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दादी अम्मा दादी अम्मा मान जाओ...जब तुतलाती आवाजों में ऐसे बच्चे मनाएं तो कौन भला रूठा रह पाए

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 267 'ब्र च्चों का एक गहरा लगाव होता है अपने दादा-दादी और नाना-नानी के साथ। कहते हैं कि बूढ़ों और बच्चों में ख़ूब अच्छी बनती है। कभी दादी-नानी बच्चों को परियों की कहानी सुनाते हुए रूपकथाओं के देश में ले जाते हैं तो कभी सर्दी की किसी सूनसान रात में बच्चों के ज़िद पर भूतों की ऐसी कहानी सुनाते हैं कि फिर उसके बाद बच्चे बिस्तर से नीचे उतरने में भी डरते हैं। कहानी चाहे कोई भी हो, नानी-दादी से कहानी सुनने का मज़ा ही कुछ और है। ठीक इसी तरह से बच्चे भी अपने इन बड़े बुज़ुर्गों का ख़याल रखते हैं। उनके साथ सैर पे जाना, उनकी छोटी मोटी ज़रूरतों को पूरा करना, चश्मा या लाठी खोजने में मदद करना जैसे काम नाती पोती ही तो करते आए हैं। घर में जब तक बड़े बूढ़े और बच्चे हों, घर की रौनक ही कुछ और होती है। अफ़सोस की बात है कि आज की पीढ़ी के बहुत से लोग अपने बूढ़े माँ बाप से अलग हो जाते हैं। ऐसे में आज के बच्चे भी अपने दादा-दादी से अलग हो जाते हैं। यह एक ऐसी हानि हो रही है बच्चों की जिसकी किसी भी और तरीके से भरपाई होना असंभव है। जो संस्कृति और शिक्षा दादा-दादी और नाना-नानी से मिलती ह

नन्हा मुन्ना राही हूँ...देश का सिपाही हूँ....बोलो मेरे संग जय हिंद....जय हिंद के नन्हे शहजादे

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 262 आ ज है १४ नवंबर, देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु जी की जयंती, जिसे पूरे देश भर में 'बाल दिवस' के रूप में मनाया जाता है। पं. नेहरु के बच्चों से लगाव इतना ज़्यादा था, बच्चे उन्हे इतने ज़्यादा प्यारे थे कि बच्चे उन्हे प्यार से 'चाचा नेहरु' कहकर बुलाते थे। इसलिए १९६३ में उनकी मृत्यु के बाद आज का यह दिन 'बाल दिवस' के रूप में मनाया जाता है, और आज के दिन सरकार की तरफ़ से बच्चों के विकास के लिए तमाम योजनाओं का शुभारंभ किया जाता है। आज का यह दिन जहाँ एक तरफ़ उस पीढ़ी को समर्पित है जिसे कल इस देश की बागडोर संभालनी है, वहीं दूसरी ओर यह उस नेता को याद करने का भी दिन है जिन्होने इस देश को नींद से जगाकर एक विश्व शक्ति में परिवर्तित करने का ना केवल सपना देखा बल्कि उस सपने को सच करने के लिए कई कारगर क़दम भी उठाए। बच्चों के साथ पंडित जी के अंतरंग लगाव के प्रमाण के तौर पर उनकी बहुत सारी ऐसी तस्वीरें देखी जा सकती है जिनमें वो बच्चों से घिरे हुए हैं। कहा जाता है कि एक बार किसी बच्चे ने उनकी जैकेट में लाल रंग का गुलाब लगा दिया था, और तभी स

सुहानी रात ढल चुकी न जाने तुम कब आओगे...अनंत इंतज़ार की पीड़ा है इस गीत में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 254 पू र्वी जी के पसंद के गानों का लुत्फ़ इन दिनों आप उठा रहे हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर। पूर्वी जी के पसंद के इन पाँच गीतों की खासियत यह है कि ये पाँच गानें पाँच अलग गीतकार और पाँच अलग संगीतकारों की रचनाएँ हैं। कमाल अमरोही - ग़ुलाम मोहम्मद, हसरत जयपुरी - दत्ताराम, और राजेन्द्र कृष्ण - मदन मोहन के बाद आज बारी है एक ऐसे गीतकार - संगीतकार जोड़ी की जो फ़िल्म जगत के इस तरह की जोड़ियों में एक बेहद महत्वपूर्ण स्थान रखती है। यह जोड़ी है शक़ील बदायूनी और नौशाद अली की। जी हाँ, आज प्रस्तुत है शक़ील - नौशाद की एक रचना मोहम्मद रफ़ी के स्वर में। फ़िल्म 'दुलारी' का यह गीत है "सुहानी रात ढल चुकी, ना जाने तुम कब आओगे"। १९४९ का साल शक़ील - नौशाद के लिए एक सुखद साल रहा। महबूब ख़ान की फ़िल्म 'अंदाज़', ताजमहल पिक्चर्स की फ़िल्म 'चांदनी रात', तथा ए. आर. कारदार साहब की दो फ़िल्में 'दिल्लगी' और 'दुलारी' इसी साल प्रदर्शित हुई थी और ये सभी फ़िल्मों का गीत संगीत बेहद लोकप्रिय सिद्ध हुआ था। आज ज़िक्र 'दुलारी' का। इस फ़िल्म के

ओ बेकरार दिल हो चुका है मुझको आंसुओं से प्यार....लता का गाया एक बेमिसाल गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 239 क ल हमने बात की थी हेमन्त कुमार के निजी बैनर 'गीतांजली पिक्चर्स' के तले बनी फ़िल्म 'ख़ामोशी' की। हेमन्त दा के इस बैनर तले बनी फ़िल्मों और उनके मीठे संगीत का ही शायद यह असर है कि एक गीत से दिल ही नहीं भरता इसलिए आज हम एक बार फिर सुनने जा रहे हैं उनके इसी बैनर तले निर्मित फ़िल्म 'कोहरा' से एक और गीत, इससे पहले इस फ़िल्म का हेमन्त दा का ही गाया " ये नयन डरे डरे " आप इस महफ़िल में सुन चुके हैं। आज इस फ़िल्म से सुनिए लता मंगेशकर की आवाज़ में "ओ बेक़रार दिल हो चुका है मुझको आँसुओं से प्यार"। 'बीस साल बाद' और 'कोहरा' हेमन्त दा के इस बैनर की दो उल्लेखनीय सस्पेन्स फ़िल्में रहीं। आइए आज 'कोहरा' की कहानी आपको बताई जाए। अपने पिता के मौत के बाद राजेश्वरी अनाथ हो जाती है, और बोझ बन जाती है एक विधवा पर जो माँ है एक ऐसे बेटे रमेश की जिसकी मानसिक हालत ठीक नहीं। उस औरत का यह मानना है कि अगर राजेश्वरी रमेश से शादी कर ले तो वो ठीक हो जाएगा। लेकिन राजेश्वरी को कतई मंज़ूर नहीं कि वो उस पागल से शादी करे, इसलिए वो

ओ दुनिया के रखवाले....रफी साहब के गले से निकली ऐसी सदा जिसे खुदा भी अनसुनी न कर पाए

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 224 सु नहरे दौर में बहुत सारी ऐसी फ़िल्में बनी हैं जिनका हर एक गीत कामयाब रहा है। ५० के दशक की ऐसी ही एक फ़िल्म रही है 'बैजु बावरा'। अब तक 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में हमने आप को इस फ़िल्म के दो गीत सुनवा चुके हैं, " तू गंगा की मौज " और " मोहे भूल गए साँवरिया "। फ़िल्म के सभी गानें राग प्रधान हैं और नौशाद साहब ने शास्त्रीय संगीत की ऐसी छटा बिखेरी है कि ये गानें आज अमर हो गए हैं। नौशाद साहब की काबिलियत तो है ही, साथ ही यह असर है हमारे शास्त्रीय संगीत का। हमने पहले भी यह कहा है कि भारतीय शास्त्रीय संगीत में कुछ ऐसी ख़ास बात है कि यह हमारे कानों को ही नहीं बल्कि आत्मा पर भी असर करती है। और शायद यही वजह है कि रागों पर आधारित गानें कालजयी बन जाते हैं। 'बैजु बावरा' के उपर्युक्त गानें क्रम से राग भैरवी और भैरव पर आधारित हैं। इस फ़िल्म के लगभग सभी गीत किसी ना किसी शास्त्रीय राग पर आधारित है। और क्यों ना हो, फ़िल्म की कहानी ही है तानसेन और बैजु बावरा की, जो शास्त्रीय संगीत के दो स्तंभ माने जाते हैं। इसलिए 'दस राग दस रंग' शृंखल

मिलते ही ऑंखें दिल हुआ दीवाना किसी का....एक बेहतरीन दोगाना शमशाद और तलत की आवाजों में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 207 आ प सभी को हमारी तरफ़ से नवरात्री के आरंभ की हार्दिक शुभकामनाएँ। यह त्योहार आप सभी के जीवन में ख़ुशियाँ ले कर आए, घर घर ख़ुशहाली हो, सभी सुख शांती से रहें यही हम माँ दुर्गा से प्रार्थना करते हैं। कल की तरह 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में आज भी एक युगल गीत की बारी। आज हम ज़रा पीछे की तरफ़ चलते हैं। साल १९५०। इस साल नौशाद और शक़ील बदायूनी ने जिन दो प्रमुख फ़िल्मों में साथ साथ काम किया था उनके नाम हैं 'दास्तान' और 'बाबुल'। दोनों ही फ़िल्में सुपरहिट रहीं। 'दास्तान' में राज कपूर और सुरय्या थे तो 'बाबुल' में दिलीप कुमार, नरगिस और मुनव्वर सुल्ताना। 'दास्तान' ए. आर. कारदार की फ़िल्म थी। निर्देशक एस. यु. सनी, जो १९४७ में कारदार साहब की फ़िल्म 'नाटक' का निर्देशन किया था, उन्होने अपनी निजी कंपनी खोली सनी आर्ट प्रोडक्शन्स के नाम से और इस बैनर के तले उन्होने अपनी पहली फ़िल्म बनाई १९५० में, 'बाबुल'। इसका निर्देशन उन्होने ख़ुद ही किया। नौशाद साहब को वो 'नाटक' और 'मेला' जैसी फ़िल्मों के दिनों से ही अच्छी

जब दिल से दिल टकराता है... दिलीप का अंदाज़ और रफी साहब की आवाज़

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 152 ज ब रफ़ी साहब के गीतों पर दस चेहरों की अदायगी की बात हो, तो एक अभिनेता जिनके ज़िक्र के बग़ैर चर्चा अधूरी रह जायेगी, वो हैं अभिनय के शहंशाह दिलीप कुमार साहब। रफ़ी साहब ने एक से एक बढ़कर गीत गाये हैं दिलीप साहब के लिये, लेकिन दिलीप साहब जब फ़िल्मों में आये थे तब रफ़ी साहब मुख्य रूप से उनका प्लेबैक नहीं किया करते थे। अरुण कुमार ने पहली बार दिलीप कुमार का पार्श्वगायन किया था उनकी पहली फ़िल्म 'ज्वार भाटा' में। उसके बाद तलत महमूद बने दिलीप साहब की आवाज़ और कई मशहूर गीत बनें जैसे कि 'दाग़', 'आरज़ू', 'बाबुल', 'तराना', 'संगदिल', 'शिकस्त', 'फ़ूटपाथ', इत्यादि फ़िल्मों में। तलत साहब के साथ साथ मुकेश ने भी कई फ़िल्मों में दिलीप कुमार के लिये गाया जैसे कि 'मधुमती', 'यहूदी' वगेरह। लेकिन जो आवाज़ दिलीप साहब पर सब से ज़्यादा जचीं, वो थी मोहम्मद रफ़ी साहब की आवाज़। रफ़ी साहब ने उनके लिए इतने सारे मशहूर गीत गाये हैं कि अगर उसकी फ़ेहरिस्त लिखने बैठें तो उलझ कर रह जायेंगे। बस इतना कहेंगे कि दिलीप सा

दिल लगाकर हम ये समझे ज़िंदगी क्या चीज़ है- शक़ील बदायूँनी की दार्शनिक शायरी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 129 "हो श वालों को ख़बर क्या बेख़ुदी क्या चीज़ है, इश्क़ कीजिये फिर समझिये ज़िंदगी क्या चीज़ है"। जगजीत सिंह की आवाज़ में फ़िल्म 'सरफ़रोश' की यह मशहूर ग़ज़ल तो आप ने बहुत बार सुनी होगी, जिसे लिखा था शायर और गीतकार निदा फ़ाज़ली साहब ने। 1999 में यह फ़िल्म आयी थी, लेकिन इससे लगभग 34 साल पहले गीतकार शक़ील बदायूँनी ने फ़िल्म 'ज़िंदगी और मौत' में एक गीत लिखा था "दिल लगाकर हम ये समझे ज़िंदगी क्या चीज़ है, इश्क़ कहते हैं किसे और आशिक़ी क्या चीज़ है" । आख़िरी अंतरे की अंतिम लाइन है "होश खो बैठे तो जाना बेख़ुदी क्या चीज़ है", जो एक बार फिर से हमारा ध्यान "होश वालों को ख़बर क्या बेख़ुदी क्या चीज़ है" की तरफ़ ले जाती है। इसमें कोई शक़ नहीं कि इन दोनों गीतों में अद्‍भुत समानता है, बोलों के लिहाज़ से भी और कुछ हद तक संगीत के लिहाज़ से भी। जिस तरह से कई गीतों का संगीत एक दूसरे से बहुत अधिक मिलता जुलता है, ठीक वैसी ही बहुत सारे गाने ऐसे भी हैं जो लेखनी की दृष्टि से आपस में मिलते जुलते हैं। 1965 की 'ज़िंदगी और मौत&

"प्यार किया तो डरना क्या..."- हिंदी फिल्म संगीत के प्रेमियों ने 100 दिनों तक एक सुर में दोहराई यही बात

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 100 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' की सुर धाराओं के साथ बहते बहते कैसे १०० दिन गुज़र गये पता ही नहीं चला। गुज़रे ज़माने के ये सदाबहार नग़में जितने भी सुने जायें मानो दिल ही नहीं भरता। शायद यही वजह है इन १०० दिनों के इतनी जल्दी जल्दी बीत जाने की। दोस्तों, आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' मना रहा है अपनी हीरक जयंती, यानी कि 'डायमंड जुबिली' एपिसोड, और इस ख़ास मौके पर हम इस शृंखला को लगातार पढ़ने और सुनने वालों का तह-ए-दिल से शुक्रिया अदा करते हैं। आप के लगातार सुझावों, विचारों, तारीफ़ों, और त्रुटि-सुधारों का ही यह परिणाम है कि यह शृंखला आज अपना हीरक जयंती पर्व मना रही है। इस मौके पर हम आपसे यही कहेंगे कि "तुम अगर साथ देने का वादा करो, हम युंही मस्त नग़में लुटाते रहें"। आज के इस ख़ास एपिसोड को और भी ज़्यादा ख़ास बनाने के लिए किस गीत को बजाया जाये, इस बारे में हमने काफ़ी मंथन किया, कई लोगों के परामर्श लिए और आख़िर में जो गीत निर्धारित हुआ वह आपके सम्मुख प्रस्तुत है। हिंदी फ़िल्म इतिहास की एक ऐतिहासिक फ़िल्म रही है 'मुग़ल-ए-आज़म' जो फ़िल्मी इतिहास का

बेकरार करके हमें यूँ न जाइये....हेमंत दा का नशीला अंदाज़

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 81 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' की कड़ी नम्बर ८१ में आप सभी का हार्दिक स्वागत है। दोस्तों, कुछ रोज़ पहले हमने आपको हेमन्त कुमार की आवाज़ में फ़िल्म कोहरा का एक गीत सुनवाया था "ये नयन डरे डरे"। इस गीत को सुनकर कुछ श्रोताओं ने हमसे हेमन्त कुमार के गाए कुछ और गीत सुनवाने का अनुरोध किया था। तो आज उन सभी श्रोताओं की फ़रमाइश पूरी हो रही है क्यूंकि आज हम आप तक पहुँचा रहे हैं हेमन्तदा का गाया फ़िल्म 'बीस साल बाद' का एक बड़ा ही चुलबुला सा गाना। दोस्तों, जब हमने फ़िल्म 'कोहरा' का गीत सुनवाया था तो हमने आपको यह भी बताया था कि हेमन्तदा ने अपने बैनर 'गीतांजली पिक्चर्स' के तले कुछ 'सस्पेन्स थ्रिलर' फ़िल्मों का निर्माण किया था और इस सिलसिले की पहली फ़िल्म थी 'बीस साल बाद' जो बनी थी सन् १९६२ में। बिरेन नाग निर्देशित इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे विश्वजीत और वहीदा रहमान। विश्वजीत पर हेमन्तदा की आवाज़ कुछ ऐसी जमी कि आगे चलकर प्रदीप कुमार की तरह विश्वजीत के लिए भी दादा ने एक से बढ़कर एक पार्श्वगायन किया। यहाँ कुछ गीतों के नाम गिनाएँ

तू गंगा की मौज, मैं जमुना का धारा....रफी साहब के श्रेष्ठतम गीतों में से एक

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 60 दो स्तों, जब हमने आपको फ़िल्म बैजु बावरा का गीत "मोहे भूल गए सांवरिया" सुनवाया था तब हमने इस बात का ज़िक्र किया था कि इस फ़िल्म का हर एक गीत 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में शामिल होने की काबिलियत रखता है। इसलिए आज हमने सोचा कि क्यों न इस फ़िल्म का एक और गीत आप तक पहुँचाया जाए! तो लीजिए पेश है बैजु बावरा फ़िल्म का सबसे 'हिट' गीत "तू गंगा की मौज मैं जमुना का धारा"। युं तो इस गीत को मुख्य रूप से रफ़ी साहब ने ही गाया है, लेकिन आख़िर में लताजी और साथियों की भी आवाज़ें मिल जाती हैं। राग भैरवी पर आधारित यह गीत संगीतकार नौशाद और गीतकार शक़ील बदायूनीं की जोड़ी का एक महत्वपूर्ण गीत है। इस गीत के लिए नौशाद साहब को १९५४ में शुरु हुए पहले 'फ़िल्म-फ़ेयर' पुरस्कार के तहत सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का पुरस्कार मिला था। मीना कुमारी को भी सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार मिला था इसी फ़िल्म के लिये। लेकिन फ़िल्म के नायक भारत भूषण को पुरस्कार न मिल सका क्योंकि सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार उस साल ले गये दिलीप कुमार फ़िल्म "दाग़" के लिए

"ये नयन डरे डरे..."-हेमंत दा की कांपती आवाज़ में इस गीत के क्या कहने.

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 51 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड की ५१ वीं कड़ी मे आपका स्वागत है। इन सुरीली लहरों के साथ बहते बहते हम पूरे ५० दिन गुज़ार चुके हैं। हम यही उम्मीद करते हैं कि जिस तरह से हमने इस शृंखला को प्रस्तुत करते हुए ख़ूशी मह्सूस की है, आप ने भी उतना ही आनंद उठाया होगा। अगर आपका इसी तरह साथ बना रहा तो हम भी इसी तरह एक से एक ख़ूबसूरत सुरीली मोती आप पर लुटाते रहेंगे, यह हमारा आप से वादा है। चलिए अब हम आते हैं आज के गीत पर। आज का ओल्ड इज़ गोल्ड, गायक एवं संगीतकार हेमन्त कुमार के नाम। बंगाल में हेमन्त मुखर्जी का वही दर्जा है जो हिन्दी में किशोर कुमार या महम्मद रफ़ी का है। भले ही बहुत ज़्यादा हिन्दी फ़िल्मों में उन्होने गाने नहीं गाये लेकिन जितने भी गाये उत्कृष्ट गाये। उनके संगीत से सजी फ़िल्मों के गीतों के भी क्या कहने। आज सुनिए उन्ही का गाया और स्वरबद्ध किया हुआ फ़िल्म "कोहरा" का एक बहुत ही चर्चित गाना। नायिका के नयनों की ख़ूबसूरती की तुलना मदिरा के छलकते प्यालों के साथ की है गीतकार कैफ़ी आज़मी ने। इस गीत में मादकता भी है, शरारत भी, मासूमीयत भी है और साथ ही है शायराना अंदाज़

आज की ताजा खबर... बरसों पुराना यह गीत आज के मीडिया राज में कहीं अधिक सार्थक है.

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 47 अ गर मैं आप से यह पूछूँ कि क्या आप ने "नन्हा मुन्ना राही हूँ, देश का सिपाही हूँ" गीत सुना है या नहीं, तो शायद ही आप में से किसी का जवाब नहीं में होगा. लेकिन अगर मैं आप से इस गीत की गायिका का नाम पूछूँ तो शायद आप में से कुछ लोग इनका नाम ना बता पाएँ. इस कालजयी देश भक्ति गीत को गाया था बाल गायिका शांति माथुर ने, और यह "सन ऑफ इंडिया" फिल्म का गाना है. ज़रा सोचिए कि केवल एक देशभक्ति गीत गाकर ही उन्होने अपनी ऐसी छाप छोडी है कि आज वो गीत ही उनकी पहचान बनकर रह गया है. आज हम 'ओल्ड इस गोल्ड' में यह गाना तो नहीं, लेकिन इसी फिल्म से शांति माथुर का ही गाया हुआ एक दूसरा गीत सुनवा रहे हैं. शांति माथुर का शुमार बेहद कमचर्चित गायिकाओं में होता है और उनके बारे में बहुत कम सुना और कहा गया है. दरअसल दो एक फिल्मों के अलावा इन्होने किसी फिल्म में नहीं गाया है और ना ही बडी होने के बाद फिल्मी गायन के क्षेत्र में वापस आईं हैं. अगर हम यह मानकर चलें कि 1962 की फिल्म सन ऑफ इंडिया के वक़्त उनकी उम्र 10 साल रही होगी, तो आज वो अपने 50 के दशक में होंगीं और हम उन

बदले बदले मेरे सरकार नज़र आते हैं....

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 27 चौ दहवीं का चाँद, 1960 की एक बेहद चर्चित फिल्म. गुरु दत्त के इस फिल्म में वहीदा रहमान की खूबसूरती का बहुत ही सुंदर उल्लेख हुया था इस फिल्म के शीर्षक गीत में, जिसे आप प्रायः सुनते ही रहते हैं कहीं ना कहीं से. इसी फिल्म से एक ज़रा कम सुना सा एक अनमोल गीत आज हम पेश कर रहे हैं 'ओल्ड इस गोल्ड' में. लता मंगेशकर की आवाज़ में यह गीत है "बदले बदले मेरे सरकार नज़र आते हैं, घर की बर्बादी के आसार नज़र आते हैं". अब तक गुरु दत्त ओ पी नय्यर और एस डी बर्मन जैसे संगीतकारों के साथ ही काम कर रहे थे. चौदहवीं का चाँद के लिए जब उन्होने संगीतकार रवि को 'फोन' करके यह कहा कि वो उनकी अगली फिल्म में उन्हे बतौर संगीतकार लेना चाहते हैं तो रवि साहब को यकीन ही नहीं हुआ. गुरु दत्त साहब ने रवि साहब से यह भी पुछा कि शक़ील बदायूनीं को अगर गीतकार लिया जाए तो कैसा हो. रवि को ज़रा संदेह था कि शायद शक़ील साहब नौशाद को छोड्कर बाहर गाने ना लिखें. लेकिन शक़ील साहब ने गुरु दत्त के निवेदन को ठुकराया नहीं और रवि साहब से मिलकर बाहर जाते हुए शक़ील साहब ने उनसे कहा की "मैने

भूलने वाले याद न आ...

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 23 न मस्ते दोस्तों, 'ओल्ड इस गोल्ड' की एक और सुरीली शाम के साथ हम हाज़िर हैं. दोस्तों, अब तक इस शृंखला में हमने आपको जितने भी गाने सुनवाए हैं वो 50 और 60 के दशकों के फिल्मों से चुने गये थे. लेकिन आज हम झाँक रहे हैं 40 के दशक में. इस दशक को हालाँकि कुछ लोग फिल्म संगीत का सुनहरा दौर नहीं मानते हैं, लेकिन इस दशक के आखिर के दो-तीन सालों में फिल्म संगीत में बहुत से परिवर्तन आए. देश के बँटवारे के बाद उस ज़माने के कई कलाकार पाकिस्तान चले गये, वहाँ के कई कलाकार यहाँ आ गये. नये गीतकार, संगीतकार और गायक गायिकाओं ने इस क्षेत्र में कदम रखा. फिल्म संगीत की धारा और लोगों की रूचि बदलने लगी. नये फनकारों के नये नये अंदाज़ जनता को रास आने लगा और यह फनकार तेज़ी से कामयाबी की सीढियाँ चढ़ने लगे. ऐसे ही एक संगीतकार थे नौशाद. नौशाद साहब ने अपनी पारी की शुरुआत 1942 में करने के बाद 1944 की फिल्म "रत्तन" में उन्हे पहली बड़ी कामयाबी नसीब हुई. इसके बाद उन्हे पीछे मुड्कर देखने की ज़रूरत महसूस नहीं हुई. सन् 1948 में उन्ही के संगीत से सजी एक फिल्म आई थी "अनोखी अदा"

मोहे भूल गए सांवरिया....

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 19 दो स्तों, जब शास्त्रीय रागों की बात आती है तो फिल्मी गीतों में संगीतकारों ने समय समय पर बहुत से रागों का बहुत ही खूबसूरत इस्तेमाल किया है. लेकिन अगर ज़रा गौर किया जाए तो हम पाते हैं की कुछ राग ऐसे हैं जिनका बहुत ज़्यादा इस्तेमाल होता है. राग भैरवी ऐसा ही एक राग है. संगीतकार जोडी शंकर जयकिशन का यह सबसे पसंदीदा राग रहा है और इस राग पर आधारित उनके बहुत से लोकप्रिय गीत हैं. जहाँ तक राग भैरवी का सवाल है, तो संगीतकार नौशाद भी इसके असर से बच नहीं पाए हैं. उनके कई ऐसे फिल्म हैं जिनमें राग भैरवी पर आधारित गाने हैं. ऐसी ही एक फिल्म है "बैजू बावरा". इस फिल्म में कम से कम दो गीत ऐसे हैं जो इस राग पर आधारित हैं. इनमें से एक गीत तो इस फिल्म का सबसे लोकप्रिय गीत है, जी हाँ, "तू गंगा की मौज मैं जमुना का धारा", और क्या आपको पता है दूसरा गीत कौन सा है? दूसरा गीत है "मोहे भूल गये साँवरिया". बैजू बावरा फिल्म का हर एक गीत किसी ना किसी शास्त्रीय राग पर आधारित है. नौशाद साहब के बारे में यही कहा जाता है की भारतीय शास्त्रीय संगीत को सरल तरीके से उन्होने

मछलियाँ पकड़ने का शौकीन भी था वो सुरों का चितेरा

( पिछले अंक से आगे ...) चाहें कोई पिछली पीढ़ी का श्रोता हो या आज की पीढ़ी का युवा वर्ग हर कोई नौशाद के संगीत पर झूमता है। ज़रा कुछ गीतों पर नजर डालिये... मधुबाला का 'प्यार किया तो डरना क्या' जिस पर आज के दौर में रीमिक्स बनाया जाता है... और जब दिलीप कुमार का "नैन लड़ जई हैं तो मनवा मा.." सुन ले तो कदम अपने आप थिरकने लगते हैं। आज ज्यादातर लोग उस दौर से ताल्लुक नहीं रखते पर फिर भी लगता है कि नौशाद फिल्मों में संगीत नहीं देते थे...बल्कि जादू बिखेरते थे। उनके संगीत में लोक संगीत की झलक मिलती है। लखनऊ में जन्में १८ वर्षीय बालक से जब उसके पिता ने घर और संगीत में से एक को चुनने को कहा तब उसने संगीत को चुना और खूबसूरत सपने और कड़वी सच्चाइयों वाले मुम्बई शहर जा पहुँचा। आँखों में हजारों सपने लिये फुटपाथ को घर बनाये इस शानदार संगीतकार ने सैकड़ों धुनें तैयार कर दी। यदि फिल्मों पर गौर करें तो महल, बैजू बावरा, मदर इंडिया, मुगल-ए-आज़म, दर्द, मेला, संघर्ष, राम और श्याम, मेरे महबूब-जैसी न जाने कितनी ही फिल्में हैं। नौशाद की बात करें और लता व रफी की बात न हो तो क्या फायदा। मुगल-ए-आज़म