कल 27 अगस्त फ़िल्म जगत की दो महान हस्तियों की पुण्यतिथि है। सदाबहार फ़िल्मों के सुप्रसिद्ध निर्देशक और निर्माता ॠषिकेश मुखर्जी, तथा सुनहरे दौर के महान पार्श्वगायक मुकेश, दोनों ने इस फ़ानी दुनिया को अलविदा कहा था 27 अगस्त के दिन; मुकेश 1976 में और ऋषी दा 2006 में। अपनी अपनी विधा के इन दो महान कलाकारों को एक साथ याद करने के लिए आज के ’चित्रकथा’ में प्रस्तुत है उन गीतों की बातें जिन्हें मुकेश ने ॠषिकेश मुखर्जी की फ़िल्मों में गाया है। आज के ’चित्रकथा’ का यह अंक समर्पित है इन दो महान फ़नकारों की याद को।
30 सितंबर 1922 को जन्मे ॠषिकेश मुखर्जी ने अपने पूरे फ़िल्मी सफ़र में 42 फ़िल्में निर्देशित की और कई फ़िल्मों का निर्माण भी किया। 40 के दशक के अन्त में कलकत्ता में बी. एन. सरकार के ’न्यु थिएटर्स’ में एक कैमरामैन के रूप में अपना फ़िल्मी सफ़र शुरु करने के बाद वो बम्बई चले आए और बिमल रॉय के साथ फ़िल्म एडिटर व सहायक निर्देशक के रूप में अपना नया सफ़र शुरु किया। बिमल रॉय की कालजयी फ़िल्मों, ’दो बिघा ज़मीन’ और ’देवदास’, में ऋषी दा का भी महत्वपूर्ण योगदान था। 1957 में ऋषी दा ने स्वतन्त्र रूप से अपनी पहली फ़िल्म ’मुसाफ़िर’ का निर्माण व निर्देशन किया। फ़िल्म तो कुछ ख़ास नहीं चली पर फ़िल्म निर्माण में उनकी दक्षता को सब ने देखा और स्वीकारा। नतीजा यह हुआ कि 1959 की बी. लछमन की फ़िल्म ’अनाड़ी’ को निर्देशित करने का मौका उन्हें मिल गया। राज कपूर - नूतन अभिनीत यह फ़िल्म ज़बरदस्त हिट हुई। उधर गायक मुकेश राज कपूर का स्क्रीन वॉयस थे और इस फ़िल्म से मुकेश और ऋषी दा का साथ भी शुरु हुआ। और मज़े की बात देखिए कि इसी फ़िल्म के गीत "सबकुछ सीखा हमने ना सीखी होशियारी" के लिए मुकेश को अपना पहला फ़िल्मफ़ेअर अवार्ड मिला। और उधर ऋषी दा को भी इस फ़िल्म के लिए राष्ट्रीय पुरस्कारों के तहत माननीय राष्ट्रपति के हाथों रजत मेडल मिला। इस फ़िल्म में मुकेश के गाए तीन गीत थे। शीर्षक गीत का उल्लेख कर चुके हैं, अन्य दो गीत हैं "किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार... जीना इसी का नाम है" और लता मंगेशकर के साथ गाया "दिल की नज़र से, नज़रों की दिल से..."। शंकर-जयकिशन के संगीत में शैलेन्द्र के सहज-सरल शब्दों में लिखे ये सभी गीत आज कालजयी बन चुके हैं। फ़िल्म-संगीत के इतिहास में ये गीत मील के पत्थर की तरह हैं और मुकेश के गाए गीतों में ये अहम जगह रखते हैं।
’अनाड़ी’ के बाद मुकेश और ऋषिकेश मुखर्जी का एक बार फिर साथ हुआ 1961 की ऋषी दा निर्मित व निर्देशित फ़िल्म ’मेम दीदी’ में। फ़िल्म के संगीतकार थे सलिल चौधरी और गीत लिखे एक बार फिर शैलेन्द्र ने। सलिल दा के संगीत में मुकेश ने समय-समय पर एक से बढ़ कर एक गीत गाए हैं जिनमें से कई गीत ऋषी दा की फ़िल्मों के लिए हैं। ’मेम दीदी’ मुकेश-सलिल-ऋषी की तिकड़ी की पहली फ़िल्म है। इस फ़िल्म में कुल छह गीत हैं, लेकिन मुकेश की आवाज़ बस एक ही गीत में है लता मंगेशकर के साथ "मैं जानती हूँ तुम झूठ बोलते हो..."। केसी मेहरा और तनुजा पर फ़िल्माया यह गीत ज़्यादा लोकप्रिय नहीं हुआ, इसकी वजह शायद फ़िल्म का फ़्लॉप होना है। लेकिन इसी साल ए. वी. मय्यप्पम निर्मित और ऋषीकेश मुखर्जी निर्देशित फ़िल्म आई ’छाया’ जिसके गीतों ने लोकप्रियता की सारी सीमाएँ पार कर दी। सलिल चौधरी के संगीत में राजेन्द्र कृष्ण के लिखे गीत हर रेडियो स्टेशन से बजने लगे। हालाँकि लता और तलत महमूद का गाया "इतना ना मुझसे तू प्यार बढ़ा" फ़िल्म का सर्वाधिक लोकप्रिय गीत रहा, पर लता और मुकेश का गाया "दिल से दिल की डोर बांधे चोरी चोरी जाने हम तुम तुम हम संग संग चले आज कहाँ" भी ख़ूब सुना गया। इस गीत की धुन पर बनने वाला मूल बांग्ला गीत "दुरन्तो गुर्निर एइ लेगेछे पाक" हेमन्त मुखर्जी (हेमन्त कुमार) ने गाया था।
1962 में ऋषि दा को विजय किशोर दुबे व बनी रिउबेन निर्मित फ़िल्म ’आशिक़’ को निर्देशित करने का मौक़ा मिला। राज कपूर, पद्मिनी और नन्दा अभिनीत इस फ़िल्म के गीत-संगीत का भार शैलेन्द्र-हसरत-शंकर-जयकिशन पर था। लता और मुकेश ने फ़िल्म के गीतों को अंजाम दिया जो बेहद चर्चित हुए। मुकेश की एकल आवाज़ में कुल चार गीत थे - "तुम जो हमारे मीत न होते, गीत ये मेरे गीत न होते", "तुम आज मेरे संग हँस लो", "ये तो कहो कौन हो तुम", और फ़िल्म का शीर्षक गीत "मैं आशिक़ हूँ बहारों का, फ़िज़ाओं का, नज़ारों का..."। और लता मंगेशकर के साथ इस फ़िल्म में मुकेश के गाए दो गीत थे - "ओ शमा मुझे फूंक दे" और "महताब तेरा चेहरा किस ख़्वाब में देखा था"। ये सभी गीत अपने ज़माने के मशहूर नग़में रहे हैं और आज भी आए दिन रेडियो पर सुनने को मिल जाते हैं। इस फ़िल्म के बाद ऋषी दा और मुकेश जी का साथ कई बरसों के बाद हुआ। 1966 की फ़िल्म ’बीवी और मकान’ का निर्माण किया था गायक-संगीतकार हेमन्त कुमार ने। ज़ाहिर सी बात है कि फ़िल्म का संगीत उन्होंने स्वयम् ही तैयार किया तथा फ़िल्म के निर्देशन के लिए ऋषीकेश मुखर्जी को साइन किया और फ़िल्म में गीत लिखवाए नवोदित गीतकार गुलज़ार से। फ़िल्म में कुल ग्यारह गीत थे और फ़िल्म के चरित्रों को ध्यान में रखते हुए कई गायक-गायिकाओं ने फ़िल्म के गीत गाए। मुकेश की आवाज़ फ़िल्म के दो गीत में थी। पहला गीत है "अनहोनी बात थी हो गई है, बस मुझको मोहब्बत हो गई है", इसमें मुकेश के साथ तलत महमूद, मन्ना डे, हेमन्त कुमार और जोगिन्दर की आवाज़ें भी शामिल हैं। यह एक हास्य गीत है जिसमें मुकेश ने आशिष कुमार का प्लेबैक किया है और मन्ना डे ने महमूद का। औरत बने बिस्वजीत और बद्री प्रसाद का पार्श्वगायन किया जोगिन्दर और हेमन्त कुमार ने। मुकेश इसमें अपने पहले गीत "दिल जलता है तो जलने दो" की लाइन भी गाई। और दूसरा गीत भी एक हास्य गीत है "आ था जब जनम लिया था पी होके मर गई" जिसमें मुकेश, हेमन्त कुमार और मन्ना डे की आवाज़ें हैं। समय के साथ-साथ फ़िल्मों और फ़िल्म-संगीत की धाराएँ भी बदलीं और नई नई धाराएँ इसमें मिलती चली गईं। 60 के दशक के अन्तिम सालों में संगीतकार लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल तेज़ी से उपर चढ़ रहे थे। 1969 की ऋषीकेश मुखर्जी निर्देशित फ़िल्म ’सत्यकाम’ में एल.पी का संगीत था और फ़िल्म के तीनों गीत लिखे कैफ़ी आज़मी ने। दो गीत लता की एकल आवाज़ में और तीसरा गीत है मुकेश, किशोर कुमार और महेन्द्र कपूर की आवाज़ों में एक जीवन दर्शन आधारित ख़ुशमिज़ाज गीत जिसे बस में सवार दोस्तों की टोली गाता है। "ज़िन्दगी है क्या बोलो" गीत में धर्मेन्द्र का पार्श्वगायन किया है मुकेश ने जबकि किशोर कुमार बने असरानी की आवाज़। महेन्द्र कपूर ने अन्य कलाकारों का प्लेबैक दिया।
1971, ऋषि दा के करीअर का शायद सबसे महत्वपूर्ण फ़िल्म, ’आनन्द’। ऋषी दा द्वारा निर्मित व निर्देशित ’आनन्द’ ने इतिहास रचा तथा राजेश खन्ना व अमिताभ बच्चन के फ़िल्मी सफ़र के भी मील के पत्थर सिद्ध हुए। फ़िल्म के सभी चार गीत सदाबहार नग़में हैं; मुकेश के गाए दो गीत "कहीं दूर जब दिन ढल जाए" (योगेश) और "मैंने तेरे लिए ही सात रंग के सपने चुने" (गुलज़ार) उनके गाए 70 के दशक की दो बेहद महत्वपूर्ण रचनाएँ हैं। "कहीं दूर जब दिन ढल जाये, सांझ की दुल्हन बदन चुराये, चुपके से आये, मेरे ख़यालों के आंगन में कोई सपनों के दीप जलाये, दीप जलाये" - योगेश, सलिल चौधरी और मुकेश की तिकड़ी ने कई बार साथ में अच्छा काम किया है, पर शायद यह गीत इस तिकड़ी की सबसे लोकप्रिय रचना है। इस गीत से जुड़ा सबसे रोचक तथ्य यह है कि यह गीत इस सिचुएशन के लिए तो क्या बल्कि इस फ़िल्म तक के लिए नहीं लिखा गया था, लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि इस गीत में फ़िल्म 'आनन्द' का पूरा सार छुपा हुआ है। इस गीत को गाने वाला आनन्द नाम का युवक यह जानता है कि मौत उसके घर के दरवाज़े पर दस्तक देने ही वाला है, आज नहीं तो बहुत जल्द, और दुनिया की कोई भी दवा उसे नहीं बचा सकती। फिर भी वो अपनी बची-खुची ज़िन्दगी का हर एक दिन, हर एक लम्हा पूरे जोश और उल्लास के साथ जीना चाहता है, और उसके आसपास के लोगों में भी ख़ुशियाँ लुटाना चाहता है। आनन्द अपनी प्रेमिका के जीवन से बाहर निकल जाता है क्योंकि वो नहीं चाहता कि उसकी मौत के बाद वो रोये। मौत के इतने नज़दीक होकर भी अपनों के प्रति प्यार लुटाना और आसपास के नये लोगों से उसकी दोस्ती को दर्शाता है "कहीं दूर जब दिन ढल जाये"। इस गीत के बोलों को पहली बार सुनते हुए समझ पाना बेहद मुश्किल है। हर एक पंक्ति, हर एक शब्द अपने आप में गहरा भाव छुपाये हुए है, और गीत को बार-बार सुनने पर ही इसके तह तक पहुँचा जा सकता है। यह गीत दरसल 1972 की फ़िल्म 'अन्नदाता' के लिए योगेश ने लिखा था। 'अन्नदाता' के निर्माता थे एल. बी. लछमन। 'अन्नदाता' के संगीतकार सलिल दा ही थे। एक दिन सलिल दा के यहाँ फ़िल्म 'अन्नदाता' के लिए इसी गीत की सिटिंग् हो रही थी। एल. बी. लछमन, योगेश, सलिल चौधरी और मुकेश मौजूद थे। उसी दिन वहाँ फ़िल्म 'आनन्द' के लिए भी सिटिंग् होनी थी। पहली सिटिंग् चल ही रही थी कि 'आनन्द' की टीम आ पहुँची। निर्माता-निर्देशक ॠषिकेश मुखर्जी तो थे ही, साथ में राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन भी। जैसे ही इन तीनों ने यह गीत सुना, गीत इन्हें पसन्द आ गई। ऋषी दा ने लछमन साहब का हाथ पकड़ कर कहा कि यह गीत आप मुझे दे दीजिए! लछमन जी तो चौंक गए कि ये यह क्या माँग रहे हैं। अपनी फ़िल्म के लिए बन रहा गीत किसी अन्य निर्माता तो वो कैसे दे देते? उन्होंने ऋषी दा को मना कर दिया और माफ़ी माँग ली। पर ऋषी दा और राजेश खन्ना आसानी से कहाँ छोड़ने वाले थे? वो अनुरोध करते रहे, करते ही रहे। ऋषी दा ने यह भी कहा कि इस गीत के बोल उनकी फ़िल्म 'आनन्द' के एक सिचुएशन के लिए बिल्कुल सटीक है। इतने अनुनय विनय को देख कर न चाहते हुए भी लछमन जी ने कहा कि पहले आप मुझे वह सिचुएशन समझाइये जिसके लिए आप इस गीत को लेना चाहते हैं, अगर मुझे ठीक लगा तो ही मैं यह गीत आपको दे दूँगा। ऋषी दा ने इतनी सुन्दरता से सिचुएशन को लछमन साहब की आँखों के सामने उतारा कि लछमन जी काबू हो गये और उन्होंने यह गीत ऋषी दा को दे दी यह कहते हुए कि वाकई यह गीत आप ही की फ़िल्म में होनी चाहिए। यह बहुत बड़ी बात थी। दो निर्माताओं के बीच में साधारणत: प्रतियोगिता रहती है, ऐसे में लछमन साहब का ऋषी दा को अपना इतना सुन्दर गीत दे देना वाकई उनका बड़प्पन था। गीत तो 'अन्नदाता' की झोली से निकल कर 'आनन्द' की झोली में आ गया, पर लछमन साहब ने भी योगेश और सलिल चौधरी के सामने यह शर्त रख दी कि बिल्कुल ऐसा ही एक ख़ूबसूरत गीत वो 'अन्न्दाता' के लिए भी दोबारा लिख दें। कुछ-कुछ इसी भाव को बरकरार रखते हुए योगेश ने फ़िल्म 'अन्नदाता' के लिए फिर से गीत लिखा - "नैन हमारे सांझ सकारे, देखें लाखों सपने, सच ये कहीं होंगे या नहीं, कोई जाने ना, कोई जाने ना, यहाँ"। इन दोनों गीतों के भावों का अगर तुलनात्मक विश्लेषण किया जाये तो दोनों में समानता महसूस की जा सकती है।
’आनन्द’ के बाद मुकेश और ऋषी दा का अगला साथ हुआ 1974 की फ़िल्म ’फिर कब मिलोगी’ में जिसमें संगीतकार थे राहुल देव बर्मन। इस फ़िल्म में मुकेश ने बस एक गीत गाया लता के साथ "कहीं करती होगी वो मेरा इन्तज़ार..."। यह फ़िल्म फ़्लॉप थी और फ़िल्म के अन्य गीत भी ख़ास नहीं चले, पर इस गीत को काफ़ी मक़बूलियत मिली और आगे चल कर इस गीत का गायिका अनामिका ने रीमिक्स वर्ज़न भी बनाया और यह रीमिक्स वर्ज़न भी हिट हुआ। 1975 में ऋषी दा ने ’चुपके चुपके’ फ़िल्म का निर्माण किया। इसमें उन्होंने संगीत का भार सचिन देव बर्मन को दिया। फ़िल्म के कुल चार गीतों में एक गीत मुकेश और लता की युगल स्वरों में था - "बाग़ों में कैसे ये फूल खिलते हैं" जो धर्मेन्द्र और शर्मिला टैगोर पर फ़िल्माया गया था। 1976 में अचानक मुकेश की मृत्यु हो जाने से ऋषीकेश मुखर्जी की आने वाली फ़िल्मों से उनके गीत ग़ायब हो गए। लेकिन एक गीत जो पहले रेकॉर्ड हो चुका था, उसे 1978 की फ़िल्म ’नौकरी’ में शामिल किया गया और फ़िल्म की नामावली में "लेट मुकेश" लिखा गया। फ़िल्म के नायक थे राजेश खन्ना जिनका प्लेबैक दिया किशोर कुमार ने जबकि राज कपूर का प्लेबैक दिया मुकेश ने, शायद आख़िरी बार के लिए। आश्चर्य की बात है कि इस अन्तिम गीत का मुखड़ा था "उपर जाकर याद आई नीचे की बातें, होठों पे आई दिल के पीछे की बातें"। गीत को सुनते हुए ऐसा लगता है कि जैसे मुकेश उपर जा कर अपने अज़ीम दोस्त राज कपूर के लिए यह गीत गा रहे हैं, और परदे पर भी इसे राज कपूर ही अदा कर रहे हैं। इसी गीत के साथ मुकेश का साथ राज कपूर और ऋषीकेश मुखर्जी से ख़त्म होता है। कल 27 अगस्त, मुकेश और ऋषीकेश मुखर्जी की याद का दिन है, और यह दिन हमें याद दिलाती है उन तमाम गीतों की जो इन दोनों के संगम से उत्पन्न हुई थी। मुकेश और ऋषीकेश मुखर्जी को सलाम करती है ’रेडियो प्लेबैक इंडिया’।
’अनाड़ी’ के बाद मुकेश और ऋषिकेश मुखर्जी का एक बार फिर साथ हुआ 1961 की ऋषी दा निर्मित व निर्देशित फ़िल्म ’मेम दीदी’ में। फ़िल्म के संगीतकार थे सलिल चौधरी और गीत लिखे एक बार फिर शैलेन्द्र ने। सलिल दा के संगीत में मुकेश ने समय-समय पर एक से बढ़ कर एक गीत गाए हैं जिनमें से कई गीत ऋषी दा की फ़िल्मों के लिए हैं। ’मेम दीदी’ मुकेश-सलिल-ऋषी की तिकड़ी की पहली फ़िल्म है। इस फ़िल्म में कुल छह गीत हैं, लेकिन मुकेश की आवाज़ बस एक ही गीत में है लता मंगेशकर के साथ "मैं जानती हूँ तुम झूठ बोलते हो..."। केसी मेहरा और तनुजा पर फ़िल्माया यह गीत ज़्यादा लोकप्रिय नहीं हुआ, इसकी वजह शायद फ़िल्म का फ़्लॉप होना है। लेकिन इसी साल ए. वी. मय्यप्पम निर्मित और ऋषीकेश मुखर्जी निर्देशित फ़िल्म आई ’छाया’ जिसके गीतों ने लोकप्रियता की सारी सीमाएँ पार कर दी। सलिल चौधरी के संगीत में राजेन्द्र कृष्ण के लिखे गीत हर रेडियो स्टेशन से बजने लगे। हालाँकि लता और तलत महमूद का गाया "इतना ना मुझसे तू प्यार बढ़ा" फ़िल्म का सर्वाधिक लोकप्रिय गीत रहा, पर लता और मुकेश का गाया "दिल से दिल की डोर बांधे चोरी चोरी जाने हम तुम तुम हम संग संग चले आज कहाँ" भी ख़ूब सुना गया। इस गीत की धुन पर बनने वाला मूल बांग्ला गीत "दुरन्तो गुर्निर एइ लेगेछे पाक" हेमन्त मुखर्जी (हेमन्त कुमार) ने गाया था।
1962 में ऋषि दा को विजय किशोर दुबे व बनी रिउबेन निर्मित फ़िल्म ’आशिक़’ को निर्देशित करने का मौक़ा मिला। राज कपूर, पद्मिनी और नन्दा अभिनीत इस फ़िल्म के गीत-संगीत का भार शैलेन्द्र-हसरत-शंकर-जयकिशन पर था। लता और मुकेश ने फ़िल्म के गीतों को अंजाम दिया जो बेहद चर्चित हुए। मुकेश की एकल आवाज़ में कुल चार गीत थे - "तुम जो हमारे मीत न होते, गीत ये मेरे गीत न होते", "तुम आज मेरे संग हँस लो", "ये तो कहो कौन हो तुम", और फ़िल्म का शीर्षक गीत "मैं आशिक़ हूँ बहारों का, फ़िज़ाओं का, नज़ारों का..."। और लता मंगेशकर के साथ इस फ़िल्म में मुकेश के गाए दो गीत थे - "ओ शमा मुझे फूंक दे" और "महताब तेरा चेहरा किस ख़्वाब में देखा था"। ये सभी गीत अपने ज़माने के मशहूर नग़में रहे हैं और आज भी आए दिन रेडियो पर सुनने को मिल जाते हैं। इस फ़िल्म के बाद ऋषी दा और मुकेश जी का साथ कई बरसों के बाद हुआ। 1966 की फ़िल्म ’बीवी और मकान’ का निर्माण किया था गायक-संगीतकार हेमन्त कुमार ने। ज़ाहिर सी बात है कि फ़िल्म का संगीत उन्होंने स्वयम् ही तैयार किया तथा फ़िल्म के निर्देशन के लिए ऋषीकेश मुखर्जी को साइन किया और फ़िल्म में गीत लिखवाए नवोदित गीतकार गुलज़ार से। फ़िल्म में कुल ग्यारह गीत थे और फ़िल्म के चरित्रों को ध्यान में रखते हुए कई गायक-गायिकाओं ने फ़िल्म के गीत गाए। मुकेश की आवाज़ फ़िल्म के दो गीत में थी। पहला गीत है "अनहोनी बात थी हो गई है, बस मुझको मोहब्बत हो गई है", इसमें मुकेश के साथ तलत महमूद, मन्ना डे, हेमन्त कुमार और जोगिन्दर की आवाज़ें भी शामिल हैं। यह एक हास्य गीत है जिसमें मुकेश ने आशिष कुमार का प्लेबैक किया है और मन्ना डे ने महमूद का। औरत बने बिस्वजीत और बद्री प्रसाद का पार्श्वगायन किया जोगिन्दर और हेमन्त कुमार ने। मुकेश इसमें अपने पहले गीत "दिल जलता है तो जलने दो" की लाइन भी गाई। और दूसरा गीत भी एक हास्य गीत है "आ था जब जनम लिया था पी होके मर गई" जिसमें मुकेश, हेमन्त कुमार और मन्ना डे की आवाज़ें हैं। समय के साथ-साथ फ़िल्मों और फ़िल्म-संगीत की धाराएँ भी बदलीं और नई नई धाराएँ इसमें मिलती चली गईं। 60 के दशक के अन्तिम सालों में संगीतकार लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल तेज़ी से उपर चढ़ रहे थे। 1969 की ऋषीकेश मुखर्जी निर्देशित फ़िल्म ’सत्यकाम’ में एल.पी का संगीत था और फ़िल्म के तीनों गीत लिखे कैफ़ी आज़मी ने। दो गीत लता की एकल आवाज़ में और तीसरा गीत है मुकेश, किशोर कुमार और महेन्द्र कपूर की आवाज़ों में एक जीवन दर्शन आधारित ख़ुशमिज़ाज गीत जिसे बस में सवार दोस्तों की टोली गाता है। "ज़िन्दगी है क्या बोलो" गीत में धर्मेन्द्र का पार्श्वगायन किया है मुकेश ने जबकि किशोर कुमार बने असरानी की आवाज़। महेन्द्र कपूर ने अन्य कलाकारों का प्लेबैक दिया।
1971, ऋषि दा के करीअर का शायद सबसे महत्वपूर्ण फ़िल्म, ’आनन्द’। ऋषी दा द्वारा निर्मित व निर्देशित ’आनन्द’ ने इतिहास रचा तथा राजेश खन्ना व अमिताभ बच्चन के फ़िल्मी सफ़र के भी मील के पत्थर सिद्ध हुए। फ़िल्म के सभी चार गीत सदाबहार नग़में हैं; मुकेश के गाए दो गीत "कहीं दूर जब दिन ढल जाए" (योगेश) और "मैंने तेरे लिए ही सात रंग के सपने चुने" (गुलज़ार) उनके गाए 70 के दशक की दो बेहद महत्वपूर्ण रचनाएँ हैं। "कहीं दूर जब दिन ढल जाये, सांझ की दुल्हन बदन चुराये, चुपके से आये, मेरे ख़यालों के आंगन में कोई सपनों के दीप जलाये, दीप जलाये" - योगेश, सलिल चौधरी और मुकेश की तिकड़ी ने कई बार साथ में अच्छा काम किया है, पर शायद यह गीत इस तिकड़ी की सबसे लोकप्रिय रचना है। इस गीत से जुड़ा सबसे रोचक तथ्य यह है कि यह गीत इस सिचुएशन के लिए तो क्या बल्कि इस फ़िल्म तक के लिए नहीं लिखा गया था, लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि इस गीत में फ़िल्म 'आनन्द' का पूरा सार छुपा हुआ है। इस गीत को गाने वाला आनन्द नाम का युवक यह जानता है कि मौत उसके घर के दरवाज़े पर दस्तक देने ही वाला है, आज नहीं तो बहुत जल्द, और दुनिया की कोई भी दवा उसे नहीं बचा सकती। फिर भी वो अपनी बची-खुची ज़िन्दगी का हर एक दिन, हर एक लम्हा पूरे जोश और उल्लास के साथ जीना चाहता है, और उसके आसपास के लोगों में भी ख़ुशियाँ लुटाना चाहता है। आनन्द अपनी प्रेमिका के जीवन से बाहर निकल जाता है क्योंकि वो नहीं चाहता कि उसकी मौत के बाद वो रोये। मौत के इतने नज़दीक होकर भी अपनों के प्रति प्यार लुटाना और आसपास के नये लोगों से उसकी दोस्ती को दर्शाता है "कहीं दूर जब दिन ढल जाये"। इस गीत के बोलों को पहली बार सुनते हुए समझ पाना बेहद मुश्किल है। हर एक पंक्ति, हर एक शब्द अपने आप में गहरा भाव छुपाये हुए है, और गीत को बार-बार सुनने पर ही इसके तह तक पहुँचा जा सकता है। यह गीत दरसल 1972 की फ़िल्म 'अन्नदाता' के लिए योगेश ने लिखा था। 'अन्नदाता' के निर्माता थे एल. बी. लछमन। 'अन्नदाता' के संगीतकार सलिल दा ही थे। एक दिन सलिल दा के यहाँ फ़िल्म 'अन्नदाता' के लिए इसी गीत की सिटिंग् हो रही थी। एल. बी. लछमन, योगेश, सलिल चौधरी और मुकेश मौजूद थे। उसी दिन वहाँ फ़िल्म 'आनन्द' के लिए भी सिटिंग् होनी थी। पहली सिटिंग् चल ही रही थी कि 'आनन्द' की टीम आ पहुँची। निर्माता-निर्देशक ॠषिकेश मुखर्जी तो थे ही, साथ में राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन भी। जैसे ही इन तीनों ने यह गीत सुना, गीत इन्हें पसन्द आ गई। ऋषी दा ने लछमन साहब का हाथ पकड़ कर कहा कि यह गीत आप मुझे दे दीजिए! लछमन जी तो चौंक गए कि ये यह क्या माँग रहे हैं। अपनी फ़िल्म के लिए बन रहा गीत किसी अन्य निर्माता तो वो कैसे दे देते? उन्होंने ऋषी दा को मना कर दिया और माफ़ी माँग ली। पर ऋषी दा और राजेश खन्ना आसानी से कहाँ छोड़ने वाले थे? वो अनुरोध करते रहे, करते ही रहे। ऋषी दा ने यह भी कहा कि इस गीत के बोल उनकी फ़िल्म 'आनन्द' के एक सिचुएशन के लिए बिल्कुल सटीक है। इतने अनुनय विनय को देख कर न चाहते हुए भी लछमन जी ने कहा कि पहले आप मुझे वह सिचुएशन समझाइये जिसके लिए आप इस गीत को लेना चाहते हैं, अगर मुझे ठीक लगा तो ही मैं यह गीत आपको दे दूँगा। ऋषी दा ने इतनी सुन्दरता से सिचुएशन को लछमन साहब की आँखों के सामने उतारा कि लछमन जी काबू हो गये और उन्होंने यह गीत ऋषी दा को दे दी यह कहते हुए कि वाकई यह गीत आप ही की फ़िल्म में होनी चाहिए। यह बहुत बड़ी बात थी। दो निर्माताओं के बीच में साधारणत: प्रतियोगिता रहती है, ऐसे में लछमन साहब का ऋषी दा को अपना इतना सुन्दर गीत दे देना वाकई उनका बड़प्पन था। गीत तो 'अन्नदाता' की झोली से निकल कर 'आनन्द' की झोली में आ गया, पर लछमन साहब ने भी योगेश और सलिल चौधरी के सामने यह शर्त रख दी कि बिल्कुल ऐसा ही एक ख़ूबसूरत गीत वो 'अन्न्दाता' के लिए भी दोबारा लिख दें। कुछ-कुछ इसी भाव को बरकरार रखते हुए योगेश ने फ़िल्म 'अन्नदाता' के लिए फिर से गीत लिखा - "नैन हमारे सांझ सकारे, देखें लाखों सपने, सच ये कहीं होंगे या नहीं, कोई जाने ना, कोई जाने ना, यहाँ"। इन दोनों गीतों के भावों का अगर तुलनात्मक विश्लेषण किया जाये तो दोनों में समानता महसूस की जा सकती है।
’आनन्द’ के बाद मुकेश और ऋषी दा का अगला साथ हुआ 1974 की फ़िल्म ’फिर कब मिलोगी’ में जिसमें संगीतकार थे राहुल देव बर्मन। इस फ़िल्म में मुकेश ने बस एक गीत गाया लता के साथ "कहीं करती होगी वो मेरा इन्तज़ार..."। यह फ़िल्म फ़्लॉप थी और फ़िल्म के अन्य गीत भी ख़ास नहीं चले, पर इस गीत को काफ़ी मक़बूलियत मिली और आगे चल कर इस गीत का गायिका अनामिका ने रीमिक्स वर्ज़न भी बनाया और यह रीमिक्स वर्ज़न भी हिट हुआ। 1975 में ऋषी दा ने ’चुपके चुपके’ फ़िल्म का निर्माण किया। इसमें उन्होंने संगीत का भार सचिन देव बर्मन को दिया। फ़िल्म के कुल चार गीतों में एक गीत मुकेश और लता की युगल स्वरों में था - "बाग़ों में कैसे ये फूल खिलते हैं" जो धर्मेन्द्र और शर्मिला टैगोर पर फ़िल्माया गया था। 1976 में अचानक मुकेश की मृत्यु हो जाने से ऋषीकेश मुखर्जी की आने वाली फ़िल्मों से उनके गीत ग़ायब हो गए। लेकिन एक गीत जो पहले रेकॉर्ड हो चुका था, उसे 1978 की फ़िल्म ’नौकरी’ में शामिल किया गया और फ़िल्म की नामावली में "लेट मुकेश" लिखा गया। फ़िल्म के नायक थे राजेश खन्ना जिनका प्लेबैक दिया किशोर कुमार ने जबकि राज कपूर का प्लेबैक दिया मुकेश ने, शायद आख़िरी बार के लिए। आश्चर्य की बात है कि इस अन्तिम गीत का मुखड़ा था "उपर जाकर याद आई नीचे की बातें, होठों पे आई दिल के पीछे की बातें"। गीत को सुनते हुए ऐसा लगता है कि जैसे मुकेश उपर जा कर अपने अज़ीम दोस्त राज कपूर के लिए यह गीत गा रहे हैं, और परदे पर भी इसे राज कपूर ही अदा कर रहे हैं। इसी गीत के साथ मुकेश का साथ राज कपूर और ऋषीकेश मुखर्जी से ख़त्म होता है। कल 27 अगस्त, मुकेश और ऋषीकेश मुखर्जी की याद का दिन है, और यह दिन हमें याद दिलाती है उन तमाम गीतों की जो इन दोनों के संगम से उत्पन्न हुई थी। मुकेश और ऋषीकेश मुखर्जी को सलाम करती है ’रेडियो प्लेबैक इंडिया’।
आख़िरी बात
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शोध,आलेख व प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी
प्रस्तुति सहयोग : कृष्णमोहन मिश्र
रेडियो प्लेबैक इण्डिया