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मन क्यों बहका रे बहका आधी रात को....जब ४०० एपिसोड पूरे किये ओल्ड इस गोल्ड ने...

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 400/2010/100 औ र आज वह दिन आ ही गया दोस्तों कि जब आपका यह मनपसंद स्तंभ 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पहुँच चुका है अपनी ४००-वीं कड़ी पर। फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर के सुमधुर गीतों की सुरधारा में बहते हुए तथा हम और आप आपस में एक सुरीला रिश्ता कायम करते हुए इस मंज़िल तक आ पहुँचे हैं जिसके लिए आप सभी बधाई व धन्यवाद के पात्र हैं। आप सब की रचनात्मक टिप्पणियों ने हमें हर रोज़ हौसला दिया आगे बढ़ते रहने का, जिसका परिणाम आज हम सब के सामने है। तो दोस्तों, आज इस ख़ास अंक को कैसे और भी ख़ास बनाया जाए? क्योंकि इन दिनों जारी है पार्श्वगायिकाओं की गाई युगल गीतों की शृंखला 'सखी सहेली', तो क्यों ना आज के अंक में ऐसी दो आवाज़ों को शामिल किया जाए जिन्हे फ़िल्म संगीत के गायिकाओं के आकाश के सूरज और चांद कहें तो बिल्कुल भी ग़लत न होगा! जिस तरह से सूरज और चांद अपनी अपनी जगह अद्वितीय है, उसी प्रकार ये दो गायिकाएँ भी अपनी अपनी जगह अद्वितीय हैं। लता मंगेशकर और आशा भोसले। इन दो बहनों ने फ़िल्मी पार्श्व गायन की धारा ही बदल कर रख दी और जिन्होने दशकों तक इस फ़िल्म जगत में राज किया। तो दो

चिट्टी आई है वतन से....अपने वतन या घर से दूर रह रहे हर इंसान के मन को गहरे छू जाता है ये गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 390/2010/90 आ नंद बक्शी पर केन्द्रित लघु शृंखला 'मैं शायर तो नहीं' के अंतिम कड़ी पर हम आज आ पहुँचे हैं। आज जो गीत हम आप को सुनवा रहे हैं, उसका ज़िक्र छेड़ने से पहले आइए आपको बक्शी साहब के अंतिम दिनों का हाल बताते हैं। अप्रैल २००१ में एक हार्ट सर्जरी के दौरान उन्हे एक बैक्टेरियल इन्फ़ेक्शन हो गई, जो उनके पूरे शरीर में फैल गई। इस वजह से एक एक कर उनके अंगों ने काम करना बंद कर दिया। अत्यधिक पान, सिगरेट और तम्बाकू सेवन की वजह से उनका शरीर पूरी तरह से कमज़ोर हो चुका था। बक्शी साहब ने अपने आख़िरी हफ़्तों में इस बात का अफ़सोस भी ज़ाहिर किया था कि काश गीत लेखन के लिए उन्होने इन सब चीज़ों का सहारा ना लिया होता! उन्होने ४ अप्रैल २००१ को अपने दोस्त सुभाष घई साहब के साथ एक सिगरेट पी थी, और वादा किया था कि यही उनकी अंतिम सिगरेट होगी, पर वे वादा रख ना सके और इसके बाद भी सिगरेट पीते रहे। जीवन के अंतिम ७ महीने वे अस्पताल में ही रहे, और उन्हे इस बात से बेहद दुख हुआ था कि उनके ज़्यादातर नए पुराने निर्माता, दोस्त, टेक्नीशियन, संगीतकार और गायक, जिनके साथ उन्होने दशकों तक का

सोलह बरस की बाली उमर को सलाम....और सलाम उन शब्दों के शिल्पकार को

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 389/2010/89 'मैं शायर तो नहीं' शृंखला में आनंद बक्शी साहब के लिखे गीतों का सिलसिला जारी है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर। आज ३० मार्च है। आज ही के दिन सन् २००२ को आनंद बक्शी साहब इस दुनिया-ए-फ़ानी को हमेशा हमेशा के लिए छोड़ गए थे। और अपने पीछे छोड़ गए असंख्य लोकप्रिय गीत जो दुनिया की फ़िज़ाओं में हर रोज़ गूँज रहे है। ऐसा लगता ही नहीं कि बक्शी साहब हमारे बीच नहीं हैं। सच भी तो यही है कि कलाकार कभी नही मरता, अपनी कला के ज़रिए वो अमर हो जाता है। इस शृंखला में अब तक आपने कुल ८ गीत सुनें, जिनमें से तीन ६० के दशक के थे और पाँच गानें ७० के दशक के थे। सच भी यही है कि ७० के दशक में बक्शी साहब ने सब से ज़्यादा हिट गीत लिखे। ८० के दशक में भी उनके कलम की जादूगरी जारी रही। तो आज से अगले दो अंकों में हम आपको दो गीत ८० के दशक से चुन कर सुनवाएँगे। आज एक ऐसी फ़िल्म के गीत की बारी जिस फ़िल्म के गीतों ने ८० के दशक के शुरु शुरु में तहलका मचा दिया था। लता मंगेशकर और एस. पी. बालासुब्रह्मण्यम मुख्य रूप से इस फ़िल्म के गीतों का गाया, और संगीतकार थे लक्ष्मीकांत प्यारेलाल। 'एक

आदमी जो कहता है आदमी जो सुनता है....जिंदगी भर पीछा करते हैं कुछ ऐसे गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 387/2010/87 'मैं शायर तो नहीं' - गीतकार आनंद बक्शी पर केन्द्रित इस लघु शृंखला में आज जिस गीत की बारी है वह एक दार्शनिक गीत है। इस जॉनर के गानें भी बक्शी साहब ने क्या ख़ूब लिखे हैं। कुछ की याद दिलाएँ? "ज़िंदगी के सफ़र में गुज़र जाते हैं जो मुकाम, वो फिर नहीं आते", "आदमी मुसाफ़िर है, आता है जाता है", "दो रंग दुनिया के और दो रास्ते", "इक बंजारा गाए जीवन के गीत सुनाए", "गाड़ी बुला रही है सीटी बजा रही है, चलना ही ज़िंदगी है चलती ही जा रही है", "ये जीवन है, इस जीवन का, यही है रंग रूप", "दिए जलते हैं फूल खिलते हैं, बड़ी मुश्किल से मगर दुनिया में दोस्त मिलते हैं", और भी न जाने कितने ऐसे गीत हैं जिनमें ज़िंदगी के फलसफे को समेटा था बक्शी साहब ने। आज हम आपके लिए लेकर आए हैं फ़िल्म 'मजबूर' से "आदमी जो कहता है, आदमी जो सुनता है, ज़िंदगी भर वो सदाएँ पीछा करती हैं"। बहुत ही असरदार गीत है और यह एक ऐसा गीत है जिसके साथ हर आदमी अपनी ज़िंदगी को जोड़ सकता है। क्या ख़ूब कहा है बक्शी साहब

बागों में बहार आई, होंठों पे पुकार आई...जब बख्शी साहब ने आवाज़ मिलाई लता के साथ इस युगल गीत में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 385/2010/85 'मैं शायर तो नहीं', आनंद बक्शी के लिखे गीतों पर आधारित इस शृंखला में आज हम सुनेंगे ख़ुद बक्शी साहब की ही आवाज़ में एक गीत, लेकिन उस गीत के ज़िक्र से पहले हम आपको उनके जीवन से जुड़ी कुछ अहम तारीख़ों से रु-ब-रु करवाना चाहेंगे। ये हैं वो तारीख़ें - माँ का निधन - १९४० कैम्ब्रिज कॊलेज, रावलपिण्डी से निवृत्ति - ६ मार्च १९४३ 'रॊयल इण्डियन नेवी' में भर्ती - १२ जुलाई १९४४ 'रॊयल इण्डियन नेवी' से मुक्ति - ५ अप्रैल १९४६ देश विभाजन के बाद रावलपिण्डी से पलायन - २ अक्तुबर १९४७ 'कॊर्प्स ऒफ़ सिग्नल्स' में भर्ती - १५ अक्तुबर १९४७ 'कॊर्प्स ऒफ़ सिग्नल्स' से मुक्ति - १२ अप्रैल १९५० बम्बई में पहली बार काम की तलाश में आगमन - १९५१ ई.एम.ई (The Corps of Electrical and Mechanical Engineers) में भर्ती - १६ फ़रवरी १९५१ कमला मोहन से विवाह - २ अक्तुबर १९५४ ई.एम.ई से मुक्ति - २७ अगस्त १९५६ बम्बई में दूसरी बार आगमन - अक्तुबर १९५६ आनंद बक्शी के दादाजी सुघरमल वैद बक्शी रावलपिण्डी में ब्रिटिश राज के दौरान सुपरिंटेंडेण्ट ऒफ़ पुलिस थे। उनके पिता

सावन का महीना पवन करे सोर.....और बिन सावन ही मचा शोर बख्शी साहब से सीधे सरल गीतों का

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 382/2010/82 मैं शायर तो नहीं'। गीतकार आनंद बक्शी पर केन्द्रित इस लगु शृंखला की दूसरी कड़ी में आपका स्वागत है। कल हमने आनंद बक्शी साहब के जीवन के शुरुआती दिनों का हाल आपको बताया था, और हम आ पहुँचे थे सन् १९६५ पर जिस साल उनकी पहली कामयाब फ़िल्म 'जब जब फूल खिले' प्रदर्शित हुई थी। दोस्तों, कल हमने यह कहा था कि 'जब जब फूल खिले' की अपार कामयाबी के बाद आनंद बक्शी को फिर कभी पीछे मुड़ कर देखने की ज़रूरत नहीं पड़ी। यह बात 'ब्रॊड सेन्स' में शायद सही थी, लेकिन हक़ीक़त कुछ युं थी कि इस फ़िल्म के बाद परदेसी बने आनंद बक्शी की तरफ़ किसी ने ज़्यादा ध्यान नहीं दिया। और जैसे 'जब जब...' फ़िल्म का गीत "यहाँ मैं अजनबी हूँ" उन्ही पर लागू हो गया। उनके तरफ़ इस उदासीन व्यवहार का कारण था उस समय हर संगीतकार का अपना गीतकार हुआ करता था, जैसे शंकर जयकिशन के लिए लिखते थे शैलेन्द्र और हसरत जयपुरी, नौशाद के लिए शक़ील, कल्याणजी-आनंदजी के लिए इंदीवर वगेरह। यहाँ तक कि सचिन देव बर्मन ने भी उन्हे नया समझ कर उनकी ओर ध्यान नहीं दिया। पर तक़दीर को भी अपना

सांझ ढले गगन तले....एक उदास अकेली शाम की पीड़ा वसंत देसाई के शब्दों में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 374/2010/74 अ स्सी के दशक के फ़िल्मी गीतों के ज़िक्र से कुछ लोग अपना नाक सिकुड़ लेते हैं। यह सच है कि ८० के दशक में फ़िल्म संगीत के स्तर में काफ़ी गिरावट आ गई थी, लेकिन कई अच्छे गीत भी बने थे। पूरे के पूरे दशक को बदनाम करने से इन अच्छे गीतों के साथ नाइंसाफ़ी वाली बात हो जाएगी। और किसी भी गीत के स्तर को उसके बनने वाले समय से जोड़ा नहीं जाना चाहिए। जो चीज़ वाक़ई अच्छी है, हमें उसके बनने वाले समय से क्या! और दोस्तों, ८० का दशक एक ऐसा भी दशक रहा जिसमें सब से ज़्यादा आर्ट फ़िल्में बनीं। सिनेमा के इस विधा को हम पैरलेल सिनेमा या आर्ट फ़िल्मों के नाम से जानते हैं। युं तो कलात्मक फ़िल्मों में बहुत ज़्यादा गीत संगीत की गुंजाइश नहीं होती है, लेकिन किसी किसी फ़िल्म के लिए कुछ गानें भी बने हैं। आर्ट फ़िल्मों में संगीत देने वाले संगीतकारों में अजीत वर्मन और वनराज भाटिया का नाम सब से पहले ज़हन में आता है। लेकिन आज हम एक ऐसी फ़िल्म का गीत सुनने जा रहे हैं जिसके संगीतकार हैं लक्ष्मीकांत प्यारेलाल। यह फ़िल्म है 'उत्सव', जो बनी थी सन् १९८४ में। वैसे इस फ़िल्म को पूरी तरह

सुनो सजना पपीहे ने कहा सबसे पुकार के....सम्हल जाओ चमन वालो कि आये दिन बहार के

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 370/2010/70 पि छले नौ दिनों से आप 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर आनंद ले रहे हैं इस रंगीन मौसम का, बसंत ऋतु का, फागुन के महीने का, होली के रंगों का, सब के सब गीत संगीत के माध्यम से। आज हम आ पहुँचे हैं इस रंगीन लघु शृंखला की अंतिम कड़ी पर। 'गीत रंगीले' की अंतिम कड़ी के लिए हमने चुना है लता मंगेशकर की आवाज़ में आनंद बक्शी की गीत रचना। लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के संगीत में यह है फ़िल्म 'आए दिन बहार के' का शीर्षक गीत, "सुनो सजना पपीहे ने कहा सब से पुकार के, संभल जाओ चमन वालों, के आए दिन बहार के"। फ़िल्म का शीर्षक जितना रंगीला है, बक्शी साहब ने क्या ख़ूब न्याय किया है इस शीर्षक पर लिखे इस गीत के साथ! शीर्षक की अगर बात करें तो आपको सब से पहले तो यह बताना पड़ेगा कि यह जे. ओम प्रकाश साहब की फ़िल्म थी और उन्होने इस तरह के शीर्षकों का बार बार इस्तेमाल अपनी फ़िल्मों के लिए किया है। १९५९ में उनकी पहली फ़िल्म 'चाचा ज़िंदाबाद' आई थी। बस यही एक फ़िल्म थी जिसका शीर्षक 'अ' से या अंग्रेज़ी के 'ए' अक्षर से शुरु नहीं हुआ था। लेकिन इसके ब

रंग बसंती, अंग बसंती, संग बसंती छा गया, मस्ताना मौसम आ गया...और क्या कहें इसके बाद

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 364/2010/64 मा नव मन पर नवचेतना और नई ताज़गी का संचार करने हर वर्ष आता है ऋतुराज बसंत। प्रकृति मानो नींद से जाग उठती है और चारों तरफ़ बहार ही बहार छा जाती है। पीले सरसों के लहलहाते खेत अपने पूरे शबाब पर होते हैं जैसे किसी ने पीले रंग की चादर चढ़ा दिया हो दूर दूर तक। तभी तो बसंत ऋतु के पहले दिन, जिसे हम बसंत पंचमी के रूप में मनाते हैं, लोग पीले कपड़े पहनते हैं और ऋतुराज का स्वागत करते हैं। सर्दियों की वजह से जो पशु, पक्षी, कीट, पतंगे हमारी नज़रों से ओझल हो गये थे, वो भी जैसे ख़ुश होकर एक साथ बाहर निकल पड़ते हैं, चारों तरफ़ कलरव, चहचहाहट की मधुर ध्वनियाँ गूंजने लगती है। और इंसान भी जैसे झूम उठते हैं, नाच उठते हैं, गा उठते हैं। आज मुझे रतलाम निवासी शिव चौहान 'शिव' की लिखी हुई कविता का ज़िक्र करने का मन हो रहा है, जिसमें उन्होने कहा है - बसंत मदमस्त हुई, बयार खिल आए, टेंसुओं के फूल सेमल सुधा की, बूंदें टपकें, अमलतस के फूल लहरें, सरसों के खेतों ने पीली चादर ओढ़ी। महुआ ने मादकता छोड़ी, अमुआँ गाए, बौराए, कूक उठी कोयल भी पिया मिलन को दिल आकुले। इस बसंती मौसम क

नि मैं यार मानना नि चाहें लोग बोलियां बोले...जब मिलाये मीनू पुरषोत्तम ने लता के साथ ताल से ताल

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 338/2010/38 फ़ि ल्म संगीत के सुनहरे दौर के कमचर्चित पार्श्वगायिकाओं को समर्पित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की लघु शृंखला 'हमारी याद आएगी' की आठवीं कड़ी में आज एक ऐसी गायिका का ज़िक्र जिन्होने कमल बारोट की तरह दूसरी गायिका के रूप में लता मंगेशकर और आशा भोसले के साथ कई हिट गीत गाईं हैं। मिट्टी की सौंधी सौंधी महक वाली आवाज़ की धनी मीनू पुरुषोत्तम का ज़िक्र आज की कड़ी में। युं तो मीनू पुरुषोत्तम ने बहुत सारे कम बजट की फ़िल्मों में एकल गीत गाईं हैं, लेकिन उनके जो चर्चित गानें हैं वह दूसरी गायिकाओं के साथ गाए उनके युगल गीत ही हैं। जैसे कि लता जी के साथ फ़िल्म 'दाग़' का थिरकता गीत "नि मैं यार मनाना नी, चाहे लोग बोलियाँ बोले", आशा जी के साथ 'ये रात फिर ना आएगी' का "हुज़ूर-ए-वाला जो हो इजाज़त", सुमन कल्य़ाणपुर के साथ गाया फ़िल्म 'ताजमहल' का गीत "ना ना ना रे ना ना, हाथ ना लगाना" (जिसे हम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर बजा चुके हैं), परवीन सुल्ताना के साथ गाया फ़िल्म 'दो बूंद पानी' का गीत "पीतल की मेरी ग

हँसता हुआ नूरानी चेहरा ....क्यों न हो ओल्ड इस गोल्ड के सुनहरे गीतों को सुनते हुए

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 336/2010/36 इ न दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर चल रहा है फ़िल्म संगीत के सुनहरे युग के कुछ कमचर्चित लेकिन बेहद प्रतिभावान पार्श्वगायिकाओं पर समर्पित शृंखला 'हमारी याद आएगी'। आज की कड़ी में ज़िक्र एक अनोखी आवाज़ की। मिट्टी की सौंधी सौंधी ख़ुशबू जैसी आवाज़ वाली ये हैं कमल बारोट। कमल बारोट ने उस दौर में फ़िल्म जगत में क़दम रखा जब दुनिया बस दो आवाज़ों की दीवानी बन चुकी थी, लता और आशा की। ऐसे में किसी नई गायिका के लिए यहाँ पर जगह बनाना बेहद मुश्किल था और ना ही यह हर किसी के बस की बात थी। सुधा मल्होत्रा, सुमन कल्याणपुर, मिनू पुरुशोत्तम, उषा मंगेशकर, मुबारक़ बेग़म के साथ साथ कमल बारोट ने भी गाना शुरु तो किया, लेकिन इन गायिकाओं को बड़े बैनर्स की फ़िल्मों में गाने के अवसर ज़्यादा नहीं मिलते थे। और अगर मिले तो किसी दूसरी बड़ी गायिका के साथ युगल गीत में या फिर कई अवाज़ों वाले किसी समूह गीत में। इन सारी कठिनाइयों और चुनौतियों को स्वीकार किया कमल बारोट ने और जब जैसे गानें उनकी झोली में आए, वो बस गाती चलीं गईं। लता जी और आशा जी के साथ उनके गाए कई गीत बेहद मशहूर हु

गुड़िया चाहे ना लाना, पप्पा जल्दी आ जाना....बचपन की जाने कितनी यादें समेटे हैं ये गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 255 औ र दोस्तों, पूर्वी जी के पसंद के गीतों को सुनते हुए आज हम आ पहुँचे हैं उनकी पसंद के पाँचवे और फिलहाल अंतिम गीत पर। यह गीत भले ही बच्चों वाला गाना हो, लेकिन बहुत ही मर्मस्पर्शी है, जिसे सुनते हुए आँखें भर ही आते हैं। परदेस गए अपने पिता के इंतेज़ार में बच्चे किस तरह से आस लगाए बैठे रहते हैं, यही बात कही गई है इस गीत में। जी हाँ, "सात समुंदर पार से, गुड़ियों के बाज़ार से, अच्छी सी गुड़िया लाना, गुड़िया चाहे ना लाना, पप्पा जल्दी आ जाना"। जहाँ एक तरफ़ मासूमियत और अपने पिता के जल्दी घर लौट आने की आस है, वहीं बच्चों की परिपक्वता भी दर्शाता है यह पंक्ति कि "गुड़िया चाहे ना लाना"। आप चाहे कुछ भी ना लाओ हमारे लिए, लेकिन बस आप जल्दी से आ जाओ। आनंद बक्शी के ये सीधे सरल बोल और उस पर लक्ष्मीकांत प्यारेलाल का सुरीला और दिल को छू लेने वाला संगीत, गीत को वही ट्रीटमेंट मिला जिसकी उसे ज़रूरत थी। और इस गीत के गायक कलाकारों के नामों का उल्लेख भी बेहद ज़रूरी है। लता जी की आवाज़ तो आप पहचान ही सकते हैं जो कि गीत की मुख्य गायिका हैं, लेकिन उनके अतिरिक्त इस गीत

बा होशो-हवास में दीवाना ये आज वसीयत करता है...फ़िल्मी गीतों में नए प्रयोगों के सूत्रधार रहे आनंद बख्शी साहब

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 202 स्व प्न मंजूषा शैल 'अदा' जी की पसंद का दूसरा गीत आज पेश-ए-ख़िदमत है फ़िल्म 'नाइट इन लंदन' से, "बा होश-ओ-हवास मैं दीवाना, ये आज वसीयत करता हूँ, ये दिल ये जान मिले तुम को, मैं तुम से मोहब्बत करता हूँ". ६० के दशक में शैलेन्द्र, हसरत जयपुरी, शंकर जयकिशन और मोहम्मद रफ़ी साहब की टीम ने एक से एक कामयाब गीत हमें दिए हैं। इस टीम के गीतों का एक अलग ही अंदाज़ हुआ करता था। ऐसे में जब अगली पीढ़ी के संगीतकार जोड़ी लक्ष्मीकांत प्यारेलाल ने फ़िल्म जगत में क़दम रखा, तो वे शंकर जयकिशन से मुतासिर होने की वजह से कई गानें ऐसे बनाए जिनमें शंकर जयकिशन का स्टाइल साफ़ झलकता है। रफ़ी साहब से गवाया गया और आनंद बक्शी साहब से लिखवाया गया फ़िल्म 'नाइट इन लंदन' का प्रस्तुत गीत उन्ही गीतों में से एक है। इस फ़िल्म का एक दूसरा गीत "नज़र न लग जाए किसी की राहों में" भी इसी कतार में शामिल है। किस तरह से एक पीढ़ी अपनी कला को अगली पीढ़ी को सौंप देती है, इस फ़िल्म के गानें उसी के मिसाल हैं। फ़िल्म 'नाइट इन लंदन' का निर्माण हुआ था सन् १९६७ में कप

रुक जाना नहीं तू कहीं हार के...चिर प्रेरणा का स्त्रोत रहा है, दादा का गाया ये नायाब गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 164 क ल हमने बात की थी सपनों की। दोस्तों, सपने तभी सच होते हैं जब उनको सच करने के लिए हम निरंतर प्रयास भी करें। लेकिन सफलता हमेशा हाथ लगे ऐसा जरूरी नहीं है. कई पहाड़ों, जंगलों, खाइयों से गुज़रने के बाद ही नदी का मिलन सागर से होता है। कहने का आशय यह है कि एक बार की असफलता से इंसान को घबरा कर अपनी कोशिशें बंद नहीं कर देनी चाहिए। काँटों पर चलकर ही बहारों के साये नसीब होते हैं। जी हाँ, 'दस रूप ज़िंदगी के और एक आवाज़' के अंतर्गत आज हमारा विषय है 'प्रेरणा', जो दे रहे हैं किशोर कुमार किसी राह चलते राही को। यह राही ज़िंदगी का राही है, यानी कि हर एक आम आदमी, जो ज़िंदगी की राह पर निरंतर चलता चला जाता है। किशोर कुमार ने बहुत सारे इस तरह के राही और सफ़र से संबंधित जीवन दर्शन के गीत गाये हैं, उदाहरण के तौर पर फ़िल्म 'तपस्या' का गीत "जो राह चुनी तूने उसी राह पे राही चलते जाना रे", फ़िल्म 'नमकीन' का गीत "राह पे रहते हैं, यादों पे बसर करते हैं, ख़ुश रहो अहल-ए-वतन, हो हम तो सफ़र करते हैं", फ़िल्म 'आप की कसम' का गीत &qu

ये रेशमी जुल्फें ये शरबती ऑंखें...काका बाबू डूबे तारीफों में तो काम आई रफी साहब की आवाज़

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 160 मो हम्मद रफ़ी साहब के गीतों से सजी इस ख़ासम ख़ास शृंखला 'दस चेहरे एक आवाज़ - मोहम्मद रफ़ी' के अंतिम कड़ी मे हम आज आ पहुँचे हैं। दस चेहरों में से अब तक जिन नौ चेहरों पर फ़िल्माये रफ़ी साहब के गानें आप ने सुने हैं वो हैं शम्मी कपूर, दिलीप कुमार, सुनिल दत्त, राजेन्द्र कुमार, राजकुमार, शशी कपूर, धर्मेन्द्र, मनोज कुमार एवं देव आनंद। आज इस आख़िरी कड़ी के लिए हम ने चुना है हिंदी फ़िल्मों के पहले सुपर-स्टार राजेश खन्ना पर फ़िल्माये एक गीत को। देव आनंद की तरह राजेश खन्ना के ज़्यादातर गानें किशोर कुमार की आवाज़ में हैं, लेकिन फिर वही बात कि समय समय पर जब जब संगीतकारों को यह लगा कि कोई गीत रफ़ी साहब की गायकी में ढलकर ज़्यादा बेहतर सुनाई देगा, तब तब उन्होने रफ़ी साहब से ये गानें गवाये हैं और ज़रूरी बात यह कि ये गानें मशहूर भी ख़ूब हुए हैं। फ़िल्म 'दो रास्ते' में किशोर कुमार, मुकेश और मोहम्मद रफ़ी, सुनेहरे दौर के इन तीनों महा-गायकों ने गानें गाये हैं। इन तीनों गायकों के इस फ़िल्म के लिए गाये एकल गीतों की बात करें तो मुकेश की आवाज़ में फ़िल्म का शीर्षक गी