महफ़िल-ए-ग़ज़ल #५३ य ह तो मौसम है वही दर्द का आलम है वही बादलों का है वही रंग, हवाओं का है अन्दाज़ वही जख़्म उग आए दरो-दीवार पे सब्ज़े की तरह ज़ख़्मों का हाल वही लफ़्जों का मरहम है वही दर्द का आलम है वही हम दिवानों के लिए नग्मए-मातम है वही दामने-गुल पे लहू के धब्बे चोट खाई हुए शबनम है वही… यह तो मौसम है वही दोस्तो ! आप, चलो खून की बारिश है नहा लें हम भी ऐसी बरसात कई बरसों के बाद आई है। ये पंक्तियाँ हमने "असंतोष के दिन" नामक पुस्तक की भूमिका से ली हैं। इन पंक्तियों के लेखक के बारे में इतना हीं कहना काफ़ी होगा कि मैग्नम ओपस(अज़ीम-उस-शान शाहकार) महाभारत की पटकथा और संवाद इन्होंने हीं लिखे थे। वैसे अलग बात है कि इन्हें ज्यादातर "महाभारत" से हीं जोड़ कर देखा जाता है, लेकिन अगर इनके अंदर छिपे आक्रोश और संवेदनाओं को परखना हो तो कृप्या "आधा गाँव" और "टोपी शुक्ला" की ओर रूख करें। अपने उपन्यास "टोपी शुक्ला" की भूमिका में ये ताल ठोककर कहते हैं कि "यह उपन्यास अश्लील है।" आप खुद देखें- मुझे यह उपन्यास लिख कर कोई ख़ास खुशी नहीं हुई| क्योंकि