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वर्षा ऋतु के रंग : मल्हार अंग के रागों का संग- 3

स्वरगोष्ठी – ८० में आज गौड़ मल्हार : ‘गरजत बरसत भीजत आई लो...’ ‘स्व रगोष्ठी’ के एक और सुहाने, हरियाले और रिमझिम फुहारों से युक्त अंक के साथ मैं कृष्णमोहन मिश्र उपस्थित हूँ। मल्हार अंग के रागों की श्रृंखला में पिछले दो अंकों में आपने मेघ मल्हार और मियाँ मल्हार रागों की स्वर-वर्षा का आनन्द प्राप्त किया। इस श्रृंखला में आज हम आपके लिए लेकर आए है, राग गौड़ मल्हार। पावस ऋतु का यह एक ऐसा राग है जिसके गायन-वादन से सावन मास की प्रकृति का सजीव चित्रण तो किया ही जा सकता है, साथ ही ऐसे परिवेश में उपजने वाली मानवीय संवेदनाओं की सार्थक अभिव्यक्ति भी इस राग के माध्यम से की जा सकती है। आकाश पर कभी मेघ छा जाते हैं तो कभी आकाश मेघरहित हो जाता है। इस राग के स्वर-समूह उल्लास, प्रसन्नता, शान्ति और मिलन की लालसा का भाव जागृत करते हैं। मिलन की आतुरता को उत्प्रेरित करने में यह राग समर्थ होता है। आज के अंक में हम आपको ऐसे ही भावों से युक्त कुछ मोहक रचनाएँ सुनवाएँगे। साथ ही राग गौड़ मल्हार के स्वरूप के बारे में संक्षिप्त जानकारी भी आपसे बाँटेंगे। परन्तु आगे बढ़ने से पहले आइए, राग गौड़ मल्हार की एक पा

वर्षा ऋतु के रंग : मल्हार अंग के रागों का संग- 2

स्वरगोष्ठी – ७९ में आज मियाँ की मल्हार : ‘बोले रे पपीहरा...’ ‘स्व रगोष्ठी’ के अन्तर्गत जारी लघु श्रृंखला ‘वर्षा ऋतु के रंग : मल्हार अंग के रागों का संग’ के दूसरे अंक में, मैं कृष्णमोहन मिश्र आप सब संगीत-प्रेमियों का स्वागत, आज राग ‘मियाँ की मल्हार’ की स्वर-वर्षा के साथ करता हूँ। मल्हार अंग के रागों में राग मेघ मल्हार, मेघों का आह्वान करने, मेघाच्छन्न आकाश का चित्रण करने और वर्षा ऋतु की आहट देने में सक्षम राग माना जाता है। वहीं दूसरी ओर राग मियाँ की मल्हार, वर्षा ऋतु की चरम अवस्था के सौन्दर्य की अनुभूति कराने पूर्ण समर्थ है। यह राग वर्तमान में वर्षा ऋतु के रागों में सर्वाधिक प्रचलित और लोकप्रिय है। सुप्रसिद्ध इसराज और मयूरी वीणा वादक पण्डित श्रीकुमार मिश्र के अनुसार- राग मियाँ की मल्हार की सशक्त स्वरात्मक परमाणु शक्ति, बादलों के परमाणुओं को झकझोरने में समर्थ है। राग मियाँ की मल्हार तानसेन के प्रिय रागों में से एक है। कुछ विद्वानों का मत है कि तानसेन ने कोमल गान्धार तथा शुद्ध और कोमल निषाद का प्रयोग कर इस राग का सृजन किया था। अकबर के दरबार में तानसेन को सम्मान देने

वर्षा ऋतु के रंग : मल्हार अंग के रागों का संग

स्वरगोष्ठी – ७८ में आज ‘घन छाए गगन अति घोर घोर...’ ‘स्व रगोष्ठी’ के एक नये अंक में, मैं कृष्णमोहन मिश्र आप सब रसिकजनों का, स्वरों की रिमझिम फुहारों के बीच स्वागत करता हूँ। इन दिनों आप प्रकृति-चक्र के अनुपम वरदान, वर्षा ऋतु का आनन्द ले रहे हैं। तप्त, शुष्क और प्यासी धरती पर वर्षा की फुहारें पड़ने पर जो सुगन्ध फैलती है वह अवर्णनीय है। ऐसे ही मनभावन परिवेश में आपके उल्लास और उमंग को द्विगुणित करने के लिए हम लेकर आए हैं यह नई श्रृंखला ‘वर्षा ऋतु के रंग : मल्हार अंग के रागों का संग’ । इस श्रृंखला में वर्षा ऋतु में गाये-बजाये जाने वाले रागों पर आपसे चर्चा करेंगे और इन रागों में निबद्ध वर्षा ऋतु के रस-गन्ध में पगे गीतों को प्रस्तुत भी करेंगे। भारतीय साहित्य और संगीत को सबसे अधिक प्रभावित करने वाली दो ऋतुएँ हैं; बसंत और पावस। संगीत शास्त्र के अनुसार मल्हार के सभी प्रकार पावस ऋतु की अनुभूति कराने में समर्थ हैं। इसके साथ ही कुछ सार्वकालिक राग; वृन्दावनी सारंग, देस और जैजैवन्ती भी वर्षा ऋतु के अनुकूल परिवेश रचने में सक्षम होते हैं। वर्षाकालीन रागों में सबसे प्राचीन रा

७५वें वर्ष में प्रवेश पर अभिनन्दन, पं . चौरसिया जी

स्वरगोष्ठी – ७७ में आज बाँस की बाँसुरी और पण्डित हरिप्रसाद चौरसिया आ ज ‘स्वरगोष्ठी’ का यह ७७ वाँ अंक है और आज की इस बैठक में मैं कृष्णमोहन मिश्र अपने सभी संगीत-प्रेमी पाठकों/श्रोताओं का हार्दिक स्वागत करते हुए बाँसुरी के अनन्य साधक पण्डित हरिप्रसाद चौरसिया का ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ की ओर से, अपनी ओर से और आप सब संगीत-प्रेमियों की ओर से अभिनन्दन करता हूँ। मित्रों, आज जुलाई की पहली तारीख है। आज ही के दिन १९३८ में इस महान संगीतज्ञ का जन्म हुआ था। एक साधारण सी दिखने वाली बाँस की बाँसुरी लेकर पूरे विश्व में भारतीय संगीत की विजय-पताका फहराने वाले पण्डित हरिप्रसाद चौरसिया का आज ७५वाँ जन्म-दिवस अर्थात अमृत महोत्सव मनाने का दिवस है। आज ही वे अपने जीवन के सुरीले ७४ वर्ष पूर्ण कर ७५वें वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं। आइए, ‘स्वरगोष्ठी’ में आज हम सब उन्हीं की कुछ रचनाओं से उनका अभिनन्दन करते हैं। बाँस से बनी बाँसुरी सम्भवतः सबसे प्राचीन स्वर-वाद्य है। महाभारत काल से पहले भी बाँसुरी का उल्लेख मिलता है। विष्णु के कृष्णावतार को तो ‘मुरलीधर’, ‘बंशीधर’, ‘वेणु के बजइया’ आदि नामों से सम्बोधित किया गय

११५वीं जयन्ती पर संगीत-मार्तण्ड ओंकारनाथ ठाकुर का स्मरण

स्वरगोष्ठी – ७६ में आज ‘मैं नहीं माखन खायो, मैया मोरी...’  २० वर्ष की आयु में ही वे इतने पारंगत हो गए कि उन्हें लाहौर के गन्धर्व संगीत विद्यालय का प्रधानाचार्य नियुक्त कर दिया गया। १९३४ में उन्होने मुम्बई में ‘संगीत निकेतन’ की स्थापना की। १९४० में महामना मदनमोहन मालवीय उन्हें काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संगीत संकाय के प्रमुख के रूप में बुलाना चाहते थे किन्तु अर्थाभाव के कारण न बुला सके। ‘स्व रगोष्ठी’ के एक नये अंक में, मैं कृष्णमोहन मिश्र अपने सभी संगीत-प्रेमी पाठकों-श्रोताओं का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ। आज २४ जून है और आज के ही दिन वर्ष १८९७ में तत्कालीन बड़ौदा राज्य के जहाज नामक गाँव में एक ऐसे महापुरुष का जन्म हुआ था जिसने आगे चल कर भारतीय संगीत जगत को ऐसी गरिमा प्रदान की, जिससे सारा विश्व चकित रह गया। आज हम आपके साथ संगीत-मार्तण्ड पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर के व्यक्तित्व पर चर्चा करेंगे और उनकी कुछ विशिष्ट रचनाएँ आपके लिए प्रस्तुत भी करेंगे। ओंकारनाथ के दादा महाशंकर जी और पिता गौरीशंकर जी नाना साहब पेशवा की सेना के वीर योद्धा थे। एक बार उनके पिता का सम्पर्क अलोनीबा

यादें : भारतीय सिनेमा के सौ साल : फिरोज दस्तूर

स्वरगोष्ठी – ७४ में आज फिल्म संगीत के शुरुआती दौर के नगीने : फिरोज दस्तूर भारतीय फिल्मों के मूक से वाचाल होते ही उसका संगीत से ऐसा गहरा नाता जुड़ा कि आज आठ दशकों बाद तक कायम है। गीत-संगीत के बिना आज भी भारतीय सिनेमा के सफलता की कल्पना भी नहीं की जा सकती। फिल्मों से पहले हमारे नाटकों में संगीत एक प्रमुख तत्व के रूप में उपस्थित रहा करता था। आरम्भिक फिल्मों में कई ऐसे संगीतकारों का योगदान रहा है, जिन्हें हम विस्मृत कर चुके हैं। पण्डित फिरोज दस्तूर एक ऐसे ही संगीतज्ञ थे। शा स्त्रीय, उपशास्त्रीय, फिल्म और लोक-संगीत पर केन्द्रित साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के एक नए अंक में सभी संगीत-प्रेमियों का, मैं कृष्णमोहन मिश्र, हार्दिक स्वागत करता हूँ। इस तथ्य से हम सब परिचित हैं कि भारत की पहली सवाक फिल्म ‘आलमआरा’ थी। इस पहली बोलती फिल्म में भी गीत-संगीत की प्रधानता थी, यद्यपि इस ऐतिहासिक फिल्म का संगीत दुर्भाग्य से आज उपलब्ध नहीं है। आरम्भिक दौर के फिल्म-संगीत की छानबीन के दौरान एक उल्लेखनीय और दुर्लभ कृति नज़र आई, जिसे आज के अंक में हम आपके साथ बाँट रहे हैं। फिल्म लाल-ए-यमन में फिर

जुबीन मेहता : पाश्चात्य संगीत का एक भारतीय साधक

स्वरगोष्ठी – ७३ में आज जिनके वाद्यवृन्द का सारा विश्व दीवाना हुआ भारतीय पारसी परिवार में एक समर्पित वायलिन-वादक के घर जन्में जुबीन मेहता को उनके पिता ने किशोरावस्था में जब संगीत शिक्षा के लिए पुणे भेजा तो उनका मन क्रिकेट खेलने में अधिक लगता था। अपने पुत्र के उज्ज्वल भविष्य के लिए पिता ने एक और प्रयास किया। इस बार जुबीन को सेण्ट ज़ेवियर कालेज में प्रवेश दिलाया गया, ताकि बेटा चिकित्सक बन सके। परन्तु पढ़ाई अधूरी छोड़कर वे संगीत के क्षेत्र में पुनः वापस लौट आए। ‘स्व रगोष्ठी’ के एक नए अंक के साथ मैं, कृष्णमोहन मिश्र, आपकी गोष्ठी में पुनः उपस्थित हूँ और आपका हार्दिक स्वागत करता हूँ। आज के अंक में पाश्चात्य संगीत के एक ऐसे भारतीय कलासाधक की चर्चा करेंगे, जिसके संगीत कार्यक्रमों ने कई दशकों से पूरे विश्व को दीवाना बना रखा है। जुबीन मेहता का जन्म २९ अप्रैल, १९३६ को तत्कालीन बम्बई के एक पारसी परिवार में हुआ था। जुबीन की माँ का नाम तेहमिना और पिता का नाम मेहली मेहता है। मेहली मेहता एक समर्पित संगीत-सेवी थे, जिन्होने अपने परिवार को एक चुनौती सी देते हुए वायलिन-वादक बनाना पसन्द किया। जुबीन

दत्तात्रेय विष्णु पलुस्कर : ९२वें जन्मदिवस पर स्मरण

स्वरगोष्ठी – ७२ में आज - ‘रघुपति राघव राजाराम...’  वह संगीत, जिससे महात्मा गाँधी ने भी प्रेरणा ग्रहण की थी  भारतीय संगीत को जनसामान्य में प्रतिष्ठित स्थान दिलाने में जिन शिखर-पुरुषों का आज हम स्मरण करते हैं , उनमें एक नाम पण्डित दत्तात्रेय विष्णु पलुस्कर का है। मात्र ३४ वर्ष की आयु में ही उन्होने भारतीय संगीत के कोश को समृद्ध कर इस नश्वर जगत से विदा ले लिया था। कल २८ मई को इस महान संगीतज्ञ ९२ वीं जयन्ती है। इस अवसर पर ‘ रेडियो प्लेबैक इण्डिया ’ की ओर से श्रद्धेय पलुस्कर जी की स्मृतियों को सादर नमन है।   ‘स्व रगोष्ठी’ के एक नये अंक में, मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक स्वागत करता हूँ। आज हम एक ऐसे संगीतज्ञ के व्यक्तित्व और कृतित्व पर आपसे चर्चा करेंगे, जिन्होने अपने छोटे से जीवन-काल में भारतीय संगीत को असाधारण रूप से समृद्ध किया। आज हम चर्चा कर रहे हैं, पण्डित दत्तात्रेय विष्णु पलुस्कर के व्यक्तित्व और कृतित्व पर, जिनका जन्म २८ मई, १९२१ को नासिक, महाराष्ट्र में, भारतीय संगीत के उद्धारक पण्डित विष्णु दिगम्बर पलुस्कर की बारहवीं सन्तान के रूप में