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Showing posts with the label kishore kumar

न तो कारवाँ की तलाश है न तो हमसफ़र की क्योंकि ये इश्क इश्क है....कहा रोशन और मजरूह के साथ गायक गायिकाओं की एक पूरी टीम ने

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 475/2010/175 आ ज श्रीकृष्ण जन्माष्टमी है। इस पवित्र पर्व पर हम अपने सभी श्रोताओं व पाठकों को अपनी शुभकामनाएँ देते हैं। दोस्तों, आप समझ रहे होंगे कि क्योंकि क़व्वालियों की शृंखला चल रही है, तो जन्माष्टमी पर श्री कृष्ण का कोई गीत तो हम सुनवा नहीं पाएँगे 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में, है न? लेकिन ज़रा ठहरिए, कम से कम एक क़व्वाली ऐसी ज़रूर है जिसमें श्री कृष्ण का भी ज़िक्र है, और साथ ही राधा और मीरा का भी। क्यों चौंक गए न? जी हाँ, यह सच है, इस राज़ पर से अभी पर्दा उठने वाला है। फ़िल्म संगीत में क़व्वालियों को लोकप्रिय बनाने में संगीतकार रोशन का योगदान बेहद महत्वपूर्ण माना जाता है। ऐसा नहीं कि उनसे पहले किसी ने मशहूर क़व्वाली फ़िल्मों के लिए नहीं बनाई, लेकिन रोशन साहब ने पारम्परिक क़व्वालियों का जिस तरह से फ़िल्मीकरण किया और जन जन में लोकप्रिय बनाया, ऐसा करने का श्रेय उन्हें ही दिया जाता रहा है। आज 'मजलिस-ए-क़व्वाली' में रोशन साहब की बनाई हुई सब से लोकप्रिय क़व्वाली की बारी, और बहुत लोगों के अनुसार यह हिंदी फ़िल्म संगीत की सब से यादगार क़व्वाली है। दरअसल ये दो

जाने क्या सोच कर नहीं गुजरा....गुलज़ार साहब के गीतों से सजा हर लम्हा कुछ सोचता रुक जाता है हमारे जीवन में भी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 470/2010/170 ओ ल्ड इज़ गोल्ड' पर गुलज़ार साहब के लिखे गीतों की लघु शृंखला 'मुसाफ़िर हूँ यारों' की अंतिम कड़ी में आपका स्वागत है। दोस्तों, अभी शायद कल ही हमने ज़िक्र किया था गुलज़ार साहब के ग़ैर पारम्परिक रूपक और उपमाओं का। जिस ख़ूबसूरती से वो रूपकों का इस्तेमाल करते है, उसी अंदाज़ में विरोधाभास का एक उदाहरन देखिए कि जब वो लिखते हैं "जाने क्या सोच कर नहीं गुज़रा, एक पल रात भर नहीं गुज़रा"। एक पल जो हक़ीक़त में एक पल में ही गुज़र जाता है, गुलज़ार साहब ने उस पल को रात भर नहीं गुज़रने दिया। विरोधाभास का इससे बेहतर इस्तेमाल भला और क्या हो सकता है। आज फ़िल्म 'किनारा' के इसी गीत के साथ इस शृंखला का समापन कर रहे हैं। राहुल देव बर्मन की तर्ज़ पर यह गीत किशोर कुमार ने गाया था। गुलज़ार साहब के शब्दों में ये रही इस गीत की भूमिका - "ज़िंदगी कभी पलों में गुज़र जाती है, कभी ज़िंदगी भर एक पल नहीं गुज़रता। इंदर की ज़िंदगी में भी ऐसा ही एक पल ठहर गया था जिसे वो आरति के नाम से पहचान सकता था। रात गुज़र रही थी लेकिन वह एक पल सारी रात पे भारी था। जा

राह में रहते हैं, यादों में बसर करते हैं.....मुसाफिर गुलज़ार के यायावर दिल की बयानी है ये गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 465/2010/165 "मु साफ़िर हूँ यारों, ना घर है ना ठिकाना, मुझे चलते जाना है, बस चलते जाना"। दोस्तों, गुलज़ार साहब के इसी गीत के बोलों को लेकर हमने इस शृंखला का नाम रखा है 'मुसाफ़िर हूँ यारों'। अब देखिए ना, कुछ कुछ इसी भाव से मिलता जुलता गुलज़ार साहब ने एक और गीत भी तो लिखा था फ़िल्म 'नमकीन' में! याद आया? "राह पे रहते है, यादों पे बसर करते हैं, ख़ुश रहो अहले वतन, हम तो सफ़र करते हैं"। किसी ट्रक ड्राइवर के किरदार के लिए इस गीत से बेहतर गीत शायद उसके बाद फिर कभी नहीं बन पाया है। किशोर कुमार की आवाज़ में राहुल देव बर्मन के संगीत से सँवरे इस गीत को आज हम पेश कर रहे हैं। 'नमकीन' गुलज़ार साहब के फ़िल्मी करीयर की एक बेहद महत्वपूर्ण फ़िल्म रही। यह १९८२ की फ़िल्म थी जिसका निर्देशन भी गुलज़ार साहब ने ही किया था। शर्मिला टैगोर, संजीव कुमार, वहीदा रहमान, शबाना आज़मी और किरण वैराले फ़िल्म के मुख्य किरदार निभाये। यह समरेश बासु की कहानी पर बनी फ़िल्म थी जिनकी कहानी पर गुलज़ार साहब ने उससे पहले १९७७ में फ़िल्म 'किताब' का निर्माण क

वो एक दोस्त मुझको खुदा सा लगता है.....सुनेंगे इस गज़ल को तो और भी याद आयेंगें किशोर दा

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 454/2010/154 मो हम्मद रफ़ी, आशा भोसले, और लता मंगेशकर के बाद आज बारी है किशोर दा, यानी किशोर कुमार की। और क्यों ना हो, आज ४ अगस्त जो है। ४ अगस्त यानी किशोर दा का जन्मदिन। पिछले साल आज ही के दिन से 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर हमने आपको सुनवाया था किशोर दा के गाए दस अलग अलग मूड के गीतों पर आधारित शृंखला 'दस रूप ज़िंदगी के और एक आवाज़ - किशोर कुमार'। और इस साल, यानी कि आज के दिन जब ८० के दशक के कुछ बेहद ख़ूबसूरत ग़ज़लों की शृंखला 'सेहरा में रात फूलों की' चल ही रही है, तो क्यों ना किशोर दा की गाई एक बहुत ही कम सुनी लेकिन बेहद सुंदर ग़ज़ल को याद किया जाए। यह फ़िल्म थी 'सुर्ख़ियाँ' जो आयी थी सन् १९८५ में। यह एक समानांतर फ़िल्म थी जिसका निर्माण अनिल नागरथ ने किया था और निर्देशक थे अशोक त्यागी। फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे नसीरुद्दिन शाह, मुनमुन सेन, सुरेश ओबेरॊय, रामेश्वरी, अरुण बक्शी, ब्रह्म भारद्वाज, कृष्ण धवन, गुलशन ग्रोवर, एक. के. हंगल, पद्मिनी कपिला, भरत कपूर, पिंचू कपूर, कुलभूषण खरबंदा, विनोद पाण्डेय, सुधीर पाण्डेय, आशा शर्मा और दिनेश ठाकुर।

ठंडी हवा ये चाँदनी सुहानी.....और ऐसे में अगर किशोर दा सुनाएँ कोई कहानी तो क्यों न गुनगुनाये जिंदगी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 450/2010/150 'गी त अपना धुन पराई', आज हम आ पहुँचे हैं इस शृंखला की अंतिम कड़ी पर। पिछले नौ कड़ियों में आपने नौ अलग अलग संगीतकारों के एक एक गीत सुनें जिन गीतों की प्रेरणा उन्हे किसी विदेशी धुन से मिली थी। हमने उन विदेशी गीतों की भी थोड़ी चर्चा की। आज अंतिम कड़ी के लिए हमने चुना है संगीतकार किशोर कुमार को। जी हाँ, एक ज़बरदस्त गायक तो किशोर दा थे ही, एक अच्छे संगीतकार भी थे। उन्होने बहुत ज़्यादा फ़िल्मों में संगीत तो नहीं दिया, लेकिन जितने भी दिए लाजवाब दिए। उनकी धुनों से सजी 'झुमरू', 'दूर का राही' और 'दूर गगन की छाँव में' जैसे फ़िल्मों के संगीत को कौन भुला सकता है भला! तो आज हमने उनकी सन् १९६१ की फ़िल्म 'झुमरू' का एक गीत चुना है उन्ही का गाया हुआ - "ठण्डी हवा ये चांदनी सुहानी, ऐ मेरे दिल सुना कोई कहानी"। कुछ कुछ वाल्ट्स की रीदम जैसी इस गीत की धुन प्रेरित है १९५५ में बनी जुलिअस ल रोसा के "दोमानी" गीत से। "दोमानी" व्क इटालियन शब्द है जिसका अर्थ है "कल" (tomorrow)| गीत की शुरुआत तो हू-ब-ह

पल पल दिल के पास तुम रहती हो....कुछ ऐसे ही पास रहते है कल्याणजी आनंदजी के स्वरबद्ध गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 425/2010/125 क ल्याणजी-आनंदजी के संगीत सफ़र के विशाल सुर-भण्डार से १० मोतियाँ चुन कर उन पर केन्द्रित लघु शृंखला 'दिल लूटने वाले जादूगर' को इन दिनों हम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर चला रहे हैं। पिछले चार दिनों से हमने ६० के दशक के गानें सुनें, आइए आज हम आगे बढ़ निकलते हैं ७० के दशक में। ७० का दशक एक ऐसा दशक साबित हुआ कि जिसमें ५० और ६० के दूसरे अग्रणी संगीतकार कुछ पीछे लुढ़कते चले गए, और जिन तीन संगीतकारों के गीतों ने लोगों के दिलों पर व्यापक रूप से कब्ज़ा जमा लिया, वो संगीतकार थे राहुल देव बर्मन, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल और कल्याणजी-आनंदजी। इन तीनों संगीतकारों ने इस दशक में असंख्य हिट गीत दिए और अपार शोहरत हासिल की। आज हमने जिस गीत को चुना है, वह है फ़िल्म 'ब्लैकमेल' का अतिपरिचित "पल पल दिल के पास तुम रहती हो"। किशोर कुमार और कल्याणजी-आनंदजी के कम्बिनेशन के गानों का ज़िक्र हो और इस गाने की बात ना छिड़े यह असंभव है। १९७३ की फ़िल्म 'ब्लैकमेल' का यह गीत फ़िल्माया गया था, जी नहीं, धर्मेन्द्र पर नहीं, बल्कि राखी पर। राखी को अपने प्रेमी ध

हास्य गीतों की परंपरा को भी बखूबी निभाया है पीढ़ी दर पीढ़ी संगीतकारों -गीतकारों ने

ओल्ड इस गोल्ड /रिवाइवल # २५ आ ज कल्याणजी-आनंदजी के गीत की बारी। फ़िल्म 'कसौटी' में प्राण साहब पर फ़िल्माया गया था किशोर कुमार का नेपाली अंदाज़ में गाया हुआ एक बेहद लोकप्रिय हास्य गीत "हम बोलेगा तो बोलोगे के बोलता है"। क्योंकि बात हास्य गीत की हो रही है और आप यह भी जानते होंगे कि कल्याणजी भाई का कैसा ज़बरदस्त 'सेन्स ऒफ़ ह्युमर' हुआ करता था। तो चलिए यह गीत सुनने से पहले कल्याणजी के कहे कुछ शब्द हो जाए, जिनसे उनके इस सेन्स ऒफ़ ह्युमर का एक छोटा सा नमूना आपके सामने प्रस्तुत हो जाएगा। कल्याणजी भाई कहते हैं (सौजन्य: विविध भारती): "यह ह्युमर का सबजेक्ट निकल आया है तो मैं कहूँगा कि ह्युमर को मैं बहुत महत्व देता हूँ। क्या है कि जहाँ हम जाएँ लोग हँसते नहीं, तो इसमें सब से ज़्यादा अगर किसी ने मुझे इन्स्पायर किया तो वो हैं आचार्य रजनीश जी, यानी कि ओशो। उन्होने मुझे बोला था कि 'कल्याणजी, आप का जो आर्ट है, उसको आप डेवेलप कीजिए, वह कमाल का आर्ट है। तो उन्होने मुझे बहुत इन्स्पायर किया। जब फ़िल्म बनी थी 'नन्हा फ़रिश्ता', तो वह मद्रास की पहली फ़िल्म थी हमारी।

गुदगुदाने वाले गीतों से श्रोताओं को झूमने वाले झुमरू किशोर दा का था एक संजीदा चेहरा भी

ओल्ड इस गोल्ड /रिवाइवल # १६ आ ज 'ओल्ड इज़ गोल्ड रिवाइवल' पर पेश है फ़िल्म 'मिली' का एक गीत। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की २३२ वीं कड़ी में, १३ अक्तुबर के दिन (जो किशोर दा की पुण्य तिथि और दादामुनि अशोक कुमार की जयंती है), हमने इस फ़िल्म से "आए तुम याद मुझे" गीत सुनवाया था। आज उसी फ़िल्म से किशोर दा का गाया दूसरा गीत "बड़ी सूनी सूनी है ज़िंदगी" हम सुनवा रहे हैं। तो उसी आलेख से हम आज आपको फिर एक बार बता रहे हैं फ़िल्म 'मिली' के बारे में। फ़िल्म 'मिली' की कहानी कुछ इस तरह की थी कि मिली (जया बच्चन) एक बहुत ही हँसमुख और ज़िंदादिल लड़की है, जो अपने पिता (अशोक कुमार) के साथ एक हाउसिंग्‍ कॊम्प्लेक्स में रहती है। उसे उस कॊम्प्लेक्स के बच्चों से बहुत लगाव है और वो उन्ही के दल में भिड़ कर दिन भर सारी शैतानियाँ करती रहती हैं। याद है ना लता जी का गाया "मैने कहा फूलों से" गीत? तो साहब, ऐसे में उस बिल्डिंग में आ बसते हैं हमारे अमिताभ बच्चन साहब (किरदार का नाम मुझे याद नहीं), जो एक निहायती गम्भीर, बद-मिज़ाज नौजवान है जिसके चेहरे पर शायद ही

न कोई था, न कोई होगा हरफनमौला किशोर दा जैसा

ओल्ड इस गोल्ड /रिवाइवल # १२ आ ज 'ओल्ड इज़ गोल्ड रिवाइवल' में किशोर कुमार की यादें ताज़ा होंगी। फ़िल्म 'झुमरू' का वही दर्द भरा नग़मा "कोई हमदम ना रहा, कोई सहारा न रहा, हम किसी के न रहे, कोई हमारा न रहा"। गीत मजरूह साहब का और बाकी सब कुछ किशोर दा का। आइए आज इस गीत को एक नए अंदाज़ में सुनने से पहले 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की बीती हुई कड़ियों के सुर सरिता में ग़ोते लगा कर किशोर दा के बारे में कहे गए कुछ बातें ढूंढ निकाल लाते हैं। ये हैं आनंदजी भाई जो बता रहे हैं किशोर कुमार के बारे में विविध भारती के 'उजाले उनकी यादों के' कार्यक्रम में: प्र: अच्छा आनंदजी, किशोर कुमार ने कोई विधिवत तालीम नहीं ली थी, इसके बावजूद भी कुछ लोग जन्मगत प्रतिभाशाली होते हैं, जैसे उपरवाले ने उनको सब कुछ ऐसे ही दे दिया है। उनकी गायकी की कौन सी बात आप को सब से ज़्यादा अपील करती थी? देखिये, मैने बतौर संगीतकार कुछ ४०-५० साल काम किया है, लेकिन इतना कह सकता हूँ कि 'it should be a matured voice', और यह कुद्रतन होता है। और यहाँ पर क्या है कि कितना भी अच्छा गाते हों आप, लेकिन '

राजेश रोशन को था अपनी धुन पर पूरा विश्वास जिसकी बदौलत सुनने वालों को मिला एक बेहद मनभावन गीत

ओल्ड इस गोल्ड /रिवाइवल # ०६ रा जेश रोशन ने अपने करीयर में कई बार रबीन्द्र संगीत से धुन लेकर हिंदी फ़िल्मी गीत तैयार किया है। इनमें से सब से मशहूर गीत रहा है फ़िल्म 'याराना' का "छू कर मेरे मन को किया तूने क्या इशारा"। आज इस गीत की बारी 'ओल्ड इज़ गोल्ड रिवाइवल' में। क्योंकि यह गीत अंजान ने लिखा है, तो आज जान लेते हैं इस गीत के बारे में अनजान साहब के बेटे समीर क्या कह रहे हैं विविध भारती पर। "उन्होने (अंजान ने) मुखड़ा मुझे सुनाया "छू कर मेरे मन को किया तूने क्या इशारा", मुझे लगा कि बहुत ख़ूबसूरत गाना बनेगा। मगर जब हम गाँव से वापस आए और सिटिंग् हुई और रिकार्डिंग् पर जब गाना पहुँचा तो संजोग की बात थी कि रिकार्डिंग् में जाने से पहले तक प्रोड्युसर ने वो गाना नहीं सुना था। और रिकार्डिंग् में जब प्रोड्युसर आया और उन्होने जैसे ही गाना सुना तो बोले कि रिकार्डिंग् कैन्सल करो, मुझे यह गाना रिकार्ड नहीं करना है। उन्होने कहा कि इतना बेकार गाना मैंने अपनी ज़िंदगी में नहीं सुना, इतना खराब गाना राजु तुमने हमारी फ़िल्म के लिए बनाया है, मुझे यह गाना रिकार्ड नहीं क

तुमसे मिला था प्यार....गुलज़ार का लिखा ये गीत है योगेश पाटिल को पसंद

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 406/2010/106 'प संद अपनी अपनी' में फ़रमाइशी गीतों का सिलसिला जारी है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर। आज बारी है योगेश पाटिल के पसंद के गाने की। आप ने सुनना चाहा है फ़िल्म 'खट्टा मीठा' से "तुमसे मिला था प्यार, कुछ अच्छे नसीब थे, हम उन दिनों अमीर थे जब तुम करीब थे"। बड़ा ही ख़ूबसूरत गीत है और आम गीतों से अलग भी है। यह उन गीतों की श्रेणी में आता है जिन गीतों में गायक गायिका के आवाज़ों के साथ साथ नायक नायिका की आवाज़ें भी शामिल होती हैं। इस गीत में मुख्य आवाज़ लता मंगेशकर की है, अंत में किशोर कुमार दो पंक्तियाँ गाते हैं, गीत की शुरुआत में राकेश रोशन और बिंदिया गोस्वामी के संवाद हैं और इंटरल्युड में भी राकेश रोशन के संवाद हैं। इस गीत को लिखा है गुलज़ार ने और संगीतकार हैं राजेश रोशन। भले ही राजेश रोशन समय समय पर विवादों से घिरे रहे, लेकिन हक़ीक़त यह भी है कि उन्होने कुछ बेहद अच्छे गानें भी हमें दिए हैं। और उनके द्वारा रचे लता-किशोर के गाए सभी युगलगीत बेहद लोकप्रिय हुए हैं। आज के प्रस्तुत गीत में गुलज़ार साहब ने संवादों के साथ गीत को इस ख़ूबसूरती

आज मुझे कुछ कहना है...जब साहिर की अधूरी चाहत को स्वर दिए सुधा मल्होत्रा और किशोर कुमार ने

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 402/2010/102 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' पर कल से हमने शुरु की है आप ही के पसंदीदा गीतों पर आधारित लघु शृंखला 'पसंद अपनी अपनी'। आज इसकी दूसरी कड़ी में प्रस्तुत है रश्मि प्रभा जी के पसंद का एक गीत। इससे पहले कि हम रश्मि जी के पसंद के गाने का ज़िक्र करें, हम यह बताना चाहेंगे कि ये वही रश्मि जी हैं जो एक जानी मानी लेखिका हैं, और प्रकाशन की बात करें तो "कादम्बिनी" , "वांग्मय", "अर्गला", "गर्भनाल" के साथ साथ कई महत्त्वपूर्ण अखबारों में उनकी रचनायें प्रकाशित हो चुकी हैं। उनकी कुछ पुस्तकें भी प्रकाशित हुई है जिसमें अभी हाल ही में हिंद युग्म से प्रकाशित "शब्दों का रिश्ता" भी शामिल है. जिन्हे मालूम नहीं उनके लिए हम यह बता दें कि रश्मि जी कवि पन्त की मानस पुत्री श्रीमती सरस्वती प्रसाद की बेटी हैं और इनका नामकरण स्वर्गीय सुमित्रा नंदन पन्त जी ने ही किया था। रश्मि जी आवाज़ से भी सक्रिय रूप से जुड़ी हुईं हैं और कविताओं के अलावा 'आवाज़' के 'गुनगुनाते लम्हे' सीरीज़ में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है। तो रश्

आदमी जो कहता है आदमी जो सुनता है....जिंदगी भर पीछा करते हैं कुछ ऐसे गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 387/2010/87 'मैं शायर तो नहीं' - गीतकार आनंद बक्शी पर केन्द्रित इस लघु शृंखला में आज जिस गीत की बारी है वह एक दार्शनिक गीत है। इस जॉनर के गानें भी बक्शी साहब ने क्या ख़ूब लिखे हैं। कुछ की याद दिलाएँ? "ज़िंदगी के सफ़र में गुज़र जाते हैं जो मुकाम, वो फिर नहीं आते", "आदमी मुसाफ़िर है, आता है जाता है", "दो रंग दुनिया के और दो रास्ते", "इक बंजारा गाए जीवन के गीत सुनाए", "गाड़ी बुला रही है सीटी बजा रही है, चलना ही ज़िंदगी है चलती ही जा रही है", "ये जीवन है, इस जीवन का, यही है रंग रूप", "दिए जलते हैं फूल खिलते हैं, बड़ी मुश्किल से मगर दुनिया में दोस्त मिलते हैं", और भी न जाने कितने ऐसे गीत हैं जिनमें ज़िंदगी के फलसफे को समेटा था बक्शी साहब ने। आज हम आपके लिए लेकर आए हैं फ़िल्म 'मजबूर' से "आदमी जो कहता है, आदमी जो सुनता है, ज़िंदगी भर वो सदाएँ पीछा करती हैं"। बहुत ही असरदार गीत है और यह एक ऐसा गीत है जिसके साथ हर आदमी अपनी ज़िंदगी को जोड़ सकता है। क्या ख़ूब कहा है बक्शी साहब

भूल गया सब कुछ .... याद रहे मगर बख्शी साहब के लिखे सरल सहज गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 386/2010/86 आ नंद बक्शी उन गीतकारों मे से हैं जिन्होने संगीतकारों की कई पीढ़ियों के साथ कंधे से कंधा मिलाते हुए हिट काम किया है। जहाँ एक तरफ़ सचिन देव बर्मन के साथ काम किया है, वहीं उनके बेटे राहुल देव बर्मन के साथ भी एक लम्बी पारी खेली है। कल्याणजी-आनंदजी के धुनों पर भी गानें लिखे हैं और विजु शाह के भी। चित्रगुप्त - आनंद मिलिंद, श्रवण - संजीव दर्शन आदि। फ़िल्म 'देवर' में संगीतकार रोशन के साथ भी काम किया है, और रोशन साहब के बेटे राजेश रोशन के साथ तो बहुत सारी फ़िल्मों में उनका साथ रहा। आज हम आपको बक्शी साहब का लिखा और राजेश रोशन का स्वरबद्ध किया हुआ एक गीत सुनवाना चाहेंगे। इस गीत के बारे में ख़ुद आनंद बक्शी साहब से ही जानिए, जो उन्होने विविध भारती के जयमाला कार्यक्रम में कहे थे: " मरहूम रोशन मेरे मेहरबान दोस्तों में से थे। उनके साथ मैंने काफ़ी गीत लिखे हैं। मुझे ख़ुशी है कि उनका बेटा राजेश उनके नाम को रोशन कर रहा है। राजेश रोशन के साथ मुझे फ़िल्म 'जुली' में काम करने का मौका मिला। तो फ़िल्म 'जुली' का गीत, जिसे लता और किशोर ने गाया है

कुछ तो लोग कहेंगें...बख्शी साहब के मिजाज़ को भी बखूबी उभारता है ये गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 383/2010/83 आ नंद बक्शी साहब के लिखे गीतों पर आधारित इस लघु शृंखला 'मैं शायर तो नहीं' को आगे बढ़ाते हुए हम आ पहुँचे थे १९६७ की फ़िल्म 'मिलन' पर। इसके दो साल बाद, यानी कि १९६९ में जब शक्ति सामंत ने एक बड़ी ही नई क़िस्म की फ़िल्म 'आराधना' बनाने की सोची तो उसमें उन्होने हर पक्ष के लिए नए नए प्रतिभाओं को लेना चाहा। बतौर नायक राजेश खन्ना और बतौर नायिका शर्मीला टैगोर को चुना गया। अब हुआ युं कि शुरुआत में यह तय हुआ था कि रफ़ी साहब बनेंगे राजेश खन्ना की आवाज़। लेकिन उन दिनों रफ़ी साहब एक लम्बी विदेश यात्रा पर गए हुए थे। इसलिए शक्तिदा ने किशोर कुमार का नाम सुझाया। उन दिनो किशोर देव आनंद के लिए गाया करते थे, इसलिए सचिनदा पूरी तरह से शंका-मुक्त नहीं थे कि किशोर गाने के लिए राज़ी हो जाएंगे। शक्ति दा ने किशोर को फ़ोन किया, जो उन दिनों उनके दोस्त बन चुके थे बड़े भाई अशोक कुमार के ज़रिए। किशोर ने जब गाने से इनकार कर दिया तो शक्तिदा ने कहा, "नखरे क्युँ कर रहा है, हो सकता है कि यह तुम्हारे लिए कुछ अच्छा हो जाए "। आख़िर में किशोर राज़ी हो गए। शु