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पिया पिया मोरा जिया पुकारे...जब किशोर दा ने खूबसूरती से छुपाया आशा की गलती को

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 512/2010/212 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' पर कल से हमने शुरु की है लघु शृंखला 'गीत गड़बड़ी वाले', जिसके तहत हम कुछ ऐसे गानें सुन रहे हैं जिनमें किसी ना किसी तरह की गड़बड़ी हुई है, या कोई त्रुटी, कोई कमी रह गई है। कल इसकी पहली कड़ी में आपने सुना कि किस तरह से सहगल साहब ने अमीरबाई की लाइन पर ग़लती से गा उठे और गाते गाते चुप हो गए। बिल्कुल इसी तरह की ग़लती एक बार गायिका आशा भोसले ने भी की थी किशोर कुमार के साथ गाए एक युगल गीत में, जिसमें वो किशोर दा की लाइन पर गा उठीं थीं और गाते गाते रह गयीं। आशा जी की इस ग़लती को किशोर कुमार ने किस तरह से क्लवर अप कर गाने को और भी ज़्यादा लोकप्रिय बना दिया, इसके बारे में हम आपको बताएँगे, लेकिन उससे पहले आपको यह तो बता दें कि यह गीत है १९५५ की फ़िल्म 'बाप रे बाप' का, "पिया पिया पिया मेरा जिया पुकारे, हम भी चलेंगे सइयाँ संग तुम्हारे"। जाँनिसार अख़्तर के बोल और ओ. पी. नय्यर साहब का संगीत। नय्यर साहब के ज़्यादातर डुएट्स आशा और रफ़ी के गाये हुए हैं, लेकिन आशा - किशोर के गाये इस गीत की लोकप्रियता अपनी जगह है। इसस

क्या हमने बिगाड़ा है, क्यों हमको सताते हो....गुजरे दिनों में लौट चलिए सहगल और अमीरबाई के साथ इस नटखट से गीत में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 511/2010/211 इं सान मात्र से ग़लतियाँ होती रहती हैं। चाहे हम लाख कोशिश कर लें, छोटी मोटी ग़लतियाँ फिर भी हर रोज़ हम कर ही बैठते हैं। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार, और बहुत बहुत स्वागत है इस महफ़िल में! आप यह सोच रहे होगे कि यह हम क्या ग़लतियों की बातें लेकर बैठ गये। फिर भी दोस्तों, ज़रा सोचिए, क्या ऐसा भी कोई इंसान है जिसने अपने जीवन में कोई ग़लती ना की हो? बल्कि हम युं भी कह सकते हैं कि ग़लतियों से ही हमें सीखने का मौका मिलता है, अपने आप को सुधारने का मौका मिलता है। जिस दिन हमने कोई ग़लती ना की हो, जिस दिन हमें किसी परेशानी का सामना ना करना पड़ा हो, उस दिन हमें यह यकीन कर लेना चाहिए कि हम ग़लत राह पर चल रहे हैं। ये वाणी मेरी नहीं बल्कि स्वामी विवेकानंद की है। आज हम ग़लतियों की बातें इसलिए कर रहे हैं क्योंकि आज से हम जो शृंखला शुरु कर रहे हैं, उसका भी विषय यही है। युं तो हमारे फ़िल्मी गीतकार, संगीतकार, गायक, गायिकाएँ और फ़िल्म निर्माता व निर्देशक बड़ी ही सावधानी के साथ गानें बनाते हैं और पूरा पूरा पर्फ़ेक्शन उनमें डालने की कोशिश करते हैं, लेकिन फ़

ई मेल के बहाने यादों के खजाने - जब बचपन जवानी और बुढापा सिमट गया था एक गीत में...हमारी श्रोता अनीता जी के लिए

'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ाने' आपके मनपसंद स्तंभ 'ओल्ड इज़ गोल्ड' का ही एक साप्ताहिक विशेषांक है, जिसमें हम आप ही के ईमेल शामिल भी करते हैं और अगर आपने किसी गीत की फ़रमाइश की है तो उसे भी हम इसमें सुनवाते हैं। आज हम दो एक नहीं बल्कि दो दो ईमेल शामिल कर रहे हैं। पहला ईमेल हमें भेजा है ख़ानसाब ख़ान ने। ये लिखते हैं ... आदाब, 'मजलिस-ए-क़व्वाली' की महफ़िल वाक़ई बहुत बहुत शानदार और जानदार थी। या युं कहें कि आपकी ये अदायगी हमें उस दौर के गानों का और ज़्यादा दीवाना बना गई। आप इतनी गम्भीरता से अपनी प्रस्तुति देते हैं कि हम आख़िर उसमें खो ही जाते हैं। और आपको शुक्रिया कहने के लिए ई-मेल कर ही देते हैं। 'मेरे हमदम मेरे दोस्त' की क़व्वाली "अल्लाह ये अदा कैसी है इन हसीनों में" मुझे सब से ज़्यादा पसंद आई। मेरी पसंद तो आप ने मेरी बिना फ़रमाइश के ही पूरी कर दी। इसके लिए 'आवाज़' की पूरी टीम को तहे दिल से बहुत बहुत धन्यवाद! ख़ानसाब, बहुत बहुत शुक्रिया आपका। आप समय समय पर इस तरह के ई-मेल भेज कर हमारा हौसला अफ़ज़ाई करते रहते हैं। यकीन मानिए, ये हमारे ल

सुनो कहानी - मुण्डन - हरिशंकर परसाई - अनुराग शर्मा

सुनो कहानी: हरिशंकर परसाई की "मुण्डन" 'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में पाकिस्तानी लेखक अहमद सगीर सिद्दीकी की कहानी "विभाजित" का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं प्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार हरिशंकर परसाई का व्यंग्य " मुण्डन ", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने। कहानी का कुल प्रसारण समय 4 मिनट 48 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें। मेरी जन्म-तारीख 22 अगस्त 1924 छपती है। यह भूल है। तारीख ठीक है। सन् गलत है। सही सन् 1922 है। । ~ हरिशंकर परसाई (1922-1995) हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी यह मामला कुतुब मीनार का नहीं जो सदियों जांच के लिए खड़ी रहेगी। यह आपके बालों का मामला है, जो बढ़ते और कटने रहते हैं। (

गाँव से लायी एक सुरीला सपना रश्मि प्रभा और जिसे मिलकर संवार रहे हैं ऋषि, कुहू, श्रीराम और सुमन सिन्हा

दोस्तों, आपने गौर किया होगा कि एक दो शुक्रवारों से हम कोई नया गीत अपलोड नहीं कर रहे हैं. दरअसल बहुत से गीत हैं जिन पर काम चल रहा है, पर ऑनलाइन गठबंधन की कुछ अपनी मजबूरियां भी होती है, जिनके चलते बहुत से गीत अधर में फंस जाते हैं. पर हम आपको बता दें कि आवाज़ महोत्सव का तीसरा सत्र जारी है और अगला नया गीत आप जल्द ही सुनेंगें. इन सब नए गीतों के निर्माण के अलावा भी कुछ प्रोजेक्ट्स हैं जिन पर आवाज़ की टीम पूरी तन्मयता से काम कर रही है. ऐसे ही एक प्रोजेक्ट् से आईये आपका परिचय कराएँ आज. युग्म से जुड़े सबसे पहले संगीतकार ऋषि एस एक बेहद प्रतिभाशाली संगीतकार हैं, इस बात का अंदाजा, हर सत्र में प्रकाशित उनके गीतों को सुनकर अब तक हमारे सभी श्रोताओं को भी हो गया होगा. आमतौर पर आजकल संगीतकार धुन पहले रचते हैं, ऐसे में दिए हुए शब्दों को धुन पर बिठाना और उसमें जरूरी भाव भरना एक दुर्लभ गुण ही है, और उससे भी दुर्लभ है गुण, शुद्ध कविताओं को स्वरबद्ध करने का. अमूमन गीत एक खास खांचे में लिखे जाते हैं ताकि धुन आसानी से बिठाई जा सके, पर जब कवि कविता लिखता है तो वह इन सब बंधनों से दूर रहकर अपने मन को शब्दों में

एक प्यार का नगमा है.....संगीतकार जोड़ी एल पी के विशाल संगीत खजाने को, दशकों दशकों तक फैले संगीत सफर को सलाम करता एक गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 510/2010/210 "मैं एक गाना बोलता हूँ आपको जो मुझे बहुत पसंद है, और सब से बड़ी ख़ुशी मुझे इसलिए है कि वह ट्युन लक्ष्मी जी ने ख़ुद बनायी हुई है। मतलब कम्प्लीट सोच उनकी है, वह गीत है "एक प्यार का नग़मा है"। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों नमस्कार, 'एक प्यार का नग़मा है' शृंखला की अंतिम कड़ी में आपका बहुत बहुत स्वागत है। प्यारेलाल जी के कहे इन शब्दों को हम आगे बढ़ाएँगे, लेकिन उससे पहले हमारे तमाम नये दोस्तों के लिए यह बता दें कि इन दिनों आप 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर सुन रहे हैं सगीतकार जोड़ी लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के स्वरबद्ध गीतों से सजी यह लघु शृंखला और आज इस शृंखला को हम अंजाम दे रहे हैं इस दिल को छू लेने वाले युगल गीत के ज़रिये। फ़िल्म 'शोर' का यह सदाबहार गीत है लता और मुकेश की आवाज़ों में जिसमें है यमन और बिलावल का स्पर्श। इस गीत को मनोज कुमार और नंदा पर बड़ी ही कलात्मक्ता से फ़िल्मांकन किया गया है। आनंद बक्शी, राजेन्द्र कृष्ण, भरत व्यास, राजा मेहंदी अली ख़ान, और मजरूह सुल्तानपुरी के बाद आज बारी गीतकार संतोष आनंद की। मनोज कुम

खुशी की वो रात आ गयी..... और माहौल में गम की सदा भी घुल गयी, एल पी और मुकेश का गठबंधन

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 509/2010/209 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार! इन दिनों इस स्तंभ में आप सुन रहे हैं फ़िल्म जगत के सुप्रसिद्ध संगीतकार जोड़ी लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के स्वरबद्ध गीतों से सजी लघु शृंखला 'एक प्यार का नग़मा है'। आज इस शृंखला की नौवी कड़ी में हम चुन लाये हैं मुकेश की आवाज़ में फ़िल्म 'धरती कहे पुकार के' का एक ऐसा गीत जिसमें है विरोधाभास। विरोधाभास इसलिए कि गीत के बोलों में तो ख़ुशी की बात की जा रही है, लेकिन गायकी के अदाज़ में करुण रस का संचार हो रहा है। "ख़ुशी की वह रात आ गयी, कोई गीत जगने दो, गाओ रे झूम झूम"। इस तरह के गीतों का हिंदी फ़िल्मों में कई कई बार प्रयोग हुआ है। सिचुएशन कुछ इस तरह की होती है कि नायिका की शादी नायक के बजाय किसी और से हो रही होती है, और शादी के उस जलसे में नायक नायिका को शुभकामनाएँ देते हुए गीत गाता तो है, लेकिन उस गीत में छुपा होता है उसके दिल का दर्द। कुछ ऐसे ही गीतों की याद दिलाएँ आपको? फ़िल्म 'पारसमणि' का गीत "सलामत रहो, सलामत रहो", फ़िल्म 'मिलन' में मुकेश का ही गाया हुआ कुछ