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इस तरह मोहम्मद रफी का पार्श्वगायन के क्षेत्र में प्रवेश हुआ

  भारतीय सिनेमा के सौ साल – 37 कारवाँ सिने-संगीत का   ‘एक बार उन्हें मिला दे, फिर मेरी तौबा मौला...’ भारतीय सिनेमा के शताब्दी वर्ष में ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ द्वारा आयोजित विशेष अनुष्ठान- ‘कारवाँ सिने-संगीत का’ में आप सभी सिनेमा-प्रेमियों का हार्दिक स्वागत है। आज माह का चौथा गुरुवार है और मा ह के दूसरे और चौथे गुरुवार को हम ‘कारवाँ सिने-संगीत का’ स्तम्भ के अन्तर्गत ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के संचालक मण्डल के सदस्य सुजॉय चटर्जी की प्रकाशित पुस्तक ‘कारवाँ सिने-संगीत का’ से किसी रोचक प्रसंग का उल्लेख करते हैं। आज के अंक में हम भारतीय फिल्म जगत के सुप्रसिद्ध पार्श्वगायक मोहम्मद रफी के प्रारम्भिक दौर का ज़िक्र करेंगे।  1944 में रफ़ी ने बम्बई का रुख़ किया जहाँ श्यामसुन्दर ने ही उन्हें ‘विलेज गर्ल’ (उर्फ़ ‘गाँव की गोरी’) में गाने का मौका दिया। पर यह फ़िल्म १९४५ में प्रदर्शित हुई। इससे पहले १९४४ में ‘पहले आप’ प्रदर्शित हो गई जिसमें नौशाद ने रफ़ी से कुछ गीत गवाए थे। नौशाद से रफ़ी को मिलवाने का श्रेय हमीद भाई को जाता है। उन्होंने ही लखनऊ जाकर नौश

'एक गीत सौ कहानियाँ' में आज : शमशाद बेगम का पहला गीत

भारतीय सिनेमा के सौ साल – 36 एक गीत सौ कहानियाँ – 22 शमशाद बेगम की पहली हिन्दी फिल्म ‘खजांची’ का एक गीत : ‘सावन के नज़ारे हैं...’ आपके प्रिय स्तम्भकार सुजॉय चटर्जी ने 'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' पर गत वर्ष 'एक गीत सौ कहानियाँ' नामक स्तम्भ आरम्भ किया था, जिसके अन्तर्गत हर अंक में वे किसी फिल्मी या गैर-फिल्मी गीत की विशेषताओं और लोकप्रियता पर चर्चा करते थे। यह स्तम्भ 20 अंकों के बाद मई 2012 में स्थगित कर दिया गया था। गत माह से हमने इस स्तम्भ का प्रकाशन ‘भारतीय सिनेमा के सौ साल’ श्रृंखला के अन्तर्गत पुनः शुरू किया है। आज 'एक गीत सौ कहानियाँ' स्तम्भ की 22वीं कड़ी में सुजॉय चटर्जी प्रस्तुत कर रहे हैं, सुप्रसिद्ध पार्श्वगायिका शमशाद बेगम की पहली हिन्दी ‘खजांची’ में गाये उनके पहले गीत "सावन के नज़ारे हैं…" की चर्चा।   दो स्तों, आज ‘एक गीत सौ कहानियाँ’ का अंक समर्पित है फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर की एक लाजवाब पार्श्वगायिका को। ये वो गायिका हैं दोस्तों जिनकी आवाज़ की तारीफ़ में संगीतकार नौशाद साहब नें कहा था कि इसमें

पाँचवें प्रहर के कुछ आकर्षक राग

स्वरगोष्ठी – 107 में आज राग और प्रहर – 5 शाम के अन्धकार को प्रकाशित करते राग ‘स्वरगोष्ठी’ के 107वें अंक में, मैं कृष्णमोहन मिश्र आप सब संगीत-प्रेमियों का इस मंच पर हार्दिक स्वागत करता हूँ। मित्रों, पिछले रविवार को इस स्तम्भ का अगला अंक मैं अपनी पारिवारिक व्यस्तता के कारण प्रस्तुत नहीं कर सका था। आज के अंक में हम प्रस्तुत कर रहे हैं, पाँचवें प्रहर के कुछ मधुर रागों में चुनी हुई रचनाएँ। तीन-तीन घण्टों की अवधि में विभाजित दिन और रात के चौबीस घण्टों को आठ प्रहरों के रूप में पहचाना जाता है। इनमें पाँचवाँ प्रहर अर्थात रात्रि का पहला प्रहर, सूर्यास्त के बाद से लेकर रात्रि लगभग नौ बजे तक की अवधि को माना जाता है। इस प्रहर में गाये-बजाए जाने वाले राग गहराते अन्धकार में प्रकाश के विस्तार की अनुभूति कराते हैं। आज के अंक में हम ऐसे ही कुछ रागों पर आपसे चर्चा करेंगे। पाँ चवें प्रहर के रागों में आज हम सबसे पहले राग कामोद पर चर्चा करेंगे। कल्याण थाट और कल्याण अंग से संचालित होने वाले इस राग को कुछ विद्वान काफी थाट के अंतर्गत भी मानते हैं। औड़व-सम्पूर्ण जाति

गायक मुकेश फिल्म ‘अनुराग’ में बने संगीतकार

भारतीय सिनेमा के सौ साल – 34 स्मृतियों का झरोखा : ‘किसे याद रखूँ किसे भूल जाऊँ...’   भारतीय सिनेमा के शताब्दी वर्ष में ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ द्वारा आयोजित विशेष अनुष्ठान- ‘स्मृतियों का झरोखा’ में आप सभी सिनेमा-प्रेमियों का हार्दिक स्वागत है। आज माह का पाँचवाँ गुरुवार है और नए वर्ष की नई समय सारिणी के अनुसार माह का पाँचवाँ गुरुवार हमने आमंत्रित अतिथि लेखकों के लिए सुरक्षित कर रखा है। आज ‘स्मृतियों का झरोखा’ का यह अंक आपके लिए पार्श्वगायक मुकेश के परम भक्त और हमारे नियमित पाठक पंकज मुकेश लिखा है। पंकज जी ने गायक मुकेश के व्यक्तित्व और कृतित्व पर गहन शोध किया है। अपने शुरुआती दौर में मुकेश ने फिल्मों में पार्श्वगायन से अधिक प्रयत्न अभिनेता बनने के लिए किये थे, इस तथ्य से अधिकतर सिनेमा-प्रेमी परिचित हैं। परन्तु इस तथ्य से शायद आप परिचित न हों कि मुकेश, 1956 में प्रदर्शित फिल्म ‘अनुराग’ के निर्माता, अभिनेता और गायक ही नहीं संगीतकार भी थे। आज के ‘स्मृतियों का झरोखा’ में पंकज जी ने मुकेश के कृतित्व के इन्हीं पक्षों, विशेष रूप से उनकी संगीतकार-प्र