Skip to main content

चित्रकथा - 71: हिन्दी फ़िल्मों में नाग-नागिन (भाग - 2)

अंक - 71

हिन्दी फ़िल्मों में नाग-नागिन (भाग - 2)

"मैं नागन तू सपेरा..." 




रेडियो प्लेबैक इंडिया’ के साप्ताहिक स्तंभ ’चित्रकथा’ में आप सभी का स्वागत है। भारतीय फ़िल्मों में नाग-नागिन शुरू से ही एक आकर्षक शैली (genre) रही है। सांपों को आधार बना कर लगभग सभी भारतीय भाषाओं में फ़िल्में बनी हैं। सिर्फ़ भारतीय ही क्यों, विदेशों में भी सांपों पर बनने वाली फ़िल्मों की संख्या कम नहीं है। जहाँ एक तरफ़ सांपों पर बनने वाली विदेशी फ़िल्मों को हॉरर श्रेणी में डाल दिया गया है, वहीं भारतीय फ़िल्मों में नाग-नागिन को कभी पौराणिक कहानियों के रूप में, कभी सस्पेन्स युक्त नाटकीय शैली में, तो कभी नागिन के बदले की भावना वाली कहानियों के रूप में प्रस्तुत किया गया है जिन्हें जनता ने ख़ूब पसन्द किया। हिन्दी फ़िल्मों के इतिहास के पहले दौर से ही इस शैली की शुरुआत हो गई थी। तब से लेकर पिछले दशक तक लगातार नाग-नागिन पर फ़िल्में बनती चली आई हैं। ’चित्रकथा’ के पिछले अंक में नाग-नागिन की कहानियों, पार्श्व या संदर्भ पर बनने वाली फ़िल्मों पर नज़र डालते हुए हम पहुँच गए थे 60 के दशक के अन्त तक। आइए आज 70 के दशक से इस सफ़र को आगे बढ़ाते हैं। प्रस्तुत है इस लेख की दूसरी व अन्तिम कड़ी।



वाक् फ़िल्म निर्माण के शुरुआती चार दशकों में नाग-नागिन के विषय पर बनने वाली फ़िल्मों में नज़र दौड़ाते हुए यह महसूस किया जा सकता है कि जहाँ 50 के दशक तक इस तरह के विषयवस्तु की पौराणिक या स्टण्ट फ़िल्में दर्शकों में बेहद लोकप्रिय हो जाया करती थीं, वहाँ 60 के दशक में ऐसी बहुत सी फ़िल्में फ़्लॉप होने लगी। दर्शकों की रुचि में बदलाव, बदलता दौर और बदलती पीढ़ी का असर नाग-नागिन के विषय पर बनने वाली पौराणिक और फ़ैन्टसी फ़िल्मों में पड़ने लगी। 70 के दशक में पहली फ़िल्म बनी 1971 में ’नाग पूजा’ शीर्षक से। 1962 में ’नाग देवता’ और 1966 में ’नाग मन्दिर’ निर्देशित करने का अनुभव रखने वाले निर्देशक शान्तिलाल सोनी को ’नाग पूजा’ निर्देशित करने का मौका दिया गया। उधर अभिनेत्री इंदिरा भी सांपों की फ़िल्मों में काफ़ी काम कर चुकी थीं। इस फ़िल्म में उनके साथ पी. जयराज, सुजीत कुमार, संजना, मोहन चोटी आदि कलाकार थे। फ़िल्म के निर्माता को बदलते दौर और दर्शकों के मिज़ाज का अंदाज़ा नहीं था और यह फ़िल्म बुरी तरह पिट गई। फ़िल्म के गीत-संगीत ने भी कोई कमाल नहीं दिखा सका। उषा खन्ना के संगीत में भरत व्यास और इरशाद के लिखे अधिकतर भक्ति रचनाओं की तरफ़ श्रोताओं ने ध्यान नहीं दिया। जिस फ़िल्म से सही मायने में नाग-नागिन की परम्परा हिन्दी फ़िल्मों में शुरू हुई, वह थी 1953 की फ़िल्म ’नाग पंचमी’। निरुपा रॉय अभिनीत यह फ़िल्म ख़ूब चली थी। इसके लगभग 20 साल बाद, 1972 में दोबारा इसी शीर्षक से निर्माता एन. डी. कोठारी ने एक पौराणिक फ़िल्म बनाने का निश्चय किया। निर्देशक के रूप में पौराणिक फ़िल्मों के जानेमाने निर्देशक बाबूभाई मिस्त्री को चुना गया। फ़िल्म में मुख्य भूमिकाएँ निभाईं श्री भगवान, मन्हर देसाई, वत्सला देशमुख, उमा दत्त, जयश्री गडकर, पृथ्वीराज कपूर, शशिकला, आशिष कुमार, जयश्री टी आदि ने। फ़िल्म की कहानी राजकुमारी बेहुला और महादेवी मनसा की पौराणिक कथा पर आधारित थी। नागलोक पर राज करने वाली महादेवी मनसा को पता चलता है कि वो भगवान शिव जी और माता पार्वती की पुत्री हैं। वो उनसे मिलने जाती हैं और उन्हें पता चलता है कि पूरी मानव जाति शिव जी के पूरे परिवार की पूजा करती है। जब महादेवी मनसा ने भी शिव जी से यह इच्छा जतायी कि उनकी भी पूजा हो, तब शिव जी ने उनसे कहा कि इसके लिए वो पहले महाराज चन्द्रधर से आज्ञा ले आए। महादेवी मनसा महाराज चन्द्रधर के पास जाती हैं लेकिन उन्हें पूजे जाने की आज्ञा नहीं ले पातीं। ग़ुस्से में आकर वो चन्द्रधर के सभी पुत्रों का वध कर देती हैं। होश आने पर वो चन्द्रधर को एक पुत्र (लक्ष्मेन्द्र) का पिता बनने का मौका देती हैं, और यह उम्मीद भी करती हैं कि लक्ष्मेन्द्र चन्द्रधर का मन-परिवर्तन करने में सक्षम होगा और महाराज चन्द्रधर उसे पूजने लगेंगे। लक्ष्मेन्द्र बड़ा होता है और उसका विवाह राजकुमारी बेहुला से होता है। अब भी चन्द्रधर मनसा की पूजा करने से मना कर देते हैं जिसकी वजह से ग़ुस्से में आकर मनसा लक्ष्मेन्द्र का वध कर देती हैं। अपने मृत पति को पुनर्जीवित करने के लिए बेहुला चार धामों (जगन्नाथ पुरी, रामेश्वरम, द्वारकाधीश, बद्रीनाथ) की यात्रा करती हैं, लेकिन मनसा उसे अंधा कर देती हैं और उसका मानसिक संतुलन बिगाड़ देती हैं ताकि वो अपने निर्जीव पति को कभी जीवित ना कर सके। 70 के दशक में इस रंगीन पौराणिक फ़िल्म की चर्चा ज़रूर हुई थी लेकिन फ़िल्म ज़्यादा चली नहीं। संगीतकार रवि और गीतकार इंदीवर ने गीत-संगीत के पक्ष पर अच्छा काम ज़रूर किया था। लता मंगेशकर की आवाज़ में "ऐ नागिन जा बस अपने द्वारे, मेरे पिया मेरे प्राणों से प्यारे..." फ़िल्म के उस मोड़ पर आती है जब लक्ष्मेन्द्र (आशिष कुमार) और बेहुला (जयश्री गडकर) के सुहाग-रात के कमरे में नागकन्या नैनत्री (जयश्री टी) आकर अपने नाग-पति के मृत्यु का बदला लेने की धमकी देती है, जिसके नाग-पति को लक्ष्मेन्द्र की रथ के पहिए के नीचे कूचल कर मृत्यु प्राप्त हुआ था। बेहुला इस गीत के माध्यम से नैनत्री से क्षमा की भीख माँग रही है। 1973 में फिर एक बार शान्तिलाल सोनी निर्देशित फ़िल्म आई ’नाग मेरे साथी’। सुजीत कुमार - संजना अभिनीत इस फ़िल्म का शीर्षक 1971 की फ़िल्म ’हाथी मेरे साथी’ से प्रेरित लगता है। संगीतकार एस. एन. त्रिपाठी 70 के दशक के आते आते प्रतियोगिता में पिछड़ चुके थे। भरत व्यास के शुद्ध हिन्दी आधारित गीतों की क़द्र करने वाले लोग फ़िल्म जगत में कम ही रह गए थे। इस फ़िल्म के गीतों में भरत व्यास और एस. एन. त्रिपाठी ख़ास कमाल नहीं दिखा सके, और यह उनकी नाग-नागिन की अन्तिम फ़िल्म सिद्ध हुई।

1954 की फ़िल्म ’नागिन’ के बाद अगर किसी नाग-नागिन की फ़िल्म को ब्लॉकबस्टर का दर्जा प्राप्त हुआ, तो वह थी 1976 की इसी शीर्षक से बनने वाली फ़िल्म। निर्माता-निर्देशक राजकुमार कोहली ने नाग-नागिन को पौराणिक कथाओं से निकाल कर एक रहस्य और रोमांच से भरपूर थ्रिलर फ़िल्म में ले आए। अपने ज़माने के एक से एक बड़े अभिनेताओं को लेकर 1976 की यह फ़िल्म ’नागिन’ ज़बरदस्त कामयाब फ़िल्म साबित हुई, जिसने नाग-नागिन पर बनने वाले फ़िल्मों की धारा को एक नया मोड़, एक नया आयाम दे दिया। जीतेन्द्र और रीना रॉय इस फ़िल्म में इच्छाधारी नाग और नागिन की भूमिकाओं में नज़र आए, और इस मल्टी-स्टारर फ़िल्म में उनके साथ थे सुनील दत्त, फ़िरोज़ ख़ान, संजय ख़ान, विनोद मेहरा, रेखा, मुमताज़, योगिता बाली, कबीर बेदी, अनिल धवन, रणजीत, प्रेमा नारायण, प्रेम नाथ और अरुणा इरानी प्रमुख। ’नागिन’ की कहानी दिलचस्प थी। इच्छाधारी नाग-नागिन की जोड़ी मानव रूप में प्रेमालाप कर रहे हैं। जैसे ही नाग फिर से नाग रूप में परिवर्तित हो जाता है, शिकारियों के दल का एक सदस्य उसे गोली मार देता है यह सोच कर कि वो उन्हें काटने जा रहा है। इसके बाद नागिन (रीना रॉय) कैसे अपने नाग की मृत्यु का बदला लेती है, यही है इस फ़िल्म की कहानी। कहानी के अन्त में केवल विजय (सुनील दत्त) को नागिन ज़िन्दा छोड़ती है और नागिन को अहसास होता है कि वो ग़लत थी और उसके बदले की भावना ने बहुत सी ज़िन्दगियों को बरबाद कर दिया, ठीक वैसे जैसे उसकी ज़िन्दगी बरबाद हुई है। अन्त में नागिन मर जाती है और स्वर्ग में पहुँच कर वो अपने नाग से मिल जाती है। फ़िल्म ’नागिन’ के गीत संगीत ने भी ख़ूब धूम मचाई। वर्मा मलिक के लिखे गीत और लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल का संगीत ज़ररदस्त हिट रहा। लता और महेन्द्र कपूर का गाया "तेरे संग प्यार मैं नहीं तोड़ना, चाहे तेरे पीछे जग पड़े छोड़ना" फ़िल्म का थीम-सॉंग् है जिस पर इच्छाधारी नाग-नागिन गाते, नृत्य करते, प्रेमालाप करते नज़र आते हैं। फ़िल्म के अन्य गीत भी मशहूर रहे, पर वो नाग-नागिन पर नहीं फ़िल्माये गए। 1979 में ’नागिन और सुहागन’ शीर्षक से एक फ़िल्म आई थी जिसकी तरफ़ किसी का ख़ास ध्यान नहीं गया। फिर एक बार यह शान्तिलाल सोनी निर्मित व निर्देशित फ़िल्म थी जिसमें विजय अरोड़ा और रीता भादुड़ी नायक-नायिका की भूमिकाओं में नज़र आए। इस फ़िल्म की कहानी भी लगभग उन्हीं पौराणिक फ़िल्मों की कहानियों जैसी ही है जिनमें नागकन्या के पति की मृत्यु फ़िल्म के नायक के हाथों ग़लतीवश हो जाती है और फिर नागिन बदला लेना चाहती है। ’नागिन’ की तरह यह फ़िल्म बड़ी बजट की फ़िल्म नहीं थी, और यह फ़िल्म नहीं चली। उषा खन्ना के संगीत में कवि प्रदीप का लिखा आरती मुखर्जी का गाया एक गीत है "ओ पाताल के राजा, मेरा दुखड़ा सुन लो राजा..."। इस गीत में पाताल के राजा नागराज से विनती और शिकायत की जा रही है - "मुझ पर है नसीबा रूठा, मुझ पर दुख पर्वत टूटा, मेरे बसे बसाये घर को एक नाग लुटेरे ने लूटा"।

80 के दशक के प्रथमार्ध में नाग-नागिन पर कोई फ़िल्म नहीं बनी। फ़िल्म निर्माताओं को लगा होगा कि यह शैली अब पुरानी हो चुकी है जो दर्शकों को अपनी ओर आकृष्ट कर पाने में असमर्थ है। 1976 में ’नागिन’ के सुपरहिट होने के बावजूद जब 1979 में ’नागिन और सुहागन’ पिट गई, तब फ़िल्मकारों ने इस विषय से दूर रहने में ही भलाई समझी। बार बार एक ही तरह की वही नागिन का अपने मरे हुए नाग की मृत्यु का इन्तकाम जैसी कहानियों की फ़िल्मों से एकरसता आ गई थी। लेकिन 1986 में इस शैली में फिर एक बड़ा मोड़ आया जब निर्माता-निर्देशक हरमेश मल्होत्रा श्रीदेवी को लेकर आए ’नगीना’ में। फ़िल्म की नायिका रजनी, एक इच्छाधारी नागिन है, जो कुछ दुष्ट सपेरों से अपने प्रेमी की मृत्यु का बदला लेने के लिए एक साधारण नागरिक से शादी करती है। यह फ़िल्म उस वर्ष की सफलतम फ़िल्मों में से एक थी जिसने दुनियाभर में 130 मिलियन रुपये का कारोबार किया, और 1986 की दूसरी बड़ी फ़िल्म सिद्ध हुई (पहली फ़िल्म थी अमिताभ बच्चन की ’आख़िरी रास्ता’)। 1983-84 में श्रीदेवी तेज़ी से स्टारडम की सीढ़ियाँ चढ़ती जा रही थीं। ’नगीना’ ने उन्हें पहली फ़ीमेल सुपरस्टार बना दिया और आज भी इस फ़िल्म में उनके अभिनय को उनकी श्रेष्ठ फ़िल्मों में गिना जाता है। इस फ़िल्म में हर कलाकार ने अपने अपने चरित्र को बख़ूबी निभाया। फ़िल्म के नायक राजीव (ॠषि कपूर) और उनकी माँ (सुषमा सेठ) अपने महल समान घर में रहते हैं। राजीव और रजनी (श्रीदेवी) एक दूसरे से प्यार करते हैं और शादी कर लेते हैं, लेकिन जल्द ही बिजली टूट पड़ती है जब सपेरों का मुखिया भैरो (अमरीश पुरी) उनके घर आकर राजीव की माँ को ख़बर देते हैं कि रजनी दरसल एक नागिन है। बीन बजा कर भैरो रजनी को सम्मोहित कर सबके सामने नाचने पर मजबूर कर देता है और यह सिद्ध हो जाता है कि वो नागिन है। रजनी घर से भाग निकलती है पर भैरो उसे पकड़ लेता है। भैरो को रजनी से उस मणि का पता लगवाना है जिसके मिलने पर वो दुनिया को अपनी मुट्ठी में कर सकता है। राजीव की मदद से रजनी भैरो ने चुंगल से बच निकलती है और सांपों के काटने से भैरो का अन्त होता है। राजीव और रजनी फिर ख़ुशी-ख़ुशी अपना जीवन व्यतीत करते हैं। आनन्द बक्शी के गीत और लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल का संगीत ज़बरदस्त हिट रहा। फ़िल्म के सभी पाँच गीत सुपरहिट। लेकिन सर्वाधिक लोकप्रिय गीत बना लता मंगेशकर का गाया "मैं तेरी दुश्मन, दुश्मन तू मेरा, मैं नागन तू सपेरा" जो फ़िल्म के क्लाइमैक्स का हिस्सा था। इस गीत और नृत्य को बॉलीवूड के श्रेष्ठ ’स्नेक डान्स नंबर’ में गिना जाता है। इस गीत का शुरुआती बीन संगीत भी यादगार रहा है। श्रीदेवी के नृत्य गीतों में यह शीर्ष पर विराजमान है और iDiva ने इसे "the stuff of movie legends" कह कर सम्मानित किया है। इस गीत से जुड़ा एक विवाद भी है। शुरू में इस गीत को अनुराधा पौडवाल की आवाज़ में रिकॉर्ड किया गया था, लेकिन फ़िल्म के रिलीज़ से पहले इसे लता मंगेशकर से गवाया गया जो अनुराधा पौडवाल को "unethical" लगा। ख़ैर, हक़ीक़त यही है कि आज तक ’नगीना’ सांपों पर बनने वाली फ़िल्मों में एक बहुत ऊंचा मकाम रखती है। 2013 में श्रीदेवी को फ़िल्मफ़ेअर पुरस्कार के तहत उनके ’नगीना’ और ’मिस्टर इंडिया’ में शानदार अभिनय के लिए एक विशेष पुरस्कार से सम्मानित किया गया। यह शायद इसलिए दिया गया क्योंकि 1987 और 1988 में फ़िल्मफ़ेअर पुरस्कार का आयोजन नहीं हुआ, जिस वजह से इन दोनों सालों की फ़िल्मों को पुरस्कृत नहीं किया जा सका था। अगर किया गया होता तो ’नगीना’ के लिए श्रीदेवी सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के पुरस्कार के बहुत क़रीब होतीं। 1989 में ’नगीना’ की सीकुइल फ़िल्म बनी ’निगाहें’ जिसमें राजीव और रजनी की बेटी के रूप में फिर एक बार श्रीदेवी ही नज़र आईं और उनके नायक बने सनी देओल। यह हिन्दी फ़िल्म इतिहास की पहली सीकुइल फ़िल्म थी। हालांकि यह फ़िल्म बॉक्स ऑफ़िस पर नाकामयाब रही, पर फ़िल्म के गीत-संगीत ख़ासा लोकप्रिय रहा। एक बार फिर आनन्द बक्शी और लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल के गीत सर चढ़ कर बोले। और ख़ास बात यह कि इस फ़िल्म में दो गीत सांपों की पार्श्व पर बने - अनुराधा पौडवाल का गाया "किसे ढूंढ़ता है पागल सपेरे, मैं तो सामने खड़ी हूँ तेरे" और कविता कृष्णमूर्ति का गाया "खेल वही फिर आज तू खेला, पहले गुरु आया अब चेला", जो ’नगीना’ के "मैं तेरी दुश्मन..." का ही विस्तार है। गीत अन्तरे से ही शुरू होता है और मुखड़े पर आकर "मैं नागन तू सपेरा" से ख़त्म होता है। इस गीत और इस गीत पर श्रीदेवी के नृत्य को वह लोकप्रियता नहीं मिली जो "मैं तेरी दुश्मन" को मिली थी। समालोचक इसके दो कारण बताते हैं - पहला कारण, इस गीत को लता मंगेशकर से गवाया जाना चाहिए था, दूसरा कारण, इस गीत की कोरियोग्राफ़ी ’नगीना’ के कोरियोग्राफ़ी से कमज़ोर थी। 

’नगीना’ के बाद फिर एक बार फ़िल्मकारों में नाग-नागिन पर फ़िल्में बनाने की होड़ सी लग गई। 1988 में ’नागिन के दो दुश्मन’ शीर्षक से एक सी-ग्रेड फ़िल्म आई थी जिसमें जयश्री टी. ने अभिनय किया था। लक्ष्मी किरण फ़िल्म की संगीतकार थीं। 1989 में वी. मेनन निर्देशित फ़िल्म बनी ’तू नागन मैं सपेरा’ जो ’नगीना’ के गीत के मुखड़े से प्रेरित था। सोनिका गिल, सुमीत सहगल, श्रीप्रदा अभिनीत इस फ़िल्म की कहानी भी ’नगीना’ की कहानी के इर्द-गिर्द घूमती ही महसूस हुई। अनवर उसमान का संगीत और महेन्द्र दहल्वी के गीत लोकप्रिय नहीं हुए। अनुराधा पौडवाल की आवाज़ में "ओ सपेरे मेरे दुश्मन, तेरी दुश्मन हूँ मैं नागन, तूने मारा है मेरा साजन, तुझको मारेगी अब ये नागन" गीत कोई कमाल नहीं दिखा सकी। 1990 में कुल पाँच फ़िल्में बनीं नाग-नागिन पर।  श्रीदेवी को नागिन के रूप में देखने के बाद कई बड़े फ़िल्मकार और अभिनेत्रियों के मन में भी इस शैली की फ़िल्में बनाने और उनमें काम करने का विचार आया। सदाबहार अभिनेतेरी रेखा को लेकर फ़िल्म बनी ’शेषनाग’। फ़िल्म बड़ी बजट की थी और रेखा के अलावा इस फ़िल्म में जीतेन्द्र, ॠषि कपूर, मंदाकिनी, माधवी जैसे कलाकार थे। अमरीश पुरी की जगह दुष्ट सपेरे का किरदार इस फ़िल्म में डैनी ने निभाया। कहानी ’नगीना’ से अलग ज़रूर थी, लेकिन यह फ़िल्म ’नगीना’ जैसा कमाल नहीं दिखा पाया। आनन्द बक्शी - लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल के गीतों में भी "छेड़ मिलन के गीत रे मितवा" (अनुराधा - सुरेश) के अलावा कोई भी गीत लोकप्रिय नहीं हुआ। रेखा के बाद उस दौर की एक और जानीमानी अभिनेत्री मीनाक्षी शेशाद्री ने भी नागिन की भूमिका निभाई ’नाचे नागिन गली गली’ फ़िल्म में। बी. के. जैसवाल के इस फ़िल्म में नायक बने नितिश भारद्वाज (जिन्होंने दूरदर्शन के ’महाभारत’ में श्रीकृष्ण का चरित्र निभाया था)। यह फ़िल्म भी ’नगीना’ के आगे टिक नहीं सकी। अनजान के गीत और कल्याणजी-आनन्दजी के संगीत में फ़िल्म का एक ही गीत कुछ समय तक रेडियो पर गूंजता सुनाई दिया - "नाचे नागिन गली गली, तेरी याद में सजना गली गली" (साधना सरगम)। लेकिन फ़िल्म में दम नहीं था और लोगों ने बहुत जल्द इस फ़िल्म को भुला दिया। ’शेषनाग’ की सह-अभिनेत्री मंदाकिनी को मुख्य नागिन की भूमिका में भी उतारा गया था इसी साल। फ़िल्म ’राम तेरी गंगा मैली’ के स्टार कास्ट (राजीव कपूर, मंदाकिनी, रज़ा मुराद और विजेता पंडित) को लेकर रामकुमार बोहरा ने ’नाग नागिन’ बनाई, लेकिन फ़िल्म बुरी तरह असफल रही और साल की सबसे बड़ी फ़्लॉप फ़िल्म सिद्ध हुई। संगीतकार लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल और गीतकार संतोष आनन्द भी फ़िल्म को बचा नहीं सके। फ़िल्म का कविता कृष्णमूर्ति - नितिन मुकेश का गाया "मैं नाग तू नागिन, नहीं जीना तेरे बिन" में कोई नई बात नहीं थी और बीन संगीत भी वही जाना पहचाना ’नगीना’ शैली का। 80 के दशक तक नाग-नागिन पर बनने वाली फ़िल्मों के शीर्षक में भी नाग-नागिन-नगीना का उल्लेख होता था। लेकिन 90 के दशक के आते-आते इस तरह के शीर्षक इतने ज़्यादा बार प्रयोग हो चुके थे कि अब फ़िल्मकार नाग-नागिन-सपेरे की कहानियों के शीर्षक साधारण फ़िल्मों के शीर्षक जैसे रखने लगे। 1990 में आमिर ख़ान - जुही चावला अभिनीत फ़िल्म आई ’तुम मेरे हो’। ’क़यामत से क़यामत तक’ के बाद आमिर-जुही की जोड़ी सर चढ़ कर बोल रही थी उन दिनों। ताहिर हुसैन (आमिर ख़ान के पिता) ने इस फ़िल्म को निर्देशित किया, लेकिन बॉक्स ऑफ़िस पर फ़िल्म असफल रही। सिर्फ़ कामयाब जोड़ी अगली फ़िल्म को भी कामयाब बना दे यह ज़रूरी नहीं। इस फ़िल्म में आमिर ख़ान शिवा नामक सपेरा है जिसे सांपों को वश में करने के जादूई शक्ति प्राप्त है। वो और पारो (जुही चावला) एक दूसरे से प्यार करते हैं दोनों के प्रभावशाली पिताओं की मर्ज़ी के ख़िलाफ़। उधर शिवा के पिता ने शिवा के बालपन में एक इच्छाधारी नागिन की हत्या कर दी थी जिस वजह से नागिन की माँ ने उससे बदला लेने का वचन लिया था। क्या नागिन शिवा को मार कर अपना वचन निभा पाती है, यही थी ’तुम मेरे हो की कहानी’। फ़िल्म फ़्लॉप होने के बावजूद ’क़यामत से क़यामत तक’ के गीतकार-संगीतकार जोड़ी मजरूह - आनन्द-मिलिंद ने सुरीले गीत रचे और फ़िल्म के गीत हिट हुए। हालांकि इसमें सांपों पर कोई गीत नहीं था, लेकिन "जब से देखा तुमको यारा" (उदित-अनुपमा), "जतन चाहे जो करले" (उदित-साधना), "शीशा चाहे टूट भी जाए" (उदित), "आसमां से गिरे खजूर पे अटके" (अनुराधा) जैसे गीत उस ज़माने में ख़ूब चले थे। 

1990 की एक और फ़िल्म थी ’दूध का कर्ज़’। सलीम अख़्तर की इस फ़िल्म में जैकी श्रॉफ़ और नीलम थे मुख्य भूमिकाओं में। फ़िल्म की कहानी नाग-नागिन की कहानी तो नहीं थी, लेकिन सांपों के पार्श्व पर ज़रूर थी। सपेरन पार्वती (अरुणा इरानी) अपने नवजात पुत्र सूरज (जैकी श्रॉफ़)के साथ अपने पति को तीन दरिंदों द्वारा चोरी के झूठे इलज़ाम पर पीट पीट कर मारते हुए देखा। पार्वती अपने पति की चिता की अग्नि को छू कर शपथ लेती है उन दरिंदों को उचित सज़ा दिलवाने की। वो सूरज और एक सांप को पालती है। धर्मा लोहार इसमें उनकी मदद करता है। बड़ा होने पर सूरज को रेशमा (नीलम) से प्यार हो जाता है जिसे वो एक सांप के काटने पर उसके ज़हर से बचाता है। जब पार्वती अपने पति के क़ातिल गंगु को मार कर अपना बदला पूरा करने का सोचती हैं, तब उसे पता चलता है कि सूरज की प्रेमिका रेशमा दरसल गंगु की ही बेटी है। आनन्द बक्शी और अनु मलिक की जोड़ी के रचे गीतों ने धूम मचा दी। हालांकि मोहम्मद अज़ीज़ और अनुराधा पौडवाल के गाए "तुम्हें दिल से कैसे जुदा हम करेंगे" और "शुरू हो रही है प्रेम कहानी" फ़िल्म के लोकप्रियतम गीत रहे, सांप और सपेरे पर भी दो गीत थे - "बीन बजाता जा सपेरे बीन बजाता जा, छम छम नाचती जाऊं मैं, तू मुझे नचाता जा" (अनुराधा) और "बीन बजाऊँ तुझे बुलाऊँ, तेरे बदले मैं मर जाऊँ"। 1989 में वी. मेनन ने ’तू नागन मैं सपेरा’ निर्देशित किया था जिसमें सुमीत सहगल नायक थे और सोनिका गिल व श्रीप्रदा नायिकाएँ थीं। 1991 में वी. मेनन ने सुमीत सहगल को ही नायक लेकर बनाई म्युज़िकल फ़िल्म ’नाग मणि’। नायिका के रूप में दिखीं शिखा स्वरूप। दुष्ट सपेरे और नाग मणि की तलाश के बीच नायक-नायिका की मधुर प्रेम कहानी वाली यह फ़िल्म कामयाब रही। फ़िल्म का सर्वाधिक शक्तिशाली पक्ष था इसका गीत-संगीत। अनु मलिक के संगीत में संतोष आनन्द के लिखे गीत बेहद लोकप्रिय हुए। टी-सीरीज़ और अनुराधा पौडवाल उन दिनों मेलडियस गीतों का पर्याय बन गए थे। यह फ़िल्म भी उन्हीं टी-सीरीज़ म्युज़िकल फ़िल्मों में से एक थी। बस अफ़सोस एक ही बात का है कि इस फ़िल्म में नाग-नागिन-सपेरे का कोई गीत नहीं था। 1991 में सलिल परिदा निर्मित व जग मुंध्रा निर्देशित फ़िल्म आई थी ’विषकन्या’ जो पूजा बेदी के बोल्ड दृश्यों की वजह से विवादों में घिर गई थी। यह फ़िल्म भी बदले की कहानी है। निशा (पूजा बेदी) अपने माता-पिता (कबीर बेदी - मुनमुन सेन) की मौत का बदला लेने के लिए एक तांत्रिक से सांप का ज़हर युक्त गोली खा कर विष कन्या बन जाती है। चर्चा में रहने के बावजूद दर्शकों के दिल को छू नहीं सकी यह फ़िल्म और बप्पी लाहिड़ी का संगीत और सैयद गुलरेज़ के गीत कोई कमाल नहीं दिखा सके। पाँच वर्षों के बाद 1996 में गौतम भाटिया निर्मित व निर्देशित कम बजट की फ़िल्म ’हसीना और नगीना’ आई जिसमें किरण कुमार और एकता सोहिनी मुख्य कलाकार थे। फ़िल्म कब आई कब गई पता भी नहीं चला। दिलीप सेन - समीर सेन के संगीत में शोभा जोशी और कविता कृष्णमूर्ति का गाया "मैं हूँ एक हसीना मैं हूँ एक नगीना" में पंक्ति है "नागिन सी बलखाके लहराऊंगी, छेड़ेगा मुझको तो डस जाऊंगी, मैं मार दूंगी या मर जाऊंगी, मैं आज हद से गुज़र जाऊंगी"।

21-वीं सदी आ गई। हालांकि इस नए दौर में नाग-नागिन पर बनने वाली फ़िल्मों की संख्या कम होती जा रही थी, सिलसिला पूरी तरह से ख़त्म नहीं हुई। वर्ष 2000 में दक्षिण की एक डब की हुई फ़िल्म हिन्दी में प्रदर्शित हुई ’एक वरदान नगीना’ शीर्षक से। साई किरण, प्रभाकर, प्रेमा और मल्लिकार्जुन राव अभिनीत यह फ़िल्म थी। 2002 की फ़िल्म ’जानी दुश्मन’ एक डार्क फ़ैन्टसी ऐक्शन फ़िल्म थी। इस मल्टी-स्टारर फ़िल्म में अक्षय कुमार, अरमान कोहली, मनीषा कोयराल, सनी देओल, सुनील शेट्टी, आफ़ताब शिवदासानी, शरद कपूर, सोनू निगम और अरशद वारसी जैसे कलाकार थे। जहाँ तक सांपों की बात है, फ़िल्म की एक नायिका दिव्या (मनीषा कोयराला) को पिछले जनम की बातें याद आती हैं कि उस जनम में वो कपिल (अरमान कोहली) नामक इच्छाधारी नाग से प्यार करती थी। जब इस जनम में दिव्या का कुछ लोग बलात्कार करते हैं जिस वजह से वो आत्महत्या कर लेती है, तब कपिल पुनर्जीवित हो उठता है और इच्छाधारी नाग के शक्तियों से बदला लेता है। 2004 में एक फ़िल्म प्रद्रशित हुई थी ’हत्या’ जिसमें अक्षय कुमार थे। दरसल यह फ़िल्म बहुत पहले की बनी हुई थी, जिसे बरसों बाद 2004 में रिलीज़ कर दिया गया। इस फ़िल्म में अक्षय कुमार को एक इच्छाधारी नाग में परिणत होते हुए दिखाया गया। फ़िल्म में नायिका थीं वर्षा उसगाँवकर और संगीतकार थे नदीम-श्रवण। 2008 में ’Heaven on Earth' शीर्षक से दीपा मेहता की एक कनाडियन फ़िल्म आई थी जिसे भारत में ’विदेश’ शीर्षक से प्रदर्शित की गई थी। प्रीति ज़िंटा और वंश भारद्वाज अभिनीत इस फ़िल्म की कहानी सीधे सीधे सांप की कहानी तो नहीं है, लेकिन नायिका, जिसने बचपन में नाग-नागिन की एक लोकगाथा सुन रखी होती है, उसे शादी के बाद ससुराल में अत्याचारी पति के दुर्व्यवहार की वजह से बार बार बचपन में सुनी हुई वह सांप की लोक-कथा याद आती रहती है, जो उसके जीवन को प्रभावित करती है। हिन्दी फ़िल्मों में सांपों पर बनने वाली फ़िल्मों की श्रॄंखला 2010 में जा कर ख़त्म हो जाती है फ़िल्म ’हिस्स्स’ से। यह एक ऐडवेंचर-हॉरर फ़िल्म थी जिसका निर्देशन किया था Jennifer Chambers Lynch ने। वही जानी-पहचानी इच्छाधारी नागिन की कहानी, लेकिन इस बार एक नए आधुनिक अंदाज़ में पेश की गई जिसमें मुख्य किरदार मल्लिका शेरावत ने निभाई। फ़िल्मों के तकनीकी विकास के साथ-साथ कई असंभव दृश्यों को दिखाना अब आसान काम हो गया था। इस फ़िल्म में मल्लिका शेरावत के इंसान से नागिन बनने का दृश्य बड़ा डरावना दिखाई देता है। अनु मलिक के संगीत निर्देशन में इस फ़िल्म के गीत भी आधुनिक शैली के रहे। "मैं नागिन तू सपेरा" में ना उलझ कर अबकि बार है "I got that poison" (श्वेता पंडित) और "I have been here before" (श्रुति हासन) जैसे गीत।

वर्तमान दशक में अभी तक बॉलीवूड में कोई भी फ़िल्म सांपों के पार्श्व पर नहीं बनी है। इस तरह से 1933 में ’ज़हरी सांप’ से जो सिलसिला शुरू हुआ था, वह 2010 में ’हिस्स्स’ तक आकर रुक गया। लेकिन जब जब इस तरह की फ़िल्मों की बात चलेगी, तब जो तीन फ़िल्में सबसे पहले याद आएंगी, वो हैं ’नागिन’ (1954), 'नागिन’ (1976), और 'नगीना’ (1986)।


आख़िरी बात

’चित्रकथा’ स्तंभ का आज का अंक आपको कैसा लगा, हमें ज़रूर बताएँ नीचे टिप्पणी में या soojoi_india@yahoo.co.in के ईमेल पते पर पत्र लिख कर। इस स्तंभ में आप किस तरह के लेख पढ़ना चाहते हैं, यह हम आपसे जानना चाहेंगे। आप अपने विचार, सुझाव और शिकायतें हमें निस्संकोच लिख भेज सकते हैं। साथ ही अगर आप अपना लेख इस स्तंभ में प्रकाशित करवाना चाहें तो इसी ईमेल पते पर हमसे सम्पर्क कर सकते हैं। सिनेमा और सिनेमा-संगीत से जुड़े किसी भी विषय पर लेख हम प्रकाशित करेंगे। आज बस इतना ही, अगले सप्ताह एक नए अंक के साथ इसी मंच पर आपकी और मेरी मुलाक़ात होगी। तब तक के लिए अपने इस दोस्त सुजॉय चटर्जी को अनुमति दीजिए, नमस्कार, आपका आज का दिन और आने वाला सप्ताह शुभ हो!




शोध,आलेख व प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी 



रेडियो प्लेबैक इण्डिया 

Comments

Popular posts from this blog

सुर संगम में आज -भारतीय संगीताकाश का एक जगमगाता नक्षत्र अस्त हुआ -पंडित भीमसेन जोशी को आवाज़ की श्रद्धांजली

सुर संगम - 05 भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चेरी बनाकर अपने कंठ में नचाते रहे। भा रतीय संगीत-नभ के जगमगाते नक्षत्र, नादब्रह्म के अनन्य उपासक पण्डित भीमसेन गुरुराज जोशी का पार्थिव शरीर पञ्चतत्त्व में विलीन हो गया. अब उन्हें प्रत्यक्ष तो सुना नहीं जा सकता, हाँ, उनके स्वर सदियों तक अन्तरिक्ष में गूँजते रहेंगे. जिन्होंने पण्डित जी को प्रत्यक्ष सुना, उन्हें नादब्रह्म के प्रभाव का दिव्य अनुभव हुआ. भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चे...

‘बरसन लागी बदरिया रूमझूम के...’ : SWARGOSHTHI – 180 : KAJARI

स्वरगोष्ठी – 180 में आज वर्षा ऋतु के राग और रंग – 6 : कजरी गीतों का उपशास्त्रीय रूप   उपशास्त्रीय रंग में रँगी कजरी - ‘घिर आई है कारी बदरिया, राधे बिन लागे न मोरा जिया...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी लघु श्रृंखला ‘वर्षा ऋतु के राग और रंग’ की छठी कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार पुनः आप सभी संगीतानुरागियों का हार्दिक स्वागत और अभिनन्दन करता हूँ। इस श्रृंखला के अन्तर्गत हम वर्षा ऋतु के राग, रस और गन्ध से पगे गीत-संगीत का आनन्द प्राप्त कर रहे हैं। हम आपसे वर्षा ऋतु में गाये-बजाए जाने वाले गीत, संगीत, रागों और उनमें निबद्ध कुछ चुनी हुई रचनाओं का रसास्वादन कर रहे हैं। इसके साथ ही सम्बन्धित राग और धुन के आधार पर रचे गए फिल्मी गीत भी सुन रहे हैं। पावस ऋतु के परिवेश की सार्थक अनुभूति कराने में जहाँ मल्हार अंग के राग समर्थ हैं, वहीं लोक संगीत की रसपूर्ण विधा कजरी अथवा कजली भी पूर्ण समर्थ होती है। इस श्रृंखला की पिछली कड़ियों में हम आपसे मल्हार अंग के कुछ रागों पर चर्चा कर चुके हैं। आज के अंक से हम वर्षा ऋतु...

काफी थाट के राग : SWARGOSHTHI – 220 : KAFI THAAT

स्वरगोष्ठी – 220 में आज दस थाट, दस राग और दस गीत – 7 : काफी थाट राग काफी में ‘बाँवरे गम दे गयो री...’  और  बागेश्री में ‘कैसे कटे रजनी अब सजनी...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी नई लघु श्रृंखला ‘दस थाट, दस राग और दस गीत’ की सातवीं कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ। इस लघु श्रृंखला में हम आपसे भारतीय संगीत के रागों का वर्गीकरण करने में समर्थ मेल अथवा थाट व्यवस्था पर चर्चा कर रहे हैं। भारतीय संगीत में सात शुद्ध, चार कोमल और एक तीव्र, अर्थात कुल 12 स्वरों का प्रयोग किया जाता है। एक राग की रचना के लिए उपरोक्त 12 में से कम से कम पाँच स्वरों की उपस्थिति आवश्यक होती है। भारतीय संगीत में ‘थाट’, रागों के वर्गीकरण करने की एक व्यवस्था है। सप्तक के 12 स्वरों में से क्रमानुसार सात मुख्य स्वरों के समुदाय को थाट कहते है। थाट को मेल भी कहा जाता है। दक्षिण भारतीय संगीत पद्धति में 72 मेल का प्रचलन है, जबकि उत्तर भारतीय संगीत में दस थाट का प्रयोग किया जाता है। इन...