Skip to main content

राग गारा : SWARGOSHTHI – 449 : RAG GARA






स्वरगोष्ठी – 449 में आज


नौशाद की जन्मशती पर उनके राग – 5 : राग गारा


लच्छू महाराज की अनूठी नृत्य-संरचना देखिए, गारा में पिरोया गीत; “मोहे पनघट पे नन्दलाल छेड़ गयो...”



लता मंगेशकर
नौशाद
‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर हमारी श्रृंखला – “नौशाद की जन्मशती पर उनके राग” की पाँचवीं और समापन कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र आप सभी संगीत-प्रेमियों का स्वागत करता हूँ। इस श्रृंखला में हम भारतीय फिल्म संगीत के शिखर पर विराजमान रहे नौशाद अली के व्यक्तित्व और उनके कृतित्व पर चर्चा करेंगे। श्रृंखला की विभिन्न कड़ियों में हम आपको फिल्म संगीत के माध्यम से रागों की सुगन्ध बिखेरने वाले अप्रतिम संगीतकार नौशाद अली के कुछ राग-आधारित गीत प्रस्तुत करेंगे। 25 दिसम्बर, 1919 को सांगीतिक परम्परा से समृद्ध शहर लखनऊ के कन्धारी बाज़ार में एक साधारण परिवार में नौशाद अली का जन्म हुआ था। इस तिथि के अनुसार बीते 25 दिसम्बर, 2019 को नौशाद का एक सौवाँ जन्मदिन सम्पन्न हुआ है। इस उपलक्ष्य में हम “स्वरगोष्ठी” के दिसम्बर मास के प्रत्येक अंक में नौशाद के कुछ राग आधारित ऐतिहासिक गीत प्रस्तुत किया। नौशाद जब कुछ बड़े हुए तो उनके पिता वाहिद अली घसियारी मण्डी स्थित अपने नए घर में आ गए। यहीं निकट ही मुख्य मार्ग लाटूश रोड (वर्तमान गौतम बुद्ध मार्ग) पर संगीत के वाद्ययंत्र बनाने और बेचने वाली दूकाने थीं। उधर से गुजरते हुए बालक नौशाद घण्टों दूकान में रखे साज़ों को निहारा करते थे। एक बार तो दूकान के मालिक गुरबत अली ने नौशाद को फटकारा भी, लेकिन नौशाद ने उनसे आग्रह किया की वे बिना वेतन के दूकान पर रख लें। नौशाद उस दूकान पर रोज बैठने लगे। वहाँ वह साज़ों की झाड़-पोछ करते और दूकान के मालिक का हुक्का तैयार करते। साज़ों की झाड़-पोछ के दौरान उन्हें कभी-कभी बजाने का मौका भी मिल जाता था। उन दिनों मूक फिल्मों का युग था। फिल्म प्रदर्शन के दौरान दृश्य के अनुकूल सजीव संगीत प्रसारित हुआ करता था। लखनऊ के रॉयल सिनेमाघर में फिल्मों के प्रदर्शन के दौरान एक लद्दन खाँ थे जो हारमोनियम बजाया करते थे। यही लद्दन खाँ साहब नौशाद के पहले गुरु बने। नौशाद के पिता संगीत के सख्त विरोधी थे, अतः घर में बिना किसी को बताए सितार नवाज़ युसुफ अली और गायक बब्बन खाँ की शागिर्दी की। कुछ बड़े हुए तो उस दौर के नाटकों की संगीत मण्डली में भी काम किया। घरवालों की फटकार बदस्तूर जारी रही। अन्ततः 1937 में एक दिन घर में बिना किसी को बताए मायानगरी बम्बई (अब मुम्बई) की ओर रुख किया।


नौशाद के सांगीतिक जीवन की सर्वाधिक उल्लेखनीय फिल्म “मुगल-ए-आजम” रही है। “मुग़ल-ए-आज़म', वर्ष 1960 की सर्वाधिक चर्चित फ़िल्म मानी जाती है। फिल्म संगीत के सुप्रसिद्ध इतिहासकार सुजॉय चटर्जी के अनुसार के. आसिफ़ निर्देशित इस महत्वाकांक्षी फ़िल्म की नीव सन् 1944 में रखी गयी थी। दरअसल बात ऐसी थी कि आसिफ़ साहब ने एक नाटक पढ़ा। उस नाटक की कहानी शाहंशाह अकबर के राजकाल की पृष्ठभूमि में लिखी गयी थी। कहानी उन्हें अच्छी लगी और उन्होंने इस पर एक बड़ी फ़िल्म बनाने की सोची। लेकिन उन्हें उस वक़्त यह अन्दाज़ा भी नहीं हुआ होगा कि उनके इस सपने को साकार होते 16 साल लग जायेंगे। 'मुग़ल-ए-आज़म' अपने ज़माने की बेहद मंहगी फ़िल्म थी। एक-एक गीत के सीक्वेन्स में इतना खर्चा हुआ कि जो उस दौर की किसी पूरी फ़िल्म का खर्च होता था। नौशाद के संगीत निर्देशन में भारतीय शास्त्रीय संगीत व लोक संगीत की छटा लिये इस फ़िल्म में कुल 12 गीत थे जिनमें आवाज़ें दी उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ, लता मंगेशकर, शमशाद बेग़म और मोहम्मद रफ़ी ने। हिन्दी फ़िल्म संगीत के इतिहास का यह एक स्वर्णिम अध्याय रहा। यहाँ तक कि इस फ़िल्म के सर्वाधिक लोकप्रिय गीत "प्यार किया तो डरना क्या" को शताब्दी का सबसे रोमांटिक गीत का ख़िताब भी दिया गया था। लता मंगेशकर की ही आवाज़ में फ़िल्म का अन्य गीत "मोहे पनघट पे नन्दलाल छेड़ गयो रे..." का भी अपना अलग महत्व है। कहा जाता है कि मुस्लिम सब्जेक्ट पर बनी इस ऐतिहासिक फ़िल्म में राधा-कृष्ण से सम्बन्धित इस गीत को रखने पर विवाद खड़ा हो सकता है, ऐसी आशंका जतायी गयी थी। वरिष्ठ निर्देशक विजय भट्ट भी इस गीत को फ़िल्म में रखने के ख़िलाफ़ थे। हालाँकि वो इस फ़िल्म से सीधे-सीधे जुड़े नहीं थे, पर उनकी यह धारणा थी कि यह फ़िल्म को ले डूब सकता है क्योंकि मुग़ल शाहंशाह को इस गीत के दृश्य में हिन्दू उत्सव जन्माष्टमी मनाते हुए दिखाया जाता है। नौशाद ने यह तर्क भी दिया कि जोधाबाई चूँकि ख़ुद एक हिन्दू थीं, इसलिए सिचुएशन के मुताबिक इस गीत को फ़िल्म में रखना कुछ ग़लत नहीं था। फिर भी नाज़ुकता को ध्यान में रखते हुए फ़िल्म के पटकथा लेखकों ने इस सीन में एक संवाद ऐसा रख दिया जिससे यह तर्क साफ़-साफ़ जनता तक पहुँच जाये।

बहुत से फ़िल्मी गीतों को कृष्ण की लीलाओं से प्रेरणा मिली हैं। पर "मोहे पनघट..." कुछ अलग ही मुकाम रखता है। इस गीत के लिए गीतकार शक़ील बदायूनी और संगीतकार नौशाद का नाम रेकॉर्ड पर दर्शाया गया है। पर सत्य यह है कि मूल गीत न तो शक़ील ने लिखा है और न ही मूल संगीत नौशाद का है। यह दरअसल एक पारम्परिक बन्दिश है जिसे शक़ील और नौशाद ने फ़िल्मी जामा पहनाया है। क्योंकि इसके मूल रचयिता का नाम किसी को मालूम नहीं है और इसे एक पारम्परिक रचना के तौर पर भी गाया जाता रहा है, इसलिए शायद किसी ने विरोध नहीं किया। पर ऐसे गीतों में गीतकार के नाम के जगह 'पारम्परिक' शब्द दिया जाना बेहतर होता। ख़ैर, उपलब्ध तथ्यों के अनुसार राग गारा पर आधारित इस मूल ठुमरी का सबसे पुराना ग्रामोफ़ोन 78 RPM रेकॉर्ड इन्दुबाला की आवाज़ में आज भी सुना जा सकता है। इन्दुबाला का जन्म 1899 में हुआ था और ऐसी धारणा है कि उनकी गायी यह रेकॉर्डिंग 1915 से 1930 के बीच के किसी वर्ष में की गई होगी। 1932 में उस्ताद अज़मत हुसैन ख़ाँदिलरंग ने इसी ठुमरी को 'कोलम्बिआ रेकॉर्ड कम्पनी' के लिए गाया था। गौहर जान की आवाज़ में यह ठुमरी मशहूर हुई थी। मूल रचना के शब्द हैं "मोहे पनघट पर नन्दलाल छेड़ दीनो रे, मोरी नाजुक कलइयाँ मरोड़ दीनो रे.."। 'मुग़ल-ए-आज़म' के गीत में शक़ील ने शब्दों को आम बोलचाल वाली हिन्दी में परिवर्तित कर ठुमरी का फ़िल्मी संस्करण तैयार किया है। बहुत से फ़िल्मी गीतों को कृष्ण की लीलाओं से प्रेरणा मिली हैं। पर "मोहे पनघट..." कुछ अलग ही मुकाम रखता है।

लच्छू महाराज
विविध भारती के एक कार्यक्रम में नौशाद साहब ने इस गीत को याद करते हुए बताया, "इस फ़िल्म में एक सिचुएशन ऐसी आई जिसमें अकबर बादशाह कृष्णजन्म पर्व मना रहे हैं। आसिफ़ साहब ने मुझसे कहा कि वो इस सिचुएशन पर एक गाना चाहते हैं जिसमें वह झलक, वह माहौल पैदा हो। मैंने गाना बनाया, रेकॉर्ड करवाया, और उन्हें सुनाया। उन्हें बहुत पसन्द आया। तब मैंने उनसे रिक्वेस्ट किया कि इस गीत के पिक्चराइज़ेशन में जो डान्स इस्तेमाल होगा, उसे आप किसी फ़िल्मी डान्स डिरेक्टर से नहीं, बल्कि एक क्लासिकल डान्सर से करवाइयेगा। उन्होंने कहा कि फिर आप ही ढूँढ लाइये। मैंने लच्छू महाराज को आसिफ़ साहब से मिलवाया, जो लखनऊ कथक घराने के एक सुप्रतिष्ठित गुरु और कलाकार थे। आसिफ़ साहब ने उन्हें गाना सुनाया, तो वो रोने लग गये। आसिफ़ साहब परेशान हो गये, कहने लगे कि यह डान्स का गाना है, इसमें रोने की कौन सी बात है भला, मुझे भी समझ नहीं आ रहा था कि क्या बात हो गई, तब लच्छू महाराज ने कहा कि बिल्कुल यही स्थायी बोल वाली ठुमरी मेरे बाबा गाया करते थे, इसने मुझे उनकी याद दिला दी।"

फिर आयी गीत के फ़िल्मांकन की बारी। यह भी कोई आसान काम नहीं था। मधुबाला एक प्रशिक्षित नृत्यांगना नहीं थी। लच्छू महाराज ने लगातार पाँच दिनों तक मधुबाला को नृत्य सिखाया। कहा जाता है कि इस गीत के लाँग शॉट्स में लच्छू महाराज के दल के किसे लड़के ने मधुबाला के स्थान पर नृत्य किया, पर गीत के दृश्यों को देख कर अन्दाज़ा लगाना मुश्किल है। है ना आश्चर्य की बात! एक और आश्चर्य की बात यह है कि इतने स्तरीय गीतों के बावजूद उस वर्ष का 'फ़िल्मफ़ेअर' पुरस्कार 'मुग़ल-ए-आज़म' के लिए नौशाद को नहीं बल्कि 'दिल अपना और प्रीत परायी' के लिए शंकर जयकिशन को दिया गया। इसमें सन्देह नहीं कि 'दिल अपना...' के गानें भी बेहद मकबूल हुए थे, पर स्तर की बात करें तो 'मुग़ल-ए-आज़म' कई क़दम आगे थी। फ़िल्मफ़ेअर में ऐसा कई बार हुआ है। उदाहरण के तौर पर 1967 में शंकर जयकिशन को 'सूरज' के लिए यह पुरस्कार दिया गया जबकि 'गाइड', 'ममता' और 'अनुपमा' प्रतियोगिता में शामिल थी। 1971 में शंकर जयकिशन को फ़िल्म 'पहचान' के लिए यह पुरस्कार दिया गया जबकि उसी साल 'दो रास्ते' और 'तलाश' जैसी म्युज़िकल फ़िल्में थीं। 1973 में एक बार फिर शंकर जयकिशन को 'बेइमान' के लिए यह पुरस्कार दिया गया जबकि 'पाक़ीज़ा' के संगीतकार ग़ुलाम मोहम्मद को नज़रअंदाज़ कर दिया गया। क्या यह सही निर्णय था? ख़ैर, कला किसी पुरस्कार का मोहताज नहीं। सच्चा पुरस्कार है, श्रोताओं का प्यार जो 'मुग़ल-ए-आज़म' को बराबर मिली और अब तक मिलती रही है। चूँकि यह गीत शास्त्रीय नृत्यप्रधान है, इसीलिए हम आपको इस गीत का रसास्वादन करने के लिए ‘यू-ट्यूब’ के सौजन्य से वीडियो रूप में प्रस्तुत कर रहे है।

राग गारा : “मोहे पनघट पे नन्दलाल छेड़ गयो रे...” : लता मंगेशकर और साथी : फिल्म – मुगल-ए-आजम



विदुषी अश्विनी भिड़े देशपाण्डे
राग गारा को खमाज थाट जन्य राग माना जाता है। इस राग में दोनों गान्धार और दोनों निषाद प्रयोग किये जाते हैं। इस राग की जाति सम्पूर्ण-सम्पूर्ण होती है, अर्थात इसके आरोह और अवरोह में सभी सात स्वरों का प्रयोग होता है। राग का वादी स्वर गान्धार और संवादी स्वर धैवत होता है। इस राग के गायन-वादन का सर्वाधिक उपयुक्त समय रात्रि का दूसरा प्रहर माना जाता है। राग गारा में अधिकतर उपशास्त्रीय संगीत; जैसे ठुमरी, दादरा, झूला, कजरी आदि और सुगम तथा फिल्म संगीत आदि गाया-बजाया जाता है। यह विलम्बित खयाल का राग नहीं है। इसमें विशेषकर मन्द्र और मध्य के पूर्वांग के स्वर प्रयोग किए जाते हैं। कुछ विद्वान मध्यम स्वर को षडज स्वर मान कर भी गाते-बजाते हैं। इस राग में काफी समानता राग पीलू से पाई जाती है। कुछ विद्वान इस राग को क्षुद्र प्रकृति का राग मानते हैं। अब हम आपको राग पीलू में निबद्ध एक उपशास्त्रीय रचना सुनवा रहे हैं। इसे प्रस्तुत कर रही हैं, सुप्रसिद्ध विदुषी अश्विनी भिड़े देशपाण्डे। दरअसल यह एक झूला गीत है, जिसे वर्षा ऋतु में गाया जाता है। आप यह झूला गीत सुनिए और इस श्रृंखला और इस वर्ष की समापन प्रस्तुति कड़ी से विराम लेने की हमें अनुमति दीजिए।

राग गारा : झूला गीत : “बदरिया रे झूला धीरे से झूला रे...” : विदुषी अश्विनी भिड़े देशपाण्डे



संगीत पहेली

‘स्वरगोष्ठी’ का यह वर्ष 2019 की समापन कड़ी है। हमारी अगली कड़ी का प्रकाशन वर्ष 2020 के पहले रविवार को होगा। वर्ष के पहले और दूसरे अंक में आप पहेली के वार्षिक महाविजेताओं की प्रस्तुतियों का रसास्वादन करेंगे; अतः इस अंक में हम कोई भी पहेली नहीं दे रहे हैं। अब हमारी अगली पहेली 451वें अंक में प्रकाशित होगी।


पिछली पहेली के सही उत्तर और विजेता

“स्वरगोष्ठी” के 447वें अंक की पहेली में हमने आपके लिए एक रागबद्ध गीत का एक अंश सुनवा कर तीन प्रश्नों में से पूर्ण अंक प्राप्त करने के लिए कम से कम दो प्रश्नों के सही उत्तर की अपेक्षा आपसे की थी। पहेली के पहले प्रश्न का सही उत्तर है; राग – देसी, दूसरे प्रश्न का सही उत्तर है; ताल – तीनताल तथा तीसरे प्रश्न का सही उत्तर है; स्वर – पण्डित दत्तात्रेय विष्णु (डी.वी.) पलुस्कर और उस्ताद अमीर खाँ

‘स्वरगोष्ठी’ की इस पहेली का सही उत्तर देने वाले हमारे विजेता हैं; चेरीहिल न्यूजर्सी से प्रफुल्ल पटेल, वोरहीज, न्यूजर्सी से डॉ. किरीट छाया, डोम्बिवली, महाराष्ट्र से श्रीपाद बावडेकर, जबलपुर, मध्यप्रदेश से क्षिति तिवारी और हैदराबाद से डी. हरिणा माधवी। उपरोक्त सभी प्रतिभागियों को दो-दो अंक मिलते हैं। सभी विजेताओं को ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ की ओर से हार्दिक बधाई। सभी प्रतिभागियों से अनुरोध है कि अपने पते के साथ कृपया अपना उत्तर ई-मेल से ही भेजा करें। इस पहेली प्रतियोगिता में हमारे नये प्रतिभागी भी हिस्सा ले सकते हैं। यह आवश्यक नहीं है कि आपको पहेली के तीनों प्रश्नों के सही उत्तर ज्ञात हो। यदि आपको पहेली का कोई एक भी उत्तर ज्ञात हो तो भी आप इसमें भाग ले सकते हैं।


संवाद


"स्वरगोष्ठी" की पहेली के वर्ष 2019 के महाविजेताओं को व्यक्तिगत रूप से ई-मेल से सूचित कर दिया गया है। डॉ. किरीट छाया, प्रफुल्ल पटेल, मुकेश लाडिया, क्षिति तिवारी और डी. हरिणा माधवी हमारे सम्भावित महाविजेता हैं। नए वर्ष 2020 का पहला और दूसरा अंक इन महाविजेताओं की प्रस्तुतियों के आधार पर ही होगा।उपरोक्त सभी सम्भावित महाविजेताओं से अनुरोध किया गया है कि वे अपना स्वयं का गाया/बजाया अथवा अपनी पसन्द का आडियो/वीडियो क्लिप हमें शीघ्र भेज दें। मुकेश जी से आग्रह है कि वे आडियो/वीडियो क्लिप के साथ अपना परिचय-वृत्त भी अतिशीघ्र भेज दें। आपके प्रेषण की हमें प्रतीक्षा है। 



अपनी बात

मित्रों, ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ पर जारी हमारी श्रृंखला “नौशाद की जन्मशती पर उनके राग” की पाँचवीं और समापन कड़ी में आज आपने राग गारा का परिचय प्राप्त किया। साथ ही इस राग के उपशास्त्रीय स्वरूप को समझने के लिए आपने सुविख्यात गायिका विदुषी अश्वनी भिड़े देशपाण्डे के स्वर में इस राग में पिरोया एक उपशास्त्रीय झूला गीत प्रस्तुत किया। नौशाद द्वारा राग गारा के आधार पर रचे गए फिल्मी गीत के उदाहरण के लिए हमने आपके लिए लता मंगेशकर और साथियों के स्वर में राग गारा पर आधारित फिल्म “मुगल-ए-आजम” का एक ऐतिहासिक गीत प्रस्तुत किया। अब हामारी मुलाक़ात नये वर्ष 2020 के अगले अंक में 5 जनवरी के अंक में होगी। कुछ तकनीकी समस्या के कारण “स्वरगोष्ठी” की पिछली कुछ कड़ियाँ हम “फेसबुक” पर अपने कुछ मित्र समूह पर साझा नहीं कर पा रहे थे। संगीत-प्रेमियों से अनुरोध है कि हमारी वेबसाइट http://radioplaybackindia.com अथवा http://radioplaybackindia.blogspot.com पर क्लिक करके हमारे सभी साप्ताहिक स्तम्भों का अवलोकन करते रहें। “स्वरगोष्ठी” पर हमारी पिछली कड़ियों के बारे में हमें अनेक पाठकों की प्रतिक्रिया लगातार मिल रही है। हमें विश्वास है कि हमारे अन्य पाठक भी “स्वरगोष्ठी” के प्रत्येक अंक का अवलोकन करते रहेंगे और अपनी प्रतिक्रिया हमें भेजते रहेगे। आज के अंक और श्रृंखला के बारे में यदि आपको कुछ कहना हो तो हमें अवश्य लिखें। हमारी वर्तमान अथवा अगली श्रृंखला के लिए यदि आपका कोई सुझाव या अनुरोध हो तो हमें swargoshthi@gmail.com पर अवश्य लिखिए। अगले अंक में रविवार को प्रातः 7 बजे हम ‘स्वरगोष्ठी’ के इसी मंच पर एक बार फिर सभी संगीत-प्रेमियों का स्वागत करेंगे।


प्रस्तुति : कृष्णमोहन मिश्र  

रेडियो प्लेबैक इण्डिया  
 राग गारा : SWARGOSHTHI – 449 : RAG GARA : 29 दिसम्बर, 2019

Comments

Popular posts from this blog

सुर संगम में आज -भारतीय संगीताकाश का एक जगमगाता नक्षत्र अस्त हुआ -पंडित भीमसेन जोशी को आवाज़ की श्रद्धांजली

सुर संगम - 05 भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चेरी बनाकर अपने कंठ में नचाते रहे। भा रतीय संगीत-नभ के जगमगाते नक्षत्र, नादब्रह्म के अनन्य उपासक पण्डित भीमसेन गुरुराज जोशी का पार्थिव शरीर पञ्चतत्त्व में विलीन हो गया. अब उन्हें प्रत्यक्ष तो सुना नहीं जा सकता, हाँ, उनके स्वर सदियों तक अन्तरिक्ष में गूँजते रहेंगे. जिन्होंने पण्डित जी को प्रत्यक्ष सुना, उन्हें नादब्रह्म के प्रभाव का दिव्य अनुभव हुआ. भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चे

कल्याण थाट के राग : SWARGOSHTHI – 214 : KALYAN THAAT

स्वरगोष्ठी – 214 में आज दस थाट, दस राग और दस गीत – 1 : कल्याण थाट राग यमन की बन्दिश- ‘ऐसो सुघर सुघरवा बालम...’  ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर आज से आरम्भ एक नई लघु श्रृंखला ‘दस थाट, दस राग और दस गीत’ के प्रथम अंक में मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक स्वागत करता हूँ। आज से हम एक नई लघु श्रृंखला आरम्भ कर रहे हैं। भारतीय संगीत के अन्तर्गत आने वाले रागों का वर्गीकरण करने के लिए मेल अथवा थाट व्यवस्था है। भारतीय संगीत में 7 शुद्ध, 4 कोमल और 1 तीव्र, अर्थात कुल 12 स्वरों का प्रयोग होता है। एक राग की रचना के लिए उपरोक्त 12 स्वरों में से कम से कम 5 स्वरों का होना आवश्यक है। संगीत में थाट रागों के वर्गीकरण की पद्धति है। सप्तक के 12 स्वरों में से क्रमानुसार 7 मुख्य स्वरों के समुदाय को थाट कहते हैं। थाट को मेल भी कहा जाता है। दक्षिण भारतीय संगीत पद्धति में 72 मेल प्रचलित हैं, जबकि उत्तर भारतीय संगीत पद्धति में 10 थाट का प्रयोग किया जाता है। इसका प्रचलन पण्डित विष्णु नारायण भातखण्डे जी ने प्रारम्भ किया

‘बरसन लागी बदरिया रूमझूम के...’ : SWARGOSHTHI – 180 : KAJARI

स्वरगोष्ठी – 180 में आज वर्षा ऋतु के राग और रंग – 6 : कजरी गीतों का उपशास्त्रीय रूप   उपशास्त्रीय रंग में रँगी कजरी - ‘घिर आई है कारी बदरिया, राधे बिन लागे न मोरा जिया...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी लघु श्रृंखला ‘वर्षा ऋतु के राग और रंग’ की छठी कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार पुनः आप सभी संगीतानुरागियों का हार्दिक स्वागत और अभिनन्दन करता हूँ। इस श्रृंखला के अन्तर्गत हम वर्षा ऋतु के राग, रस और गन्ध से पगे गीत-संगीत का आनन्द प्राप्त कर रहे हैं। हम आपसे वर्षा ऋतु में गाये-बजाए जाने वाले गीत, संगीत, रागों और उनमें निबद्ध कुछ चुनी हुई रचनाओं का रसास्वादन कर रहे हैं। इसके साथ ही सम्बन्धित राग और धुन के आधार पर रचे गए फिल्मी गीत भी सुन रहे हैं। पावस ऋतु के परिवेश की सार्थक अनुभूति कराने में जहाँ मल्हार अंग के राग समर्थ हैं, वहीं लोक संगीत की रसपूर्ण विधा कजरी अथवा कजली भी पूर्ण समर्थ होती है। इस श्रृंखला की पिछली कड़ियों में हम आपसे मल्हार अंग के कुछ रागों पर चर्चा कर चुके हैं। आज के अंक से हम वर्षा ऋतु की