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अलहदा है पियूष का अंदाज़, तो अलहदा क्यों न हो "गुलाल" का संगीत

वाकई पियूष भाई एक हरफनमौला हैं, क्या नहीं करते वो. एक समय था जब हमारी शामें दिल्ली के मंडी हाउस में बीता करती थी. और जिस भी दिन पियूष भाई का शो होता जिस भी ऑडिटोरियम में वहां हमारा होना भी लाजमी होता. मुझे उनके वो नाटक अधिक पसंद थे जिसे वो अकेले सँभालते थे, यानी अभिनय से लेकर उस नाटक के सभी कला पक्ष. सोचिये एक अकेले अभिनेता द्वारा करीब २ घंटे तक मंच संभालना और दर्शकों को मंत्रमुग्ध करके रखना कितना मुश्किल होता होगा, पर पियूष भाई के लिए ये सब बाएं हाथ का काम होता था. उनके संवाद गहरे असर करते थे, बीच बीच में गीत भी होते थे अक्सर लोक धुनों पर, जिसे वो खुद गाते थे. तो जहाँ तक उनके अभिनेता, निर्देशक, पठकथा संवाद लेखक, और गीतकार होने की बात है, यहाँ तक तो हम पियूष भाई की प्रतिभा से बखूबी परिचित थे, पर हालिया प्रर्दशित अनुराग कश्यप की "गुलाल" में उनका नाम बतौर संगीतकार देखा तो चौंकना स्वाभाविक ही था. गाने सुने तो उनकी इस नयी विधा के कायल हुए बिना नहीं रह सका. तभी तो कहा - हरफनमौला. लीजिये इस फिल्म का ये गीत आप भी सुनें - उनका बचपन ग्वालियर में बीता, दिल्ली के एन एस डी से उत्तीर्ण ह

बदले बदले मेरे सरकार नज़र आते हैं....

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 27 चौ दहवीं का चाँद, 1960 की एक बेहद चर्चित फिल्म. गुरु दत्त के इस फिल्म में वहीदा रहमान की खूबसूरती का बहुत ही सुंदर उल्लेख हुया था इस फिल्म के शीर्षक गीत में, जिसे आप प्रायः सुनते ही रहते हैं कहीं ना कहीं से. इसी फिल्म से एक ज़रा कम सुना सा एक अनमोल गीत आज हम पेश कर रहे हैं 'ओल्ड इस गोल्ड' में. लता मंगेशकर की आवाज़ में यह गीत है "बदले बदले मेरे सरकार नज़र आते हैं, घर की बर्बादी के आसार नज़र आते हैं". अब तक गुरु दत्त ओ पी नय्यर और एस डी बर्मन जैसे संगीतकारों के साथ ही काम कर रहे थे. चौदहवीं का चाँद के लिए जब उन्होने संगीतकार रवि को 'फोन' करके यह कहा कि वो उनकी अगली फिल्म में उन्हे बतौर संगीतकार लेना चाहते हैं तो रवि साहब को यकीन ही नहीं हुआ. गुरु दत्त साहब ने रवि साहब से यह भी पुछा कि शक़ील बदायूनीं को अगर गीतकार लिया जाए तो कैसा हो. रवि को ज़रा संदेह था कि शायद शक़ील साहब नौशाद को छोड्कर बाहर गाने ना लिखें. लेकिन शक़ील साहब ने गुरु दत्त के निवेदन को ठुकराया नहीं और रवि साहब से मिलकर बाहर जाते हुए शक़ील साहब ने उनसे कहा की "मैने

माँ! तेरी जय हो। 'जय हो' का एक रूप यह भी

रहमान और भारत माता को राजकुमार 'राकू' का सलाम रहमान के गीत 'जय हो' को ऑस्कर मिलने के बाद इस गीत के ढेरों संस्करण इंटरनेट पर उपलब्ध हो गये। भारतीय राजनीतिज्ञों के ऊपर व्यंग्य कसती 'जेल हो' गीत भी चर्चा में है। हिन्द-युग्म के राजकुमार राकू' ने रहमान की इस उपलब्धि को रहमान को भारत माँ को सलाम कहा। सब अपनी-अपनी तरह से रहमान को सलाम कर रहे थे, इसी बीच राजकुमार 'राकू' और उनकी टीम ने एक नया गीत गढ़ा 'माँ! तेरी जय हो'। इस गीत को लिखा है खुद राकुमार 'राकू' ने। राकू ने संगीत विवेक अस्थाना के साथ मिलकर इस गीत को धुन दी है। संगीत-संयोजन किया है बॉलीवुड के उभरते संगीतकार विवेक अस्थाना ने। गीत में आवाज़ें हैं राजकुमार राकू (कमेंट्री), राजेश बिसेन, सुमेधा और साथियों की। आपको बताते चलें कि यह गीत आने वाली फिल्म 'कलाम का सलाम' का हिस्सा होगा। इस गीत में सभी भारतीय वाद्य-यंत्रों का इस्तेमाल किया गया है। 'माँ' से जुड़ीं भावों को पिरोने के लिए राग दुर्गा का और विजय भाव के लिए राग जयजयवंती का प्रयोग किया गया है। आवाज़ के श्रोताओं को दुबारा

रात भर आपकी याद आती रही - संगीतकार जयदेव पर विशेष

'ये दिल और उनकी निगाहों के साये मुझे घेर लेती हैं बाँहों के साये' जयदेव के संगीतबद्ध गीत हमेशा अपने गिरफ्त में ले लेते हैं । और गिरफ्त भी इतनी कोमल जिसके कर्ण स्पर्श से ही रोम -रोम आनंदित हो उठे तो कौन भला इनसे अलग होना चाहेगा ।जयदेव ने ऐसे गीतों की रचना की जो मेलोडी से सराबोर होते हुए भी शास्त्रीय प्रधान रहे ।वे हमेशा अपनी संगीत विधा के प्रति ईमानदार रहे. वे जितने सादे थे उतनी ही जटिल उनकी संगीत रचना है मगर जटिल होते हुए भी उनकी धुनें बेहद सरस और मंत्रमुग्ध कर देने वाली है | वैसे जयदेव का निजी जीवन और संगीत -जीवन दोनों ही सदैव संघर्षपूर्ण रहा । ये वाकया है कि जिनके रिकॉर्ड भले ही हजारो बिके हों मगर उनके पास अपना रिकॉर्ड प्लेयर नही था। जयदेव मूलतः पंजाबी थे उनका जन्म ३ अगस्त १९१८ को 'नैरोबी' में हुआ था। माँ-बाप का प्यार तो इन्होने ठीक से जाना भी नही था कि माँ भगवन के पास और पिता अफ्रीका व्यवसाय के चक्कर में । इनका बचपन एक यतीम की तरह ही गुजरा. उन मुश्किल दिनों में एक मात्र सहारा अपने फूफा ही हुए जिनके यहाँ उन्होंने कुछ दिन बिताये । जयदेव की उम्र जब १५ की होगी जब '

हम बेखुदी में तुमको पुकारे चले गए....

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 26 दो स्तों, गीत केवल वो नहीं जो एक गीतकार लिखे, संगीतकार उसको स्वरबद्ध करे, और गायक उसे संगीतकार के कहे मुताबिक गा दे. अमर गीत वो कहलाता है जब गायक गीतकार के विचारों को खुद महसूस करे, बाकी हर एक चीज़ को भुलाकर, उसमें खुद को पूरी तरह से डूबो दे, और संगीतकार की धुन को अपने जज़्बातों के साथ एक ही रंग में ढाल दे और उसे तह-ए-दिल से पेश करे. गुज़रे ज़माने के गायकों पर अगर हम ध्यान दें तो पाएँगे कि ऐसी महारत और किसी गायक को हो ना हो, मोहम्मद रफ़ी साहब को ज़रूर हासिल थी. उनका गाया हुआ एक एक नग्मा इस बात का गवाह है. गीत चाहे कैसा भी हो, हर एक गीत वो इस क़दर गा जाते थे कि उनके गाने के बाद और किसी की आवाज़ में उस गीत की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी. ऐसी ही एक ग़ज़ल है 1958 की फिल्म "कालापानी" में जो आज आपकी सेवा में हम लेकर आए हैं - "हम बेखुदी में तुमको पुकारे चले गये, सागर में ज़िंदगी को उतारे चले गये". दोस्तों, मैने पिछले कुछ सालों में विविध भारती के कई नायाब 'interviews' को लिपीबद्ध किया है और आज मेरे इस ख़ज़ाने में 600 से ज़्यादा 'रे

एक सम्मोहन का नाम है जगजीत सिंह

पुरुस्कार और म्युजिक थैरेपी इसके अलावा भी उनकी और एलबम आयी जैसे कहकशां, चिराग जो बहुत लोकप्रिय हुईं। कुछ आलोचकों ने ( जी हां कुछ आलोचक अब भी बचे हुए थे) दबी जबान में कहना शुरु किया कि हांSSSSS , जगजीत सिंह सिर्फ़ सेमी क्लासिकल गजल ही गा सकते हैं उनके पास वेरायटी नहीं है। इस का जवाब दिया जगजीत जी ने पंजाबी गाने गा कर जो एकदम फ़ास्ट, जिंदा दिली से भरे हुए गाने थे जिन्हें सुनते ही आप के कदम अपने आप थिरकने लगें। साथ ही उन्हों ने गाये भजन जो मन को इतनी शांती देते हैं कि आप मेडिटेशन कर सकते हैं। सबसे ऊंची प्रेम सगाई और अब सुनिए एक पंजाबी गाना और आज भी जगजीत जी गायकी के क्षेत्र में नये नये प्रयोग कर रहे हैं । लोग कहते हैं कि नब्बे के दशक से उनकी आवाज में, उनकी गायकी में और निखार आ गया है। मानव मन का ऐसा कोई एहसास नहीं जिसे जगजीत जी अपनी गजलों में न उतार सकते हों। इसी कारण अनेकों बार उन्हें अलग अलग सरकारों से सम्मान मिला है। उनके पिता जो साठ के दशक में उनके संगीत में अपना भविष्य बनाने के निश्चय से चिंतित थे आज गर्व से फ़ूले नहीं समाते। लेकिन सबसे बड़ा पुरुस्कार तो जगजीत जी की गायकी को तब मि

एक मंजिल राही दो, फिर प्यार न कैसे हो....

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 25 दो स्तों,'ओल्ड इस गोल्ड' की एक और कडी के साथ हम हाज़िर हैं. हमें बेहद खुशी है कि आप इस शृंखला को पसंद कर रहे हैं. और यकीन मानिए, आपके लिए इन गीतों को खोजने में और इन गीतों से जुडी जानकारियाँ इकट्टा करने में भी हमें उतना ही आनंद आ रहा है. इस शृंखला के स्वरूप के बारे में अगर आप कोई भी सुझाव देना चाहते हैं, या किसी तरह का कोई बदलाव चाहते हैं तो हमें बे-झिझक बताईएगा. अगर आप किसी ख़ास गीत को इस शृंखला में सुनना चाहते हैं तो भी हमें बता सकते हैं. और अगर फिल्म संगीत के सुनहरे दौर के किसी गीत से जुडी कोई दिलचस्प बात आप जानते हैं तो भी हमें ज़रूर बताएँ, हमें बेहद खुशी होगी आपकी दी हुई जानकारी को यहाँ पर शामिल करते हुए. तो आइए अब ज़िक्र छेडा जाए आज के गीत का. आज का गीत लता मंगेशकर और मुकेश की आवाज़ों में एक बेहद खूबसूरत युगल गीत है जिसमें यह बताया जारहा है कि अगर मंज़िल एक है, तो फिर ऐसे मंज़िल को तय करनेवाले दो राही के दिलों में प्यार कैसे ना पनपे. अब इसके आगे शायद मुझे और कुछ बताने की ज़रूरत नहीं, आप ने गीत का अंदाज़ा ज़रूर लगा लिया होगा! जी हाँ, 1961 में बन