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सुरमई अंखियों में नन्हा मुन्ना एक सपना दे जा रे.....एक स्वर्ग से उतरी लोरी, येसुदास की पाक आवाज़ में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 467/2010/167 ब च्चों के साथ गुलज़ार साहब का पुराना नाता रहा है। गुलज़ार साहब को बच्चे बेहद पसंद है, और समय समय पर उनके लिए कुछ यादगार गानें भी लिखे हैं बिल्कुल बच्चों वाले अंदाज़ में ही। मसलन "लकड़ी की काठी", "सा रे के सा रे ग म को लेकर गाते चले", "मास्टरजी की आ गई चिट्ठी", आदि। बच्चों के लिए उनके लिखे गीतों और कहानियों में तितलियाँ नृत्य करते हैं, पंछियाँ गीत गाते हैं, बच्चे शैतानी करते है। जीवन के चिर परिचीत पहलुओं और संसार की उन जानी पहचानी ध्वनियों की अनुगूंज सुनाई देती है गुलज़ार के गीतों में। बच्चों के गीतों की बात करें तो एक जौनर इसमें लोरियों का भी होता है। गुलज़ार साहब के लिखे लोरियों की बात करें तो दो लोरियाँ उन्होंने ऐसी लिखी है कि जो कालजयी बन कर रह गई हैं। एक तो है फ़िल्म 'मासूम' का "दो नैना और एक कहानी", जिसे गा कर आरती मुखर्जी ने फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार जीता था, और दूसरी लोरी है फ़िल्म 'सदमा' का "सुरमयी अखियों में नन्हा मुन्ना एक सपना दे जा रे"। येसुदास की नर्म मख़मली आवाज़ में यह लोरी

जीवन से लंबे हैं बंधु, ये जीवन के रस्ते...गुलज़ार साहब की कलम और मन्ना दा की आवाज़, एक बेमिसाल गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 466/2010/166 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के सभी दोस्तों का एक बार फिर से स्वागत है पुराने सदाबहार गीतों की इस महफ़िल में। जैसा कि आप जानते हैं इन दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर जारी है गीतकार, शायर, लेखक व फ़िल्मकार गुलज़ार साहब के लिखे फ़िल्मी गीतों पर केन्द्रित शृंखला 'मुसाफ़िर हूँ यारों', तो आज जिस गीत की बारी है, वह भी कुछ मुसाफ़िर और रास्तों से ताल्लुख़ रखता है। और ये रास्ते हैं ज़िंदगी के रास्ते। इस गीत में भी ज़िंदगी का एक कड़वा सत्य उजागर होता है, जिसे बहुत ही मर्मस्पर्शी शब्दों से संवारा है गुलज़ार साहब ने। "जीवन से लम्बे हैं बंधु ये जीवन के रस्ते, एक पल रुक कर रोना होगा, एक पल चल के हँस के, ये जीवन के रस्ते"। दादामुनि अशोक कुमार पर फ़िल्माये और मन्ना डे के गाए फ़िल्म 'आशिर्वाद' के इस गीत को सुन कर भले ही दिल उदास हो जाता है, आँखें नम हो जाती हैं, लेकिन जीवन के इस कटु सत्य को नज़रंदाज़ भी तो नहीं किया जा सकता। सुखों और दुखों का मेला है ज़िंदगी, और निरंतर चलते रहने का नाम है ज़िंदगी, बस यही दो सीख हैं इस गीत में। वसंत देसाई के

रविवार सुबह की कॉफी और हिंदी सिनेमा में मुस्लिम समाज के चित्रण पर एक चर्चा

भारतीय फिल्म जगत में समय समय पर कई प्रकार के दौर आये हैं. और इन्ही विशेष दौर से मुड़ते हुए भारतीय सिनेमा भी चल्रता रहा कभी पथरीली सड़क की तरह कम बजट वाली फ़िल्में तो कभी गृहस्थी में फसे दांपत्य जीवन को निशाना बनाया गया, लेकिन हर दौर में जो भी फ़िल्में बनीं हर एक फिल्म किसी न किसी रूप से किसी न किसी संस्कृति से जुड़ीं रहीं. जैसे बैजू बावरा (१९५२) को लें तो इस फिल्म में नायक नायिका के बीच प्रेम कहानी के साथ साथ एतिहासिक पृष्ठभूमि, गुरु शिष्य के सम्बन्ध, संगीत की महिमा का गुणगान भी किया गया है. भारतीय फिल्मों में एक ख़ास समाज या धर्म को लेकर भी फ़िल्में बनती रहीं और कामयाब भी होती रहीं. भारत बेशक हिन्दू राष्ट्र है लेकिन यहाँ और धर्मों की गिनती कम नहीं है. अपनी भाषा शैली, संस्कृति और रीति रिवाजों से मुस्लिम समाज एक अलग ही पहचान रखता है. भारतीय सिनेमा भी इस समाज से अछूता नहीं रहा और समय समय पर इस समाज पर कभी इसकी भाषा शैली, संस्कृति और कभी रीति रिवाजों को लेकर फ़िल्में बनीं और समाज को एक नयी दिशा दी. सिनेमा जब से शुरू हुआ तब से ही निर्माताओं को इस समाज ने आकर्षित किया और इसकी शुरुआत ३० के

ई मेल के बहाने यादों के खजाने (४), जब शरद तैलंग मिले रीटा गांगुली से

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के साप्ताहिक अंक 'ईमेल के बहाने, यादों के ख़ज़ाने' में आप सभी का स्वागत है। हर हफ़्ते आप में से किसी ना किसी साथी की सुनहरी यादों से समृद्ध कर रहे हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के इस ख़ास ख़ज़ाने को। हमें बहुत से दोस्तों से ईमेल मिल रहे हैं और एक एक कर हम सभी को शामिल करते चले जा रहे हैं। जिनके ईमेल अभी तक शामिल नहीं हो पाए हैं, वो उदास ना हों, हम हर एक ईमेल को शामिल करेंगे, बस थोड़ा सा इंतेज़ार करें। और जिन दोस्तों ने अभी तक हमें ईमेल नहीं किया है, उनसे गुज़ारिश है कि अपने पसंद के गानें और उन गानों से जुड़ी हुई यादों को हिंदी या अंग्रेज़ी में हमारे ईमेल पते oig@hindyugm.com पर भेजें। अगर आप शायर या कवि हैं, तो अपनी स्वरचित कविताएँ और ग़ज़लें भी हमें भेज सकते हैं। किसी जगह पर घूमने गए हों कभी और कोई अविस्मरणीय अनुभव हुआ हो, वो भी हमें लिख सकते हैं। इस स्तंभ का दायरा विशाल है और आप को खुली छूट है कि आप किसी भी विषय पर अपना ईमेल हमें लिख सकते हैं। बहरहाल, आइए अब आज के ईमेल की तरफ़ बढ़ा जाए। शरद तैलंग का नाम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के लिए कोई नया नाम नहीं

कृश्न चन्दर - एक गधे की वापसी - अंतिम भाग (3/3)

सुनो कहानी: एक गधे की वापसी- कृश्न चन्दर - अंतिम भाग (3/3) 'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने प्रीति सागर की आवाज़ में सुधा अरोड़ा की एक कथा अन्नपूर्णा मंडल की आखिरी चिट्ठी का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं कृश्न चन्दर की कहानी "एक गधे की वापसी" का अंतिम भाग, जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने। कहानी का कुल प्रसारण समय 7 मिनट 39 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। एक गधे की वापसी के पिछले अंश पढने के लिये कृपया नीचे दिए लिंक्स पर क्लिक करें एक गधे की वापसी - प्रथम भाग एक गधे की वापसी - द्वितीय भाग यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें। यह तो कोमलांगियों की मजबूरी है कि वे सदा सुन्दर गधों पर मुग्ध होती हैं ~ पद्म भूषण कृश्न चन्दर (1914-1977) हर शनिवार को आवाज़ पर सुनिए एक नयी कहानी मैं महज़ एक गधा आवारा हूँ।

जब हुस्न-ए-इलाही बेपर्दा हुआ वी डी, ऋषि और नए गायक श्रीराम के रूबरू

Season 3 of new Music, Song # 17 सूफी गीतों का चलन इन दिनों इंडस्ट्री में काफी बढ़ गया है. लगभग हर फिल्म में एक सूफियाना गीत अवश्य होता है. ऐसे में हमारे संगीतकर्मी भी भला कैसे पीछे रह सकते हैं. सूफी संगीत की रूहानियत एक अलग ही किस्म का आनंद लेकर आती है श्रोताओं के लिए, खास तौर पे जब बात हुस्न-ए-इलाही की तो कहने ही क्या. जिगर मुरादाबादी के कलाम को विस्तार दिया है विश्व दीपक तन्हा ने. दोस्तों गुलज़ार साहब इंडस्ट्री में इस फन के माहिर समझे जाते हैं. ग़ालिब, मीर आदि उस्ताद शायरों के शेरों को मुखड़े की तरह इस्तेमाल कर आगे एक मुक्कमल गीत में ढाल देने का काम बेहद खूबसूरती से अंजाम देते रहे हैं वो. हम ये दावे के साथ कह सकते हैं इस बार हमारे गीतकार उनसे इक्कीस नहीं तो उन्नीस भी नहीं हैं यहाँ. ऋषि ने पारंपरिक वाद्यों का इस्तेमाल कर सुर रचे हैं तो गर्व के साथ हम लाये हैं एक नए गायक श्रीराम को आपके सामने जो दक्षिण भारतीय होते हुए भी उर्दू के शब्दों को बेहद उ्म्दा अंदाज़ में निभाने का मुश्किल काम कर गए हैं इस गीत में. साथ में हैं श्रीविद्या, जो इससे पहले " आवारगी का रक्स " गा चुकी हैं हम

राह में रहते हैं, यादों में बसर करते हैं.....मुसाफिर गुलज़ार के यायावर दिल की बयानी है ये गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 465/2010/165 "मु साफ़िर हूँ यारों, ना घर है ना ठिकाना, मुझे चलते जाना है, बस चलते जाना"। दोस्तों, गुलज़ार साहब के इसी गीत के बोलों को लेकर हमने इस शृंखला का नाम रखा है 'मुसाफ़िर हूँ यारों'। अब देखिए ना, कुछ कुछ इसी भाव से मिलता जुलता गुलज़ार साहब ने एक और गीत भी तो लिखा था फ़िल्म 'नमकीन' में! याद आया? "राह पे रहते है, यादों पे बसर करते हैं, ख़ुश रहो अहले वतन, हम तो सफ़र करते हैं"। किसी ट्रक ड्राइवर के किरदार के लिए इस गीत से बेहतर गीत शायद उसके बाद फिर कभी नहीं बन पाया है। किशोर कुमार की आवाज़ में राहुल देव बर्मन के संगीत से सँवरे इस गीत को आज हम पेश कर रहे हैं। 'नमकीन' गुलज़ार साहब के फ़िल्मी करीयर की एक बेहद महत्वपूर्ण फ़िल्म रही। यह १९८२ की फ़िल्म थी जिसका निर्देशन भी गुलज़ार साहब ने ही किया था। शर्मिला टैगोर, संजीव कुमार, वहीदा रहमान, शबाना आज़मी और किरण वैराले फ़िल्म के मुख्य किरदार निभाये। यह समरेश बासु की कहानी पर बनी फ़िल्म थी जिनकी कहानी पर गुलज़ार साहब ने उससे पहले १९७७ में फ़िल्म 'किताब' का निर्माण क