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न तो कारवाँ की तलाश है न तो हमसफ़र की क्योंकि ये इश्क इश्क है....कहा रोशन और मजरूह के साथ गायक गायिकाओं की एक पूरी टीम ने

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 475/2010/175 आ ज श्रीकृष्ण जन्माष्टमी है। इस पवित्र पर्व पर हम अपने सभी श्रोताओं व पाठकों को अपनी शुभकामनाएँ देते हैं। दोस्तों, आप समझ रहे होंगे कि क्योंकि क़व्वालियों की शृंखला चल रही है, तो जन्माष्टमी पर श्री कृष्ण का कोई गीत तो हम सुनवा नहीं पाएँगे 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में, है न? लेकिन ज़रा ठहरिए, कम से कम एक क़व्वाली ऐसी ज़रूर है जिसमें श्री कृष्ण का भी ज़िक्र है, और साथ ही राधा और मीरा का भी। क्यों चौंक गए न? जी हाँ, यह सच है, इस राज़ पर से अभी पर्दा उठने वाला है। फ़िल्म संगीत में क़व्वालियों को लोकप्रिय बनाने में संगीतकार रोशन का योगदान बेहद महत्वपूर्ण माना जाता है। ऐसा नहीं कि उनसे पहले किसी ने मशहूर क़व्वाली फ़िल्मों के लिए नहीं बनाई, लेकिन रोशन साहब ने पारम्परिक क़व्वालियों का जिस तरह से फ़िल्मीकरण किया और जन जन में लोकप्रिय बनाया, ऐसा करने का श्रेय उन्हें ही दिया जाता रहा है। आज 'मजलिस-ए-क़व्वाली' में रोशन साहब की बनाई हुई सब से लोकप्रिय क़व्वाली की बारी, और बहुत लोगों के अनुसार यह हिंदी फ़िल्म संगीत की सब से यादगार क़व्वाली है। दरअसल ये दो

तेरी महफ़िल में किस्मत आजमा कर हम भी देखेंगें...एक मास्टरपीस फिल्म की मास्टरपीस कव्वाली

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 474/2010/174 'म ज़लिस-ए-क़व्वाली' की तीसरी कड़ी में आज हम पहुँचे हैं साल १९५९-६० में। और इसी दौरान रिलीज़ हुई थी के. आसिफ़ की महत्वाकांक्षी फ़िल्म 'मुग़ल-ए-आज़म'। इस फ़िल्म की और क्या नई बात कहूँ आप से, इस फ़िल्म का हर एक पहलु ख़ास था, इस फ़िल्म की हर एक चीज़ बड़ी थी। आसिफ़ साहब ने पानी की तरह पैसे बहाए, अपने फ़ायनेन्सर्स से झगड़ा मोल लिया, लेकिन फ़िल्म के निर्माण के साथ किसी भी तरह का समझौता नहीं किया। नतीजा हम सब के सामने है। जब भी कभी पिरीयड फ़िल्मों का ज़िक्र चलता है, 'मुग़ल-ए-आज़म' फ़िल्म का नाम सब से उपर आता है। जहाँ तक इस फ़िल्म के संगीत का सवाल है, तो पहले पण्डित गोबिंदराम, उसके बाद अनिल बिस्वास, और आख़िरकार नौशाद साहब पर जाकर इसके संगीत का ज़िम्मा ठहराया गया। इस फ़िल्म के तमाम गानें सुपर डुपर हिट हुए, और इसकी शान में इतना ही हम कह सकते हैं कि जब 'ओल्ड इज़ गोल्ड' ने १०० एपिसोड पूरे किए थे, उस दिन हमने यह महफ़िल इसी फ़िल्म के " प्यार किया तो डरना क्या " से रोशन किया था। आज 'मुग़ल-ए-आज़म' ५० साल पूरे कर चुक

ज़ाहिद न कह बुरी कि ये मस्ताने आदमी हैं.. ताहिरा सैय्यद ने कुछ यूँ आवाज़ दी दाग़ की दीवानगी और मस्तानगी को

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #९८ को ई नामो-निशाँ पूछे तो ऐ क़ासिद बता देना, तख़ल्लुस 'दाग़' है और आशिकों के दिल में रहते हैं। "कौन ऐसी तवाएफ़ थी जो ‘दाग़’ की ग़ज़ल बग़ैर महफिल में रंग जमा सके? क्या मुशाअरे, क्या अदबी मजलिसें, क्या आपसी सुहबतें, क्या महफ़िले-रक्स, क्या गली-कूचें, सर्वत्र ‘दाग़’ का हीं रंग ग़ालिब था।" अपनी पुस्तक "शेर-ओ-सुखन: भाग ४" में अयोध्या प्रसाद गोयलीय ने उपरोक्त कथन के द्वारा दाग़ की मक़बूलियत का बेजोड़ नज़ारा पेश किया है। ये आगे लिखते हैं: मिर्ज़ा ‘दाग़’ को अपने जीवनकाल में जो ख्याति, प्रतिष्ठा और शानो-शौकत प्राप्त हुई, वह किसी बड़े-से-बड़े शाइर को अपनी ज़िन्दगी में मयस्सर न हुई। स्वयं उनके उस्ताद इब्राहिम ‘ज़ौक़’ शाही क़फ़समें पड़े हुए ‘तूतिये-हिन्द’ कहलाते रहे, मगर १०० रू० माहवारी से ज़्यादा का आबो-दाना कभी नहीं पा सके। ख़ुदा-ए-सुख़न ‘मीर’, ‘अमर-शाइर’ ‘गा़लिब’ और ‘आतिश’-जैसे आग्नेय शाइरों को अर्थ-चिन्ता जीवनभर घुनके कीड़े की तरह खाती रही। हकीम ‘मोमिन शैख़’, ‘नासिख़’ अलबत्ता अर्थाभाव से किसी क़द्र निश्चन्त रहे, मगर ‘दाग़’ जैसी फ़राग़त उन्हें भी कहा