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आपकी याद आती रही...."अलाव" में जलते दिल की कराह

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 718/2011/158 'ए क पल की उम्र लेकर ' - सजीव सारथी की लिखी कविताओं की इस शीर्षक से किताब में से चुनकर १० कविताओं पर आधारित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस लघु शृंखला की आठवीं कड़ी में आप सभी का स्वागत है। हमें आशा है कि अब तक इस शृंखला में प्रस्तुत कविताओं और गीतों का आपने भरपूर स्वाद चखा होगा। आज की कविता है ' अलाव '। तुम्हारी याद शबनम रात भर बरसती रही सर्द ठंडी रात थी मैं अलाव में जलता रहा सूखा बदन सुलगता रहा रूह तपती रही तुम्हारी याद शबनम रात भर बरसती रही शायद ये आख़िरी रात थी तुमसे ख़्वाबों में मिलने की जलकर ख़ाक हो गया हूँ बुझकर राख़ हो गया हूँ अब न रहेंगे ख़्वाब न याद न जज़्बात ही कोई इस सर्द ठंडी रात में इस अलाव में एक दिल भी बुझ गया है। बाहर सावन की फुहारें हैं, पर दिल में आग जल रही है। कमरे के कोने में दीये की लौ थरथरा रही है। पर ये लौ दीये की है या ग़म की समझ नहीं आ रहा। बाहर पेड़-पौधे, कीट-पतंगे, सब रिमझिम फुहारों में नृत्य कर रहे हैं, और यह क्या, मैं तो बिल्कुल सूखा हूँ अब तक। काश मैं भी अपने उस प्रिय जन के साथ भीग पाती! पर यह क्या, वह ल

कतरा कतरा मिलती है.....खुशी और दर्द के तमाम फूलों को समेट लेता है "वो" आकर

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 717/2011/157 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' स्तंभ के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय और सजीव का प्यार भरा नमस्कार! आज इस सुरीली महफ़िल की शमा जलाते हुए पेश कर रहे हैं सजीव सारथी की लिखी कविता ' वो '। लघु शृंखला ' एक पल की उम्र लेकर ' की यह है सातवीं कड़ी। समय की पृष्ठभूमि पर बदलते रहे चित्र कुछ चेहरे बने कुछ बुझ गए कुछ कदम साथ चले कुछ खो गए पर वो उसकी ख़ुशबू रही साथ सदा उसका साया साथ चला मेरे हमेशा टूटा कभी जब हौंसला और छूटे सारे सहारे उन थके से लम्हों में डूबी-डूबी तन्हाइयों में वो पास आकर ज़ख़्मों को सहलाता रहा उसके कंधों पर रखता हूँ सर तो बहने लगता है सारा गुबार आँखों से वो समेट लेता है मेरे सारे आँसू अपने दामन में फिर प्यार से काँधे पर रख कर हाथ कहता है - अभी हारना नहीं अभी हारना नहीं मगर उसकी उन नूर भरी चमकती मुस्कुराती आँखों में मैं देख लेता हूँ अपने दर्द का एक झिलमिलाता-सा कतरा। इसमें कोई शक़ नहीं कि उस एक इंसान की आँखों में ही अपनी परछाई दिखती है, अपना दर्द बस उसी की आँखों से बहता है। जिस झिलमिलाते कतरे की बात कवि नें उपर कविता की अंतिम पंक्ति में

तेरे पास आके मेरा वक्त गुजर जाता है ...."लम्स तुम्हारा" यूं मुझमें ठहर जाता है

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 716/2011/156 आ ज रविवार की शाम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक नए सप्ताह के साथ हम हाज़िर हैं, नमस्कार! पिछले हफ़्ते आपनें सजीव सारथी की लिखी कविताओं की किताब ' एक पल की उम्र लेकर ' से चुन कर पाँच कविताओं पर आधारित पाँच फ़िल्मी गीत सुनें, इस हफ़्ते पाँच और कविताओं तथा पाँच और गीतों को लेकर हम तैयार हैं। तो स्वागत है आप सभी का, लघु शृंखला 'एक पल की उम्र लेकर' की छठी कड़ी में। इस कड़ी के लिए हमने चुनी है कविता ' लम्स तुम्हारा '। उस एक लम्हे में जिसे मिलता है लम्स तुम्हारा दुनिया सँवर जाती है मेरे आस-पास धूप छूकर गुज़रती है किनारों से और जिस्म भर जाता है एक सुरीला उजास बादल सर पर छाँव बन कर आता है और नदी धो जाती है पैरों का गर्द सारा हवा उड़ा ले जाती है पैरहन और कर जाती है मुझे बेपर्दा खरे सोने सा, जैसा गया था रचा उस एक लम्हे में जिसे मिलता है लम्स तुम्हारा कितना कुछ बदल जाता है मेरे आस-पास। हमारी ज़िंदगी में कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनसे मिल कर अच्छा लगता है, जिनके साथ हम दिल की बातें शेयर कर सकते हैं। और ऐसे लोगों में एक ख़ास इंसान ऐसा होता है

सुर संगम में आज - जारी है लोक संगीत शैली कजरी पे चर्चा

सुर संगम - 32 -लोक संगीत शैली "कजरी" (अंतिम भाग) कजरी गीतों में प्रकृति का चित्रण, लौकिक सम्बन्ध, श्रृंगार और विरह भाव का वर्णन ही नहीं होता; बल्कि समकालीन सामाजिक, राजनीतिक घटनाओं का चित्रण भी प्रायः मिलता है| "के तने पीसत होइहें जेहल में चकरिया..." - कजरी गीतों के जरिए स्वतंत्रता का संघर्ष शास्त्रीय और लोक संगीत के इस साप्ताहिक स्तम्भ "सुर संगम" के आज के अंक में मैं कृष्णमोहन मिश्र आप सब संगीत प्रेमियों का स्वागत करता हूँ| पिछले अंक में हमने आपसे देश के पूर्वांचल की अत्यन्त लोकप्रिय लोक-संगीत-शैली "कजरी" के बारे में कुछ जानकारी बाँटी थी| आज दूसरे भाग में हम उस चर्चा को आगे बढ़ाते हैं| पिछले अंक में हमने "कजरी" के वर्ण्य विषय और महिलाओं द्वारा प्रस्तुत की जाने वाली कजरियों के विभिन्न प्रकार की जानकारी आपसे बाँटी थी| मूलतः "कजरी" महिला प्रधान गायकी ही है| "कजरी" गीतों में कोमल भावों और लोक-जीवन की जैसी अभिव्यक्ति होती है उससे यह महिला प्रधान गायन शैली के रूप में ही स्थापित है| परन्तु ब्रज के सखि सम्प्रदाय के प्रभाव औ

वे एक स्वाभिमानी गीतकार थे, जिसने नैतिकता के विरुद्ध कभी समझौता नहीं किया

ओल्ड इज़ गोल्ड - शनिवार विशेष - 53- गीतकार गोपाल सिंह नेपाली की जन्म-शती पर स्मरण 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी पाठकों-श्रोताओं को कृष्णमोहन मिश्र का प्यार भरा नमस्कार, और स्वागत है, आप सभी का इस 'शनिवार विशेषांक' में। आज के इस साप्ताहिक विशेषांक में हम हिन्दी के जाने-माने साहित्यकार-पत्रकार, फिल्मों के चर्चित गीतकार और उत्तर छायावाद के अनूठे कवि गोपाल सिंह नेपाली का स्मरण करेंगे। इस वर्ष कवि-गीतकार श्री नेपाली का जन्मशती वर्ष है। 11 अगस्त, 1911 को बिहार के चम्पारण जिलान्तर्गत बेतिया नामक स्थान में हुआ था। यह वही क्षेत्र है जहाँ से महात्मा गाँधी ने अंग्रेजों के विरुद्ध आन्दोलन का प्रारम्भ किया था। यह इस भूमि का ही प्रभाव था कि 1962 में चीन के आक्रमण के दिनों में कवि गोपाल सिंह नेपाली ने सैनिकों की प्रशस्ति में और देशवासियों में जन-चेतना जागृत करने के लिए देशभक्ति से ओतप्रोत अनेक गीतों की रचना की थी। उनकी उस दौर की रचनाओं में सर्वाधिक चर्चित और प्रभावशाली रचना थी- "बर्फों में पिघलने को चला है लाल सितारा, चालीस करोड़ों को हिमालय ने पुकारा..."। वे एक स्वाभिमानी गीतकार

संजय अनेजा की कहानी "इंतज़ार" का नाट्य रूपांतर

'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अभिषेक ओझा की कहानी " प्रेम गली अति... " का पॉडकास्ट उन्हीं की आवाज़ में सुना था। आज हम आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं संजय अनेजा की कहानी " इंतज़ार " का नाट्य रूपांतर। कलाकार हैं अर्चना चावजी और सलिल वर्मा । संगीत सहयोग पद्मसिंह का है और नाट्य रूपांतरण किया है सलिल वर्मा ने। कहानी "इंतज़ार" का कुल प्रसारण समय 17 मिनट 53 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। इस कथा का टेक्स्ट मो सम कौन ब्लॉग पर उपलब्ध है। यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें। आशा है महाजनस्य पंथे गिरतम सम्भलतम हम भी घुटनों पर चलना सीख लेंगे! ~ संजय अनेजा हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी "विराजिये ऋषिवर! निश्चिंत रहिये, मैं कोई मेनका नहीं जो आपका ध्यान भंग करूंगी।" ( संजय अनेजा की &quo

कोई होता मेरा अपना.....शोर के "जंगल" में कोई जानी पहचानी सदा ढूंढती जिंदगी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 715/2011/155 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' की एक और शाम लेकर मैं, सुजॉय चटर्जी, साथी सजीव सारथी के साथ हाज़िर हूँ। जैसा कि आप जानते हैं इन दिनों इस स्तंभ में जारी है लघु शृंखला ' एक पल की उम्र लेकर ', जिसके अन्तर्गत सजीव जी की लिखी कविताओं की इसी शीर्षक से किताब में से चुनकर १० कविताओं पर आधारित फ़िल्मी गीत बजाये जा रहे हैं। आज की कविता का शीर्षक है ' जंगल '। यह जंगल मेरा है मगर मैं ख़ुद इसके हर चप्पे से नहीं हूँ वाकिफ़ कई अंधेरे घने कोने हैं जो कभी नहीं देखे मैं डरा डरा रहता हूँ अचानक पैरों से लिपटने वाली बेलों से गहरे दलदलों से मुझे डर लगता है बर्बर और ज़हरीले जानवरों से जो मेरे भोले और कमज़ोर जानवरों को निगल जाते हैं मैं तलाश में भटकता हूँ, इस जंगल के बाहर फैली शुआओं की, मुझे यकीं है कि एक दिन ये सारे बादल छँट जायेंगे मेरे सूरज की किरण मेरे जंगल में उतरेगी और मैं उसकी रोशनी में चप्पे-चप्पे की महक ले लूंगा फिर मुझे दलदलों से पैरों से लिपटी बेलों से डर नहीं लगेगा उस दिन - ये जंगल सचमुच में मेरा होगा मेरा अपना। जंगल की आढ़ लेकर कवि नें कितनी सुंदरता