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कतरा कतरा मिलती है.....खुशी और दर्द के तमाम फूलों को समेट लेता है "वो" आकर

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 717/2011/157 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' स्तंभ के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय और सजीव का प्यार भरा नमस्कार! आज इस सुरीली महफ़िल की शमा जलाते हुए पेश कर रहे हैं सजीव सारथी की लिखी कविता ' वो '। लघु शृंखला ' एक पल की उम्र लेकर ' की यह है सातवीं कड़ी। समय की पृष्ठभूमि पर बदलते रहे चित्र कुछ चेहरे बने कुछ बुझ गए कुछ कदम साथ चले कुछ खो गए पर वो उसकी ख़ुशबू रही साथ सदा उसका साया साथ चला मेरे हमेशा टूटा कभी जब हौंसला और छूटे सारे सहारे उन थके से लम्हों में डूबी-डूबी तन्हाइयों में वो पास आकर ज़ख़्मों को सहलाता रहा उसके कंधों पर रखता हूँ सर तो बहने लगता है सारा गुबार आँखों से वो समेट लेता है मेरे सारे आँसू अपने दामन में फिर प्यार से काँधे पर रख कर हाथ कहता है - अभी हारना नहीं अभी हारना नहीं मगर उसकी उन नूर भरी चमकती मुस्कुराती आँखों में मैं देख लेता हूँ अपने दर्द का एक झिलमिलाता-सा कतरा। इसमें कोई शक़ नहीं कि उस एक इंसान की आँखों में ही अपनी परछाई दिखती है, अपना दर्द बस उसी की आँखों से बहता है। जिस झिलमिलाते कतरे की बात कवि नें उपर कविता की अंतिम पंक्ति में

तेरे पास आके मेरा वक्त गुजर जाता है ...."लम्स तुम्हारा" यूं मुझमें ठहर जाता है

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 716/2011/156 आ ज रविवार की शाम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक नए सप्ताह के साथ हम हाज़िर हैं, नमस्कार! पिछले हफ़्ते आपनें सजीव सारथी की लिखी कविताओं की किताब ' एक पल की उम्र लेकर ' से चुन कर पाँच कविताओं पर आधारित पाँच फ़िल्मी गीत सुनें, इस हफ़्ते पाँच और कविताओं तथा पाँच और गीतों को लेकर हम तैयार हैं। तो स्वागत है आप सभी का, लघु शृंखला 'एक पल की उम्र लेकर' की छठी कड़ी में। इस कड़ी के लिए हमने चुनी है कविता ' लम्स तुम्हारा '। उस एक लम्हे में जिसे मिलता है लम्स तुम्हारा दुनिया सँवर जाती है मेरे आस-पास धूप छूकर गुज़रती है किनारों से और जिस्म भर जाता है एक सुरीला उजास बादल सर पर छाँव बन कर आता है और नदी धो जाती है पैरों का गर्द सारा हवा उड़ा ले जाती है पैरहन और कर जाती है मुझे बेपर्दा खरे सोने सा, जैसा गया था रचा उस एक लम्हे में जिसे मिलता है लम्स तुम्हारा कितना कुछ बदल जाता है मेरे आस-पास। हमारी ज़िंदगी में कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनसे मिल कर अच्छा लगता है, जिनके साथ हम दिल की बातें शेयर कर सकते हैं। और ऐसे लोगों में एक ख़ास इंसान ऐसा होता है

कोई होता मेरा अपना.....शोर के "जंगल" में कोई जानी पहचानी सदा ढूंढती जिंदगी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 715/2011/155 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' की एक और शाम लेकर मैं, सुजॉय चटर्जी, साथी सजीव सारथी के साथ हाज़िर हूँ। जैसा कि आप जानते हैं इन दिनों इस स्तंभ में जारी है लघु शृंखला ' एक पल की उम्र लेकर ', जिसके अन्तर्गत सजीव जी की लिखी कविताओं की इसी शीर्षक से किताब में से चुनकर १० कविताओं पर आधारित फ़िल्मी गीत बजाये जा रहे हैं। आज की कविता का शीर्षक है ' जंगल '। यह जंगल मेरा है मगर मैं ख़ुद इसके हर चप्पे से नहीं हूँ वाकिफ़ कई अंधेरे घने कोने हैं जो कभी नहीं देखे मैं डरा डरा रहता हूँ अचानक पैरों से लिपटने वाली बेलों से गहरे दलदलों से मुझे डर लगता है बर्बर और ज़हरीले जानवरों से जो मेरे भोले और कमज़ोर जानवरों को निगल जाते हैं मैं तलाश में भटकता हूँ, इस जंगल के बाहर फैली शुआओं की, मुझे यकीं है कि एक दिन ये सारे बादल छँट जायेंगे मेरे सूरज की किरण मेरे जंगल में उतरेगी और मैं उसकी रोशनी में चप्पे-चप्पे की महक ले लूंगा फिर मुझे दलदलों से पैरों से लिपटी बेलों से डर नहीं लगेगा उस दिन - ये जंगल सचमुच में मेरा होगा मेरा अपना। जंगल की आढ़ लेकर कवि नें कितनी सुंदरता

दिल ढूँढता है....रोजमर्रा की आपाधापी से भरे शहरी जीवन में सुकून भरा "अवकाश" तलाशती जिंदगी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 713/2011/153 'ए क पल की उम्र लेकर' - सजीव सारथी की कविताओं से सजी इस पुस्तक में से १० चुनिंदा कविताओं पर आधारित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस लघु शृंखला की तीसरी कड़ी में प्रस्तुत है कविता 'अवकाश'। सुबह की गलियों में अंधेरा है बहुत अभी आँखों को मूँदे रहो घड़ी का अलार्म जगाये अगर रख उसके होठों पे हाथ चुप करा दो काला सूरज आसमान पर लटक तो गया होगा बाहर शोर सुनता हूँ मैं इंसानों का, मशीनों का, आज खिड़की के परदे मत हटाओ आज पड़े रहने दो, दरवाज़े पर ही, बासी ख़बरों से सने अख़बार को किसे चाहिए ये सुबह, ये सूरज फिर वही धूप, वही साये वही भीड़, वही चेहरे वही सफ़र, वही मंज़िल वही इश्तेहारों से भरा ये शहर वही अंधी दौड़ लगाती फिर भी थमी-ठहरी सी रोज़मर्रा की ये ज़िंदगी नहीं, आज नहीं आज इसी कमरे में पड़े रहने दो मुझे अपनी ही बाहों में 'हम' अतीत की गलियों में घूमेंगे गुज़रे बीते मौसमों का सुराग ढूंढ़ेंगे कुछ रूठे-रूठे उजड़े-बिछड़े सपनों को भी बुलवा लेंगे मुझे यकीन है कुछ तो ज़िंदा होंगे ज़रूर खींच कर कुछ पल को इन मरी हुई सांसों से ज़िंदा कर लूंगा फिर, ज़

मैं तो हर मोड पे तुझको दूंगा सदा....दिलों के बीच उभरी नफरत की दीवारों को मिटाने की गुहार

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 712/2011/152 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' में कल से हमने शुरु की है सजीव सारथी की लिखी कविताओं की किताब ' एक पल की उम्र लेकर ' से १० चुने हुए कविताओं और उनसे सम्बंधित फ़िल्मी गीतों पर आधारित यह लघु शृंखला। आज इसकी दूसरी कड़ी में प्रस्तुत है कविता 'दीवारें'। मैं छूना चाहता हूँ तुम्हें महसूस करना चाहता हूँ तुम्हारा दिल पर देखना तो दूर मैं सुन भी नहीं पाता हूँ तुम्हें तुम कहीं दूर बैठे हो सरहदों के पार हो जैसे कुछ कहते तो हो ज़रूर पर आवाज़ों को निगल जाती हैं दीवारें जो रोज़ एक नए नाम की खड़ी कर देते हैं 'वो' दरमियाँ हमारे तुम्हारे घर की खिड़की से आसमाँ अब भी वैसा ही दिखता होगा ना तुम्हारी रसोई से उठती उस महक को पहचानती है मेरी भूख अब भी, तुम्हारी छत पर बैठ कर वो चाँदनी भर-भर पीना प्यालों में याद होगी तुम्हें भी मेरे घर की वो बैठक जहाँ भूल जाते थे तुम कलम अपनी तुम्हारे गले से लग कर रोना चाहता हूँ फिर मैं और देखना चाहता हूँ फिर तुम्हें चहकता हुआ अपनी ख़ुशियों में तरस गया हूँ सुनने को तुम्हारे बच्चों की किलकारियाँ जाने कितनी सदियाँ से पर सोचता हूँ

दिन ढल जाए हाय रात न जाए....सरफिरे वक्त को वापस बुलाती रफ़ी साहब की आवाज़

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 711/2011/151 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार, और बहुत बहुत स्वागत है आप सभी का इस सुरीले सफ़र में। कृष्णमोहन मिश्र जी द्वारा प्रस्तुत दो बेहद सुंदर शृंखलाओं के बाद मैं, सुजॉय चटर्जी वापस हाज़िर हूँ इस नियमित स्तंभ के साथ। इस स्तंभ की हर लघु शृंखला की तरह आज से शुरु होने वाली शृंखला भी बहुत ख़ास है, और साथ ही अनोखा और ज़रा हटके भी। दोस्तों, आप में से बहुत से श्रोता-पाठकों को मालूम होगा कि 'आवाज़' के मुख्य सम्पादक सजीव सारथी की लिखी कविताओं का पहला संकलन हाल ही में प्रकाशित हुआ है, और इस पुस्तक का शीर्षक है ' एक पल की उम्र लेकर '। जब सजीव जी नें मुझसे अपनी इस पुस्तक के बारे में टिप्पणी चाही, तब मैं ज़रा दुविधा मे पड़ गया क्योंकि कविताओं की समीक्षा करना मेरे बस की बात नहीं। फिर मैंने सोचा कि क्यों न इस पुस्तक में शामिल कुल ११० कविताओं में से दस कविताएँ छाँट कर और उन्हें आधार बनाकर फ़िल्मी गीतों से सजी 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक शृंखला पेश करूँ? फ़िल्मी गीत जीवन के किसी भी पहलु से अंजान नहीं रहा है, इसलिए इन १० कविताओं से मिलते जुलत

अदभुत प्रतिभा की धनी गायिका मिलन सिंह से बातचीत

ओल्ड इज़ गोल्ड - शनिवार विशेष - 50 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी दोस्तों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार, और स्वागत है आप सभी का इस 'शनिवार विशेषांक' में। दोस्तों, यूं तो यह साप्ताहिक विशेषांक है, पर इस बार का यह अंक वाक़ई बहुत बहुत विशेष है। इसके दो कारण हैं - पहला यह कि आज यह स्तंभ अपना स्वर्ण जयंती मना रहा है, और दूसरा यह कि आज हम जिस कलाकार से आपको मिलवाने जा रहे हैं, वो एक अदभुत प्रतिभा की धनी हैं। इससे पहले कि हम आपका परिचय उनसे करवायें, हम चाहते हैं कि आप नीचे दी गई ऑडिओ को सुनें। मेडली गीत कभी मोहम्मद रफ़ी, कभी किशोर कुमार, कभी गीता दत्त, कभी शम्शाद बेगम, कभी तलत महमूद और कभी मन्ना डे के गाये हुए इन गीतों की झलकियों को सुन कर शायद आपको लगा हो कि चंद कवर वर्ज़न गायक गायिकाओं के गाये ये संसकरण हैं। अगर ऐसा ही सोच रहे हैं तो ज़रा ठहरिए। हाँ, यह ज़रूर है कि ये सब कवर वर्ज़न गीतों की ही झलकियाँ थीं, लेकिन ख़ास बात यह कि इन्हें गाने "वालीं" एक ही गायिका हैं। जी हाँ, यह सचमुच चौंकाने वाली ही बात है कि इस गायिका को पुरुष और स्त्री कंठों में बख़ूबी गा सकने की अ

ओल्ड इस गोल्ड -शनिवार विशेष - संगीतकार दान सिंह को भावभीनी श्रद्धाजंली

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी दोस्तों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार, और स्वागत है आप सभी का इस 'शनिवार विशेषांक' में। फ़िल्म-संगीत के सुनहरे दौर के बहुत से ऐसे कमचर्चित संगीतकार हुए हैं जिन्होंने बहुत ही गिनी चुनी फ़िल्मों में संगीत दिया, पर संख्या में कम होने की वजह से ये संगीतकार धीरे धीरे हमारी आँखों से ओझल हो गये। हम भले इनके रचे गीतों को यदा-कदा सुन भी लेते हैं, पर इनके व्यक्तिगत जीवन के बारे में बहुत कम लोगों को पता होता है। यहाँ तक कि कई बार इनकी खोज ही नहीं मिल पाती, ये जीवित हैं या नहीं, सटीक रूप से कहा भी नहीं जा सकता। और जिस दिन ये संगीतकार इस जगत को छोड़ कर चले जाते हैं, उस दिन उनके परिवार वालों के सहयोग से किसी अख़्बार के कोने में यह ख़बर छप जाती है कि फ़लाना संगीतकार नहीं रहे। पिछले महीने एक ऐसे ही कमचर्चित संगीतकार हमसे हमेशा के लिए जुदा हो गये। लीवर की बीमारी से ग्रस्त, ७८ वर्ष की आयु में संगीतकार दान सिंह नें १८ जून को अंतिम सांस ली। दान सिंह का नाम लेते ही फ़िल्म 'माइ लव' के दो गीत "वो तेरे प्यार का ग़म" और "ज़िक्र होता है जब क़यामत का&quo

पिया बिन नाहीं आवत चैन: राग झिंझोटी के सुरों में उभरी देवदास की बेचैनी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 681/2011/121 न मस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी दोस्तों को सुजॉय चटर्जी का नमस्कार! सजीव सारथी के निर्देशन में इस सुरीले कारवाँ को लेकर आगे बढ़ते हुए हम बहुत जल्द पहुँचने वाले हैं अपने ७००-वे पड़ाव पर। इस ख़ास मंज़िल को छू पाना हमारे लिए एक बड़ी उपलब्धि है। इसलिए हमें लगा कि जिस शृंखला के ज़रिये हम इस ७००-वे अंक तक पहुँचेंगे, वह शृंखला बेहद ख़ास होनी चाहिए। इस मनोकामना को साकार करने के लिए हम एक बार फिर से आमंत्रित कर रहे हैं हमारे अतिथि स्तंभकार और वरिष्ठ कला-समीक्षक व पत्रकार श्री कृष्णमोहन मिश्र को। आइए 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के अगले तीस अंकों (६८१ से ७१०) का हम आनंद लें कृष्णमोहन जी के साथ। ************************************************************************ 'ओल्ड इज गोल्ड' के संगीत प्रेमी पाठकों/श्रोताओं का आज से शुरू हो रही हमारी नई श्रृंखला 'रस के भरे तोरे नैन...' में कृष्णमोहन मिश्र की ओर से हार्दिक स्वागत है| आपको शीर्षक से ही यह अनुमान हो ही गया होगा कि इस श्रृंखला का विषय फिल्मों में शामिल उपशास्त्रीय गायन शैली "ठुमरी

ओल्ड इज़ गोल्ड - शनिवार विशेष - 46 - "मेरे पास मेरा प्रेम है"

पंडित नरेन्द्र शर्मा की सुपुत्री लावण्या शाह से लम्बी बातचीत - भाग-2 पहले पढ़ें भाग १ 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार, और स्वागत है आप सभी का 'शनिवार विशेषांक' में। पिछले शनिवार से हमनें इसमें शुरु की है शृंखला 'मेरे पास मेरा प्रेम है', जो कि केन्द्रित है सुप्रसिद्ध कवि, साहित्यकार और गीतकार पंडित नरेन्द्र शर्मा की सुपुत्री श्रीमती लावण्या शाह से की गई हमारी बातचीत पर। आइए आज प्रस्तुत है इस शृंखला की दूसरी कड़ी। सुजॉय - लावण्या जी, एक बार फिर हम आपका स्वागत करते है 'आवाज़' पर, नमस्कार! लावण्या जी - नमस्ते! सुजॉय - लावण्या जी, पिछले हफ़्ते हमारी बातचीत आकर रुकी थी पंडित जी के आयुर्वेद ज्ञान की चर्चा पर। साथ ही आपनें पंडित जी के शुरुआती दिनों के बारे में बताया था। आज बातचीत हम शुरु करते हैं उस मोड़ से जहाँ पंडित जी मुंबई आ पहुँचते हैं। हमने सुना है कि पंडित जी ३० वर्ष की आयु में बम्बई आये थे भगवती चरण वर्मा के साथ। यह बताइए कि इससे पहले उनकी क्या क्या उपलब्धियाँ थी बतौर कवि और साहित्यिक। बम्बई आकर फ़िल्म जगत से जुड़ना क्यों ज़रूरी हो गया? लावण्या जी -

एक दफा एक जंगल था उस जंगल में एक गीदड था....याद है कुछ इस कहानी में आगे क्या हुआ था

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 680/2011/120 कि स्से-कहानियों का आनंद लेते हुए आज हम आ पहुँचे हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की लघु शृंखला 'एक था गुल और एक थी बुलबुल' की अंतिम कड़ी पर। इस शृंखला में हमनें कोशिश की कि अलग अलग गीतकारों के लिखे कहानीनुमा गीत आपको सुनवायें। आनन्द बक्शी साहब के दो गीतों के अलावा किदार शर्मा, मुंशी अज़ीज़, क़मर जलालाबादी, हसरत जयपुरी, मजरूह सुल्तानपुरी, प्रेम धवन और रवीन्द्र रावल के लिखे एक एक गीत आपनें सुनें। आज इस शृंखला की आख़िरी कड़ी में बारी एक और बेहतरीन गीतकार गुलज़ार साहब की। १९८३ में कमल हासन - श्रीदेवी अभिनीत पुरस्कृत फ़िल्म आयी थी 'सदमा'। फ़िल्म की कहानी जितनी मर्मस्पर्शी थी, कमल हासन और श्रीदेवी का अभिनय भी सर चढ़ कर बोला। फ़िल्म की कहानी तो आपको मालूम ही है। मानसिक रूप से बीमार श्रीदेवी, जो एक छोटी बच्ची की तरह पेश आती है, कमल हासन उसे कैसे संभालते हैं, किस तरह से उसका देखभाल करते हैं, लेकिन जब श्रीदेवी ठीक हो जाती है और कमल हासन के साथ गुज़ारे दिन भूल जाती हैं, तब कमल हासन को किस तरह का सदमा पहूँचता है, यही था इस फ़िल्म का सार। रेल्वे स्ट

कुछ दिन पहले एक ताल में....क्लास्सिक कहानी कहने के अंदाज़ में लिखा मजरूह ने इस गीत को

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 675/2011/115 क हानी भरे गीतों से सजी 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इन दिनो चल रही लघु शृंखला 'एक था गुल और एक थी बुलबुल' में अब तक जिन "कहानीकारों" को हम शामिल कर चुके हैं, वो हैं किदार शर्मा, मुंशी अज़ीज़, क़मर जलालाबादी और हसरत जयपुरी। और इन कहानियों को हमें सुनाया सहगल, शांता आप्टे, सुरैया और लता मंगेशकर नें। आज इस लड़ी में एक और कड़ी को जोड़ते हुए सुनवा रहे हैं मजरूह सुल्तानपुरी की लिखी कहानी आशा भोसले के स्वर में। नर्गिस पर फ़िल्माया यह गीत है १९५८ की फ़िल्म 'लाजवंती' का। मजरूह साहब नें शुद्ध हिंदी के शब्दों का प्रयोग करते हुए इस कहानी रूपी गीत को लिखा है और दादा बर्मन का लाजवाब संगीत है इस गीत में। फ़िल्म का एक और कहानीनुमा गीत " चंदा मामा, मेरे द्वार आना " आप 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर पहले सुन चुके हैं। जैसा कि पिछले अंकों में हमनें बताया था कि फ़िल्मों में अक्सर नायिका अपने जीवन की दुखभरी कहानी को ही किसी बच्चे को लोरी-गीत के रूप में सुनाती है, इस गीत का भाव भी कुछ हद तक वैसा ही है। कहानी है एक बतख के जोड़े की और उनके

सुनो छोटी सी गुड़िया की लम्बी कहानी.....हसरत जयपुरी के कलम की बयानी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 674/2011/114 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' में इन दिनों जारी है कहानी भरे गीतों से सजी लघु शृंखला 'एक था गुल और एक थी बुलबुल'। कल की कड़ी में आपनें सुनें सुरैया की आवाज़ में एक ऐसा गीत जिसमें माँ अपने बच्चे को सुलाने के लिये लोरी गाती है जो मूलत: अपने ही जीवन की दर्दीली दास्तान है। इस तरह के गीत इसके बाद भी कई बार फ़िल्मों में आये हैं। आज हम जिस गीत को लेकर आये हैं वह भी उसी जौनर का है, और शायद इस जौनर का सब से चर्चित गीत रहा है। १९५५ की फ़िल्म 'सीमा' का लता मंगेशकर का गाया "सुनो छोटी सी गुड़िया की लम्बी कहानी"। हसरत जयपुरी के बोल और शंकर जयकिशन का संगीत। राग भैरवी पर आधारित इस गीत में सरोद नवाज़ उस्ताद अली अकबर ख़ान साहब के सरोद के टुकड़े गीत की ख़ास बात है। ऐसा सुना जाता है कि इस गीत को शंकर नें ख़ान साहब के सरोद को ध्यान में रख कर ही स्वरबद्ध किया था। लेकिन ख़ान साहब नें इस गीत से पहले शंकर से यह कहा था कि फ़िल्मी संगीतकार जिस तरह से सितार का प्रयोग अपने गीतों में कर सकते है, वैसा सरोद के साथ कर पाना उनके लिये बहुत मुश्किल काम हो जाता ह

ओल्ड इज़ गोल्ड - शनिवार विशेष - 44 - 'उषा मंगेशकर से ट्विटर पर छोटी सी मुलाक़ात और उनके गाये चंद असमीया फ़िल्मी गीत'

नमस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, शनिवार विशेषांक के साथ मैं, आपका दोस्त सुजॉय, हाज़िर हूँ। पिछले दिनों 'हिंद-युग्म' नें मुझे 'लोकप्रिय गोपीनाथ बार्दोलोई हिंदी सेवी सम्मान' से जब सम्मानित किया था, तो मेरी ख़ुशी की सीमा न थी। यह ख़ुशी सिर्फ़ इस बात की नहीं थी कि मैं पुरस्कृत हो रहा था, बल्कि इस बात की भी थी कि यह पुरस्कार उस महान शख़्स के नाम पर था जो उसी जगह से ताल्लुख़ रखते थे जहाँ से मैं हूँ। जी हाँ, आसाम की सरज़मीं। आसाम, जहाँ मेरा जन्म हुआ, जहाँ से मैंने अपनी पढ़ाई पूरी की, और जहाँ से मेरी नौकरी जीवन की शुरुआत हुई। उस रोज़ मैं उस पुरस्कार को ग्रहण करते हुए यह सोच रहा था कि 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के लिये मुझे यह पुरस्कार दिया गया है, तो क्यों न 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में एक विशेषांक असमीया फ़िल्म संगीत को लेकर की जाये! तभी मुझे याद आया कि पिछले साल, जून के महीने में, जब तीनों मंगेशकर बहनों का ट्विटर पर आगमन हुआ, उस वक़्त मैंने लता जी और उषा जी से कुछ सवाल पूछे थे, जिनमें से कुछ के उन दोनों ने जवाब भी दिये थे। आपको याद होगा लता जी से की हुई बातचीत को ह