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एक गीत सौ अफ़साने || एपिसोड 02 || छोटी सी कहानी से

  एक गीत सौ अफ़साने की दूसरी कड़ी में आज चर्चा फिल्म "इजाजत" के लाजवाब गीत "छोटी सी कहानी से" की  Ek Geet Sau Afsane explores the interesting unknown and unheard back stories of a Song. Every song has its own journey, and every new episode of this program is an attempt to understand the process behind making a song. with program head Sangya Tandon, her dedicated team of podcasters are here to tell these insightful stories that went behind in the process of making a song, enjoy. आप हमारे इस पॉडकास्ट को इन पॉडकास्ट साईटस पर भी सुन सकते हैं  Spotify Amazon music   Google Podcasts Apple Podcasts Gaana JioSaavn हम से जुड़ सकते हैं - facebook  instagram  YouTube  Hope you like this initiative, give us your feedback on radioplaybackdotin@gmail.com

महफ़िल ए कहकशां -23, "सातों बार बोले बंसी" जैसे नगीनों से सजी है आज की "गुलज़ार-आशा-पंचम"-मयी महफ़िल

महफ़िल ए कहकशाँ 23 पंचम, आशा ताई और गुलज़ार  दो स्तों सुजोय और विश्व दीपक द्वारा संचालित "कहकशां" और "महफिले ग़ज़ल" का ऑडियो स्वरुप लेकर हम हाज़िर हैं, "महफिल ए कहकशां" के रूप में पूजा अनिल और रीतेश खरे  के साथ।  अदब और शायरी की इस महफ़िल में आज पेश है गुलज़ार, राहुल देव बर्मन और आशा भोसले की तिकड़ी के सुरीले संगम से निकला एक नगमा 'दिल पडोसी है' एल्बम से|  मुख्य स्वर - पूजा अनिल, रीतेश खरे एवं सजीव सारथी  स्क्रिप्ट - विश्व दीपक एवं सुजॉय चटर्जी

महफ़िल ए कहकशां -22, अपने पडो़सी दिल से भीनी-भीनी भोर की माँग कर बैठे गोटेदार गुलज़ार साहब, आशा जी एवं राग तोड़ी वाले पंचम दा

महफ़िल ए कहकशाँ 22 पंचम, आशा ताई और गुलज़ार  दो स्तों सुजोय और विश्व दीपक द्वारा संचालित "कहकशां" और "महफिले ग़ज़ल" का ऑडियो स्वरुप लेकर हम हाज़िर हैं, "महफिल ए कहकशां" के रूप में पूजा अनिल और रीतेश खरे  के साथ।  अदब और शायरी की इस महफ़िल में आज पेश है गुलज़ार, राहुल देव बर्मन और आशा भोसले की तिकड़ी के सुरीले संगम से निकला एक नगमा 'दिल पडोसी है' एल्बम से|  मुख्य स्वर - पूजा अनिल एवं रीतेश खरे स्क्रिप्ट - विश्व दीपक एवं सुजॉय चटर्जी

चाहा था एक शख़्स को... कहकशाँ-ए-तलबगार में आशा की गुहार

महफ़िल ए कहकशाँ 19 आशा भोंसले और खय्याम  दो स्तों सुजोय और विश्व दीपक द्वारा संचालित "कहकशां" और "महफिले ग़ज़ल" का ऑडियो स्वरुप लेकर हम हाज़िर हैं, "महफिल ए कहकशां" के रूप में पूजा अनिल और रीतेश खरे  के साथ।  अदब और शायरी की इस महफ़िल में आज पेश है आशा भोंसले की आवाज़ में एक गज़ल, मौसिकार हैं खय्याम और कलाम है हसन कमाल का |   मुख्य स्वर - पूजा अनिल एवं रीतेश खरे  स्क्रिप्ट - विश्व दीपक एवं सुजॉय चटर्जी

आगे भी जाने न तू....जब बदलती है जिंदगी एक पल में रूप अनेक तो क्यों न जी लें पल पल को

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 720/2011/160 स जीव सारथी के लिखे कविता-संग्रह ' एक पल की उम्र लेकर ' पर आधारित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इसी शीर्षक से लघु शृंखला की आज दसवीं और अंतिम कड़ी है। आज जिस कविता को हम प्रस्तुत करने जा रहे हैं, वह इस पुस्तक की शीर्षक कविता है 'एक पल की उम्र लेकर'। आइए इस कविता का रसस्वादन करें... सुबह के पन्नों पर पायी शाम की ही दास्ताँ एक पल की उम्र लेकर जब मिला था कारवाँ वक्त तो फिर चल दिया एक नई बहार को बीता मौसम ढल गया और सूखे पत्ते झर गए चलते-चलते मंज़िलों के रास्ते भी थक गए तब कहीं वो मोड़ जो छूटे थे किसी मुकाम पर आज फिर से खुल गए, नए क़दमों, नई मंज़िलों के लिए मुझको था ये भरम कि है मुझी से सब रोशनाँ मैं अगर जो बुझ गया तो फिर कहाँ ये बिजलियाँ एक नासमझ इतरा रहा था एक पल की उम्र लेकर। ज़िंदगी की कितनी बड़ी सच्चाई कही गई है इस कविता में। जीवन क्षण-भंगुर है, फिर भी इस बात से बेख़बर रहते हैं हम, और जैसे एक माया-जाल से घिरे रहते हैं हमेशा। सांसारिक सुख-सम्पत्ति में उलझे रहते हैं, कभी लालच में फँस जाते हैं तो कभी झूठी शान दिखा बैठते हैं। कल किसी नें न

अपने दिल में जगह दीजिए....गुजारिश की उषा खन्ना ने और उनके गीतों को सर आँखों पे बिठाया श्रोताओं ने

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 616/2010/316 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' की इस नए सप्ताह में आप सभी का हार्दिक स्वागत है। इन दिनों इस स्तंभ में जारी है ८ मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस को ध्यान में रखते हुए हमारी लघु शृंखला 'कोमल है कमज़ोर नहीं'। पिछले पाँच अंकों में हमनें पाँच ऐसे महिला कलाकारों से आपका परिचय करवाया जिन्होंने हिंदी सिनेमा के पहले दौर में अपनी महत्वपूर्ण योगदान से महिलाओं के लिए इन विधाओं में आने का रास्ता आसान बनाया था। जद्दनबाई, दुर्गा खोटे, देविका रानी, सरस्वती देवी और कानन देवी के बाद आज हम जिस महिला शिल्पी से आपका परिचय करवाने जा रहे हैं, वो एक ऐसी संगीतकार हैं जो महिला संगीतकारों में सब से ज़्यादा मशहूर हुईं और सब से ज़्यादा लोकप्रिय गीत जनता को दिए। हम बात कर रहे हैं उषा खन्ना की। और लोकप्रियता उषा जी ने अपनी पहली ही फ़िल्म से हासिल कर ली थी। एस. मुखर्जी ने उनके संगीत के प्रति लगाव को देख कर अपनी फ़िल्म 'दिल देके देखो' के संगीत का उत्तरदायित्व उन्हें दे दिया, और इस तरह से गायिका उषा खन्ना बन गईं संगीत निर्देशिका उषा खन्ना। पढ़िये उषा जी के शब्दों में उ

तेरा करम ही तेरी विजय है....यही तो सार है गीता का और यही है मन्त्र जीवन के हर खेल का भी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 610/2010/310 खे लकूद और ख़ास कर क्रिकेट की चर्चा करते हुए आज हम आ पहुँचे हैं लघु शृंखला 'खेल खेल में' की दसवीं और अंतिम कड़ी पर। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों नमस्कार और हार्दिक स्वागत है इस सप्ताह की आख़िरी नियमित कड़ी में। विश्वकप क्रिकेट में आपने 'प्रुडेन्शियल कप ट्रॊफ़ी' की बात ज़रूर सुनी होगी। आख़िर क्या है प्रुडेन्शियल कप, आइए आज इसी बारे में कुछ बातें करते हैं। जैसा कि आप जानते हैं पहला विश्वकप १९७५ में खेला गया था। इसकी शुरुआत ७ जून १९७५ को हुई थी। इसके बाद दूसरा और तीसरा विश्वकप भी इंगलैण्ड में ही आयोजित हुआ था और इन तीनों प्रतियोगिताओं को प्रुडेन्शियल कप का नाम दिया गया, इनके प्रायोजक प्रुडेन्शियल कंपनी के नाम पर। इन मैचों में हर टीम को ६० ओवर मिलते बल्लेबाज़ी के लिए, खेल दिन के वक़्त होता था, और खिलाड़ी सफ़ेद कपड़े पहनते और गेंद लाल रंग के हुआ करते थे। जिन आठ देशों ने पहला विश्वकप खेला था, उनके बारे में हम बता ही चुके हैं, आज इतना ज़रूर कहना चाहेंगे कि दक्षिण अफ़्रीका को खेल से बाहर रखा गया था 'अपारथेड' (वर्ण-विद्वेष) की

हु तू तू....सुनिए अन्तराष्ट्रीय महिला दिवस पर इस कब्बडी गीत को और सलाम कीजिए खेलों में जबरदस्त प्रदर्शन दिखाने वाली भारतीय महिलाओं को

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 608/2010/308 आ ज है ८ मार्च, यानी कि अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस। इस अवसर पर हम 'हिंद-युग्म' के सभी महिला मित्रों को हार्दिक शुभकामनाएँ देते हुए रोशन करते हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के महफ़िल की शमा। क्योंकि इन दिनों हम क्रिकेट की बातें कर रहे हैं, इसलिए आज हम चर्चा करेंगे भारतीय महिला क्रिकेट की और उसके बाद सुनवाएँगे एक ऐसा खेल प्रधान गीत जिसमें आपको नारीशक्ति की महक मिलेगी। भारतीय महिला क्रिकेट टीम का गठन सन् १९७३ में हुआ और इस टीम ने अपना पहला टेस्ट मैच १९७६/७७ में खेला, जिसमें वेस्ट इंडीज़ के साथ प्रतियोगिता ड्रॊ हुई थी। पिछले विश्वकप में अच्छा प्रदर्शन करते हुए भारत फ़ाइनल तक पहुँचा, लेकिन ऒस्ट्रेलिया पर जीत न हासिल कर पायी। साल २००६ में भारतीय महिला क्रिकेट टीम ने इंगलैण्ड का दौरा किया जहाँ पर टेस्ट सीरीज़ १-० से अपने नाम किया, टी-२० जीता, लेकिन एक दिवसीय शृंखला ४-० से हार गयी। टीम की कप्तानी की झूलन गोस्वामी ने। ICC ने महिला क्रिकेट को बढ़ावा देने के लिए 'वीमेन्स क्रिकेट एसोसिएशन ऒफ़ इण्डिया' को 'भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड' (BCCI

एक मैं और एक तू, दोनों मिले इस तरह....ये था प्यार का नटखट अंदाज़ सत्तर के दशक का

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 558/2010/258 'ए क मैं और एक तू' - 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस लघु शृंखला की आठवीं कड़ी में आज एक और ७० के दशक का गीत पेश-ए-ख़िदमत है। दोस्तों, फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर की गायक-गायिका जोड़ियों में जिन चार जोड़ियों का नाम लोकप्रियता के पयमाने पर सब से उपर आते हैं, वो हैं लता-किशोर, लता-रफ़ी, आशा-किशोर और आशा-रफ़ी। ७० के दशक में इन चार जोड़ियों ने एक से एक हिट डुएट हमें दिए हैं। कल के लता-रफ़ी के गाये गीत के बाद आज आइए आशा-किशोर की जोड़ी के नाम किया जाये यह अंक। और ऐसे में फ़िल्म 'खेल खेल में' के उस गीत से बेहतर गीत और कौन सा हो सकता है, जिसके मुखड़े के बोलों से ही इस शृंखला का नाम है! "एक मैं और एक तू, दोनों मिले इस तरह, और जो तन मन में हो रहा है, ये तो होना ही था"। नये अंदाज़ में बने इस गीत ने इस क़दर लोकप्रियता हासिल की कि जवाँ दिलों की धड़कन बन गया था यह गीत और आज भी बना हुआ है। उस समय ऋषी कपूर और नीतू सिंह की कामयाब जोड़ी बनी थी और एक के बाद एक कई फ़िल्में इस जोड़ी के बने। 'खेल खेल में' १९७५ में बनी थी जिसका निर्देशन किया

दुःख भरे दिन बीते रे भैया अब सुख आयो रे.....एक क्लास्सिक फिल्म का गीत जिसके निर्देशक थे महबूब खान

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 539/2010/239 म हबूब ख़ान की फ़िल्मी यात्रा पर केन्द्रित इन दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की लघु शृंखला 'हिंदी सिनेमा के लौह स्तंभ' का दूसरा खण्ड आप पढ़ और सुन रहे हैं। इस खण्ड की आज चौथी कड़ी में हम रुख़ कर रहे हैं महबूब साहब के ५० के दशक में बनीं फ़िल्मों की तरफ़। वैसे पिछले तीन कड़ियों में हमने गानें ५० के दशक के ही सुनवाए हैं, जानकारी भी दी है, लेकिन महबूब साहब के फ़िल्मी सफ़र के ३० और ४० के दशक के महत्वपूर्ण फ़िल्मों का ज़िक्र किया है। आइए आज की कड़ी में उनकी बनाई ५० के दशक की फ़िल्मों को और थोड़े करीब से देखा जाए। इस दशक में उनकी बनाई तीन मीलस्तंभ फ़िल्में हैं - 'आन', 'अमर' और 'मदर इण्डिया'। 'आन' १९५२ की सफलतम फ़िल्मों में से थी, जिसे भारत के पहले टेक्नो-कलर फ़िल्म होने का गौरव प्राप्त है। दिलीप कुमार, निम्मी और नादिर अभिनीत इस ग्लैमरस कॊस्ट्युम ड्रामा में दिखाये गये आलिशान राज-पाठ और युद्ध के दृष्य लोगों के दिलों को जीत लिया। 'आन' बम्बई के रॊयल सिनेमा में रिलीस की गयी थी । इस फ़िल्म के सुपरहिट संगीत के लिए न

पिया पिया मोरा जिया पुकारे...जब किशोर दा ने खूबसूरती से छुपाया आशा की गलती को

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 512/2010/212 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' पर कल से हमने शुरु की है लघु शृंखला 'गीत गड़बड़ी वाले', जिसके तहत हम कुछ ऐसे गानें सुन रहे हैं जिनमें किसी ना किसी तरह की गड़बड़ी हुई है, या कोई त्रुटी, कोई कमी रह गई है। कल इसकी पहली कड़ी में आपने सुना कि किस तरह से सहगल साहब ने अमीरबाई की लाइन पर ग़लती से गा उठे और गाते गाते चुप हो गए। बिल्कुल इसी तरह की ग़लती एक बार गायिका आशा भोसले ने भी की थी किशोर कुमार के साथ गाए एक युगल गीत में, जिसमें वो किशोर दा की लाइन पर गा उठीं थीं और गाते गाते रह गयीं। आशा जी की इस ग़लती को किशोर कुमार ने किस तरह से क्लवर अप कर गाने को और भी ज़्यादा लोकप्रिय बना दिया, इसके बारे में हम आपको बताएँगे, लेकिन उससे पहले आपको यह तो बता दें कि यह गीत है १९५५ की फ़िल्म 'बाप रे बाप' का, "पिया पिया पिया मेरा जिया पुकारे, हम भी चलेंगे सइयाँ संग तुम्हारे"। जाँनिसार अख़्तर के बोल और ओ. पी. नय्यर साहब का संगीत। नय्यर साहब के ज़्यादातर डुएट्स आशा और रफ़ी के गाये हुए हैं, लेकिन आशा - किशोर के गाये इस गीत की लोकप्रियता अपनी जगह है। इसस

ये क्या जगह है दोस्तों.....शहरयार, खय्याम और आशा की तिकड़ी और उस पर रेखा की अदाकारी - बेमिसाल

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 452/2010/152 'से हरा में रात फूलों की' - ८० के दशक की कुछ यादगार ग़ज़लों की इस लघु शृंखला की दूसरी कड़ी में आप सभी का स्वागत है। जैसा कि कल हमने कहा था कि इस शृंखला में हम दस अलग अलग शायरों के क़लाम पेश करेंगे। कल हसरत साहब की लिखी ग़ज़ल आपने सुनी, आज हम एक बार फिर से सन् १९८१ की ही एक बेहद मक़बूल और कालजयी फ़िल्म की ग़ज़ल सुनने जा रहे हैं। यह वह फ़िल्म है दोस्तों जो अभिनेत्री रेखा के करीयर की सब से महत्वपूर्ण फ़िल्म साबित हुई। और सिर्फ़ रेखा ही क्यों, इस फ़िल्म से जुड़े सभी कलाकारों के लिए यह एक माइलस्टोन फ़िल्म रही। अब आपको फ़िल्म 'उमरावजान' के बारे में नई बात और क्या बताएँ! इस फ़िल्म के सभी पक्षों से आप भली भाँति वाक़ीफ़ हैं। और इस फ़िल्म में शामिल होने वाले मुजरों और ग़ज़लों के तो कहने ही क्या! आशा भोसले की गाई हुई ग़ज़लों में किसे किससे उपर रखें समझ नहीं आता। "दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिए" या फिर "इन आँखों की मस्ती के", या "जुस्तजू जिसकी थी उसको तो ना पाया हमने" या फिर "ये क्या जगह है दोस्तों"। ए

बरसे फुहार....गुलज़ार साहब के ट्रेड मार्क शब्द और खय्याम साहब का सुहाना संगीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 437/2010/137 'रि मझिम के तराने' शृंखला की आज है आठवीं कड़ी। दोस्तों, हमने इस बात का ज़िक्र तो नहीं किया था, लेकिन हो सकता है कि शायद आप ने ध्यान दिया हो, कि इस शृंखला में हम बारिश के १० गीत सुनवा रहे हैं जिन्हे १० अलग अलग संगीतकारों ने स्वरबद्ध किए हैं। अब तक हमने जिन संगीतकारों को शामिल किया, वो हैं कमल दासगुप्ता, वसंत देसाई, शंकर जयकिशन, हेमन्त कुमार, सचिन देव बर्मन, रवीन्द्र जैन, और राहुल देव बर्मन। आज जिस संगीतकार की बारी है, वह एक बेहद सुरीले और गुणी संगीतकार हैं, जिनकी धुनें हमें एक अजीब सी शांति और सुकून प्रदान करती हैं। एक सुकून दायक ठहराव है जिनके संगीत में। उनके गीतों में ना अनर्थक साज़ों की भीड़ है, और ना ही बोलों में कोई सस्तापन। जी हाँ, हम बात कर रहे हैं ख़य्याम साहब की। आज की कड़ी में सुनिए आशा भोसले की आवाज़ में सन्‍ १९८० की फ़िल्म 'थोड़ी सी बेवफ़ाई' का रिमझिम बरसता गीत "बरसे फुहार, कांच की जैसी बूंदें बरसे जैसे, बरसे फुहार"। गुलज़ार साहब का लिखा हुआ गीत है। इस फ़िल्म के दूसरे गानें भी काफ़ी मशहूर हुए थे, मसलन लता-किशोर

"धड़क धड़क तेरे बिन मेरा जियरा" - दो नामी गायिकाएँ लेकिन उनकी दुर्लभ जोड़ी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 420/2010/120 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' में हम पिछले नौ दिनों से सुन रहे हैं दुर्लभ गीतों से सजी लघु शृंखला 'दुर्लभ दस'। इन गीतों को सुनते हुए आपने महसूस किया होगा कि ये सभी बेहद कमचर्चित फ़िल्मों के गानें हैं। बस 'बिलवा मंगल' को छोड़ कर बाकी सभी फ़िल्में बॊक्स ऒफ़िस पर असफल रहीं, जिनमें अधिकतर धार्मिक और स्टण्ट फ़िल्में हैं। आपने यह भी महसूस किया होगा कि इन गीतों के गायक भी कमचर्चित गायकों में से ही थे। लेकिन आज इस शृंखला की दसवीं और अंतिम कड़ी के लिए हमने जिस गीत को चुना है, वह गीत है तो दुर्लभ और भूला बिसरा, लेकिन इसमें दो ऐसी आवाज़ें शामिल हैं जिन्होने अपार शोहरत व सफलता हासिल की है अपने अपने करीयर में। इन दोनों गायिकाओं ने असंख्य लोकप्रिय गीत हमें दिए हैं, जिनकी फ़ेहरिस्त इतनी लम्बी है कि अगर हिसाब लगाने बैठें तो न जाने कितने दिन गुज़र जाएँगे। लेकिन अगर आपसे हम यह कहें कि इन दोनों गायिकाओं के साथ में गाए हुए गीतों के बारे में बताइए, तो शायद आप झट से कोई गीत याद ही न कर पाएँ। तभी तो यह जोड़ी एक दुर्लभ जोड़ी है और आज के कड़ी की शान है यह जोड़ी।

फ़िल्मी गीतों के सुन्दर फिल्मांकन में उनकी लोकेशन की भी अहम भूमिका रही है फिर चाहे वो देसी हो या विदेशी

ओल्ड इस गोल्ड /रिवाइवल # १९ १९६४ शक्ति सामंत के फ़िल्मी सफ़र का एक महत्वपूर्ण साल रहा क्युंकि इसी साल आयी थी फ़िल्म 'कश्मीर की कली'। शम्मी कपूर और शर्मिला टैगोर अभिनीत इस फ़िल्म ने उनके पहले की सभी फ़िल्मों को पीछे छोड़ दिया था कामयाबी की दृष्टि से। इस फ़िल्म में शक्तिदा ने पहली बार शर्मिला टैगोर को हिंदी फ़िल्मों में ले आये थे। हुआ यह था कि शक्तिदा एक बार किसी बंगला पत्रिका में शर्मिला की तस्वीर देख ली थी और वो उन्हे पसंद आ गयी। शक्तिदा ने उनके पिताजी को फोन किया और उनके पिताजी ने यह भी कहा कि अगर कहानी अच्छी है तो उनकी बेटी ज़रूर काम करेगी। बस फिर क्या था, तीन फ़िल्म वितरकों को साथ में लेकर शक्तिदा शर्मिला से मिलने उनके घर जा पहुँचे। उन फ़िल्म वितरकों को शर्मिला कुछ ख़ास नहीं लगी, लेकिन शक्तिदा को अपनी पसंद पर पूरा विश्वास था और उन्हे अपने फ़िल्म के लिए चुन लिया। फ़िल्म की शूटिंग शुरु हुई और पहले ही दिन शर्मिला का शम्मी कपूर और शक्तिदा से अच्छी दोस्ती हो गई। फ़िल्म की पूरी युनिट कश्मीर पहुंची और उनका डल झील के ७ या ८ 'हाउस बोट्स' में ठहरने का इंतज़ाम हुआ। युनिट के ब