्हीं को "मार्केट" करती हैं जिनके गीतों में ये "खूबी" होती है." ये बात काफ़ी हद तक सही प्रतीत होती है. पर अगर हम बात करें हिट्स की तो किसी भी सच्चे हिन्दी फ़िल्म संगीत के प्रेमी को जो थोड़ा बहुत भी बीते सालों पर अपनी नज़र डालने की जेहमत करें वो बेझिझक एल पी के बारे में यह कह सकेगा - "बॉस" कौन था मालूम है जी... चलिए इस बात को कुछ तथ्यों के आधार पर परखें - हिन्दी फिल्मों कि स्वर सम्राज्ञी लता मंगेशकर न

निर्माता-निर्देशकों के लिए सफलता की गैरंटी था लक्ष्मीकांत प्यारेलाल का संगीत

बात होती है सदी के नायक की, नायिका की, पर अगर हम बात करें बीती सदी के सबसे सफलतम संगीतकार की, तो बिना शक जो नाम जेहन में आता है वो है - संगीतकार जोड़ी लक्ष्मीकांत प्यारेलाल का. १९६३ में फ़िल्म "पारसमणी" से शुरू हुआ संगीत सफर बिना रुके चला अगले चार दशकों तक. बदलते समय के साथ ख़ुद को बदलकर हर पीढी के मिजाज़ को ध्यान में रख ये संगीत के महारथी चलते रहे अनथक और लिखते रहे निरंतर कमियाबी की नयी इबारतें. पल पल रंग बदलती, हर नए शुक्रवार नए रूप में ढलती फ़िल्म इंडस्ट्री में इतने लंबे समय तक चोटी पर अपनी जगह बनाये रखने की ये मिसाल लगभग असंभव सी ही प्रतीत होती है. और किस संगीतकार की झोली में आपको मिलेंगी इतनी विविधता. शास्त्रीय संगीत पर आधारित गीत, लोक गीतों में ढले ठेठ भारतीय गीत, पाश्चात्य संगीत में बसे गीत, भजन, मुजरा, डिस्को -जैसा मूड वैसा संगीत, और वो भी सरल, सुमधुर, "कैची" और "क्लास". परफेक्शन ऐसा कि कोई ढूंढें भी तो कोई कमी न मिले. आम आदमी की जुबान पर तो उनके गीत यूँ चढ़ जाते थे जैसे बस उन्हीं के मन की धुन हो कोई. मेलोडी ही उनके गीतों की आत्मा रही. सहज धुन में स

कलाकार की कोई पार्टी नही होती - दलेर मेहंदी

सप्ताह की संगीत सुर्खियाँ (६) टेलंट शो कितने कारगर एक ज़माने में हुए एक बड़ी "प्रतिभा खोज" के फलस्वरूप हमें मिले थे महेंद्र कपूर, सुरेश वाडकर जिनका हमने पिछले दिनों आवाज़ पर जिक्र किया था वो भी इसी रास्ते से फ़िल्म इंडस्ट्री में आए. १९९६ में "मेरी आवाज़ सुनो" की विजेता थी हम सब की प्रिय सुनिधी चौहान. इसी प्रतियोगिता में दूसरे स्थान पर रही वैशाली सावंत मानती है कि टेलंट शो मात्र आपको दुनिया के सामने प्रस्तुत कर देते हैं असली संघर्ष तो उसके बाद ही शुरू होता है. ख़ुद वैशाली को सात साल लगे प्रतियोगिता के बाद "आइका दाजिबा" तक का सफर तय करने में. रॉक ऑन ने गायन की शुरुआत करने वाली गायिका केरालिसा मोंटेरियो भी मानती हैं कि "आज भी बहुत से नए कलाकार पारंपरिक तरीके से शुरुआत करना पसंद करते हैं. अनुभव आपको इसी से मिलता है कि आप संगीतकारों से मिलें, बात करें और गानों के बनने की प्रक्रिया और उसका मर्म समझें. अक्सर इन प्रतियोगिताओं के विजेता ये मान बैठते हैं कि बस अब मंजिल मिल गई. पर ऐसा नही होता. एक बार शो खत्म होने के बाद उन्हें राह दिखाने वाला कोई नही होता." ज

सुनो कहानी: प्रेमचंद की 'शादी की वजह'

उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद की व्यंग्य रचना 'शादी की वजह' 'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने लन्दन निवासी कवयित्री शन्नो अग्रवाल की आवाज़ में प्रेमचंद की रचना ' सौत ' का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं प्रेमचंद की व्यंग्य रचना "शादी की वजह" , जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। व्यंग्य का कुल प्रसारण समय है: 7 मिनट और 11 सेकंड। यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें। मैं एक निर्धन अध्यापक हूँ...मेरे जीवन मैं ऐसा क्या ख़ास है जो मैं किसी से कहूं ~ मुंशी प्रेमचंद (१८८०-१९३६) हर शनिवार को आवाज़ पर सुनिए प्रेमचंद की एक नयी कहानी दूसरे साहब को अपनी खूबसूरती पर बड़ा नाज है। उनका ख्याल है कि उनकी शादी उनके सुन्दर रूप की बदौलत हुई। ( प्रेमचं

एक गीत उन सब के नाम जो आतंक के ख़िलाफ़ खड़े होने की हिम्मत रखते हैं...

दूसरे सत्र के २३ वें गीत का विश्वव्यापी उदघाटन आज पिछले ७-८ दिनों में हमने क्या क्या नही देखा. देश की व्यवसायिक राजधानी पर आतंकी हमला, बंधक बने देशी-विदेशी नागरिक, खौफ का नया चेहरा लेकर सर उठाता आतंकवाद, स्तब्ध और सहमा हुआ आम आदमी, एक तरफ़ बेसुराग अंधेरों में स्वार्थ की रोटियां सेकते हमारे कर्णधार तो दूसरी तरफ़ अपनी जान पर खेल कर आतंकियों से लोहा लेते हमारे जांबाज़ देशभक्तों की फौज. इन सब अव्यवस्थाओं के बीच भी कुछ ऐसा हुआ जिसने बुझती उम्मीदों को एक नई रोशनी दे दी. इस राष्ट्रीय आपदा में जैसे पूरा देश, जिसे चंद स्वार्थी राजनीतिज्ञों ने टुकड़े टुकड़े करने में कोई कसर नही छोडी थी, फ़िर से एक जुट हो गया. जातवाद, प्रांतवाद, धरम और भाषा के नाम पर देश को बांटने वाले देश के अंदरूनी दुश्मनों को पार्श्व में धकेलते हुए पूरब से पश्चिम, उत्तर से दक्षिण, हिंदू मुस्लिम, अमीर गरीब, सब की संवेदनायें जैसे एक मत हो गई. एक बेहद अनचाही परिस्थिति से गुजरकर ही सही पर ये क्या कम है की एक सोये हुए देश की अवाम फ़िर से जागृत हो गई. ये हमला सिर्फ़ मुंबई या हिंदुस्तान पर नही है, समस्त इंसानियत के दामन पर है. मानवता

सुनिए सलिल दा के अन्तिम संगीत रचनायों में से एक, फ़िल्म "स्वामी विवेकानंद" के गीत

पिछले दिनों सलिल दा पे लिखी हमारी पोस्ट के जवाब में हमारे एक नियमित श्रोता ने हमसे गुजारिश की सलिल दा के अन्तिम दिनों में की गई फिल्मों में से एक "स्वामी विवेकानंद" के गीतों को उपलब्ध करवाने की. सलिल दा के अन्तिम दिनों में किए गए कामों की बहुत कम चर्चा हुई है. स्वामी के जीवन पर आधारित इस फ़िल्म में सलिल दा ने ८ गीत स्वरबद्ध किए. ख़ुद स्वामी के लिखे कुछ गीत हैं इसमें तो कबीर, जयदेव और सूरदास के बोलों को भी स्वरों का जामा पहनाया है सलिल दा ने.दो गीत गुलज़ार साहब ने लिखे हैं जिसमें के जे येसुदास का गाया बेहद खूबसूरत "चलो मन" भी शामिल है. गुलज़ार के ही लिखे एक और गीत "जाना है जाना है..." को अंतरा चौधरी ने अपनी आवाज़ दी है. अंतरा की आवाज़ में बहुत कम हिन्दी गीत सुनने को मिले हैं, इस वजह से भी ये गीत हमें बेहद दुर्लभ लगा. एक और विशेष बात इस फ़िल्म के बारे में ये है कि सलिल दा अपनी हर फ़िल्म का जिसमें भी वो संगीत देते थे, पार्श्व संगीत भी वो ख़ुद ही रचते थे. पर इस फ़िल्म के मुक्कमल होने से पहले ही दा हम सब को छोड़ कर चले गए. विजय भास्कर राव ने इस फ़िल्म का पार्श्व सं