ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 719/2011/159 'ए ल्ड इज़ गोल्ड' के सभी चाहने वालों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार! जैसा कि इन दिनों इस स्तंभ में आप आनंद ले रहे हैं सजीव सारथी की लिखी कविताओं और उन कविताओं पर आधारित फ़िल्मी रचनाओं की लघु शृंखला ' एक पल की उम्र लेकर ' में। आज नवी कड़ी के लिए हमने चुनी है कविता ' बहुत देर तक '। बहुत देर तक यूँ ही तकता रहा मैं परिंदों के उड़ते हुए काफ़िलों को बहुत देर तक यूँ ही सुनता रहा मैं सरकते हुए वक़्त की आहटों को बहुत देर तक डाल के सूखे पत्ते भरते रहे रंग आँखों में मेरे बहुत देर तक शाम की डूबी किरणें मिटाती रही ज़िंदगी के अंधेरे बहुत देर तक मेरा माँझी मुझको बचाता रहा भँवर से उलझनों की बहुत देर तक वो उदासी को थामे बैठा रहा दहलीज़ पे धड़कनों की बहुत देर तक उसके जाने के बाद भी ओढ़े रहा मैं उसकी परछाई को बहुत देर तक उसके अहसास ने सहारा दिया मेरी तन्हाई को। इस कविता में कवि के अंदर की तन्हाई, उसके अकेलेपन का पता चलता है। कभी कभी ज़िंदगी यूं करवट लेती है कि जब हमारा साथी हमसे बिछड़ जाता है। हम लाख कोशिश करें उसके दामन को अपनी ओर खींचे