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गुलज़ार के महकते शब्दों पर "पंचम" सुरों की शबनम यानी कुछ ऐसे गीत जो जेहन में ताज़ा मिले, खिले फूलों से

ओल्ड इस गोल्ड /रिवाइवल # २२ 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड रिवाइवल' की २२-वें कड़ी में आप सभी का एक बार फिर हार्दिक स्वागत है। आज पेश है गुलज़ार और पंचम की सदाबहार जोड़ी का एक नायाब नग़मा फ़िल्म 'घर' का। इस फ़िल्म से किशोर कुमार का गाया " फिर वही रात है " आप 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर सुन चुके हैं आज इस फ़िल्म से जिस गीत का कवर वर्ज़न हम आप तक पहुँचा रहे हैं, वह है "आपकी आँखों में कुछ महके हुए से राज़ हैं, आप से भी ख़ूबसूरत आप के अंदाज़ हैं"। लता-किशोर का गाया ये युगल गीत आज भी अक्सर रेडियो पर सुनने को मिल जाता है। दोस्तों, पंचम दा के निधन के बाद गुलज़ार साहब ने अपने इस अज़ीज़ दोस्त को याद करते हुए काफ़ी कुछ कहे हैं समय समय पर। यहाँ पे हम उन्ही में से कुछ अंश पेश कर रहे हैं। इन्हे विविध भारती पर प्रसारित किया गया था विशेष कार्यक्रम 'पंचम के बनाए गुलज़ार के मन चाहे गीत' के अन्तर्गत। "याद है बारिशो के वो दिन थे पंचम? पहाड़ियों के नीचे वादियों में धुंध से झाँक कर रेल की पटरियाँ गुज़रती थीं, और हम दोनों रेल की पटरियों पर बैठे, जैसे धुंध में दो पौधें हों

बुल्ले शाह के "रांझा-रांझा" को "रावण" के रंग में रंग दिया रहमान और गुलज़ार ने... साथ है "बीरा" भी

ताज़ा सुर ताल १६/२०१० सुजॊय - ताज़ा सुर ताल' के एक नए अंक के साथ हम सभी श्रोताओं व पाठकों का हार्दिक स्वागत करते हैं। पिछले हफ़्ते किसी कारण से 'टी.एस.टी' की यह महफ़िल सज नहीं पाई थी। दोस्तों, सजीव जी इन दिनों छुट्टियों के मूड में हैं, इसलिए आज मेरे साथ 'ताज़ा सुर ताल' में उनकी जगह पर हैं विश्व दीपक तन्हा जी। विश्व दीपक जी, वैसे तो आप 'आवाज़' में नए नहीं हैं, लेकिन इस स्तंभ में आप पहली बार मेरे साथ हैं। इसलिए मैं आपका स्वागत करता हूँ। विश्व दीपक - शुक्रिया सुजॊय जी! मुझे भी बेहद आनंद आ रहा है इस स्तंभ में शामिल हो कर। वैसे मैं एक बार आपकी अनुपस्थिति में फ़िल्म 'रण' के गीत संगीत की चर्चा कर चुका हूँ इसी स्तंभ में। इसलिए यह कह सकते हैं कि यह दूसरी मर्तबा है कि मैं इस स्तंभ में शामिल हूँ बतौर होस्ट और जिस तरह का सजीव जी का मूड है, उस हिसाब से मुझे लगता है कि अगले एक-डेढ महीने तक मैं आपके साथ रहूँगा। खैर यह बताईये कि आज किस फ़िल्म के संगीत की चर्चा करने का इरादा है? सुजॊय - देखिए इन दिनों जिन फ़िल्मों के प्रोमोज़ और गीतों की झलकियाँ दिखाई व सुनाई दे रहीं

ज़ुल्मतकदे में मेरे.....ग़ालिब को अंतिम विदाई देने के लिए हमने विशेष तौर पर आमंत्रित किया है जनाब जगजीत सिंह जी को

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #८० आ ज से कुछ दो या ढाई महीने पहले हमने ग़ालिब पर इस श्रृंखला की शुरूआत की थी और हमें यह कहते हुए बहुत हीं खुशी हो रही है कि हमने सफ़लतापूर्वक इस सफ़र को पूरा किया है क्योंकि आज इस श्रृंखला की अंतिम कड़ी है। इस दौरान हमने जहाँ एक ओर ग़ालिब के मस्तमौला अंदाज़ का लुत्फ़ उठाया वहीं दूसरी ओर उनके दु:खों और गमों की भी चर्चा की। ग़ालिब एक ऐसी शख्सियत हैं जिन्हें महज दस कड़ियों में नहीं समेटा जा सकता, फिर भी हमने पूरी कोशिश की कि उनकी ज़िंदगी का कोई भी लम्हा अनछुआ न रह जाए। बस यही ध्यान रखकर हमने ग़ालिब को जानने के लिए उनका सहारा लिया जिन्होंने किसी विश्वविद्यालय में तो नहीं लेकिन दिल और साहित्य के पाठ्यक्रम में ग़ालिब पर पी०एच०डी० जरूर हासिल की है। हमें उम्मीद है कि आप हमारा इशारा समझ गए होंगे। जी हाँ, हम गुलज़ार साहब की हीं बात कर रहे हैं। तो अगर आपने ग़ालिब पर चल रही इस श्रृंखला को ध्यान से पढा है तो आपने इस बात पर गौर ज़रूर किया होगा कि ग़ालिब पर आधारित पहली कड़ी हमने गुलज़ार साहब के शब्दों में हीं तैयार की थी, फिर तीसरी या चौथी कड़ी को भी गुलज़ार साहब ने संभाला था..... अब

तुमसे मिला था प्यार....गुलज़ार का लिखा ये गीत है योगेश पाटिल को पसंद

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 406/2010/106 'प संद अपनी अपनी' में फ़रमाइशी गीतों का सिलसिला जारी है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर। आज बारी है योगेश पाटिल के पसंद के गाने की। आप ने सुनना चाहा है फ़िल्म 'खट्टा मीठा' से "तुमसे मिला था प्यार, कुछ अच्छे नसीब थे, हम उन दिनों अमीर थे जब तुम करीब थे"। बड़ा ही ख़ूबसूरत गीत है और आम गीतों से अलग भी है। यह उन गीतों की श्रेणी में आता है जिन गीतों में गायक गायिका के आवाज़ों के साथ साथ नायक नायिका की आवाज़ें भी शामिल होती हैं। इस गीत में मुख्य आवाज़ लता मंगेशकर की है, अंत में किशोर कुमार दो पंक्तियाँ गाते हैं, गीत की शुरुआत में राकेश रोशन और बिंदिया गोस्वामी के संवाद हैं और इंटरल्युड में भी राकेश रोशन के संवाद हैं। इस गीत को लिखा है गुलज़ार ने और संगीतकार हैं राजेश रोशन। भले ही राजेश रोशन समय समय पर विवादों से घिरे रहे, लेकिन हक़ीक़त यह भी है कि उन्होने कुछ बेहद अच्छे गानें भी हमें दिए हैं। और उनके द्वारा रचे लता-किशोर के गाए सभी युगलगीत बेहद लोकप्रिय हुए हैं। आज के प्रस्तुत गीत में गुलज़ार साहब ने संवादों के साथ गीत को इस ख़ूबसूरती

आ दो दो पंख लगा के पंछी बनेंगे...आईये लौट चलें बचपन में इस गीत के साथ

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 396/2010/96 पा र्श्वगायिकाओं के गाए युगल गीतों पर आधारित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस लघु शृंखला 'सखी सहेली' की आज की कड़ी में हमने जिन दो आवाज़ों को चुना है, वो दोनों आवाज़ें ही हिंदी फ़िल्म संगीत के लिए थोड़े से हट के हैं। इनमें से एक आवाज़ है गायिका आरती मुखर्जी की, जो बंगला संगीत में तो बहुत ही मशहूर रही हैं, लेकिन हिंदी फ़िल्मों में बहुत ज़्यादा सुनाई नहीं दीं हैं। और दूसरी आवाज़ है गायिका हेमलता की, जिन्होने वैसे तो हिंदी फ़िल्मों के लिए बहुत सारे गीत गाईं हैं, लेकिन ज़्यादातर गीत संगीतकार रवीन्द्र जैन के लिए थे, और उनमें से ज़्यादातर फ़िल्में कम बजट की होने की वजह से उन्हे वो प्रसिद्धी नहीं मिली जिनकी वो सही मायने में हक़दार थीं। ख़ैर, आज हम इन दोनों गायिकाओं के गाए जिस गीत को सुनवाने के लिए लाए हैं, वह गीत इन दोनों के करीयर के शुरूआती दिनों के थे। यह फ़िल्म थी १९६९ की फ़िल्म 'राहगीर', जिसका निर्माण गीतांजली चित्रदीप ने किया था। बिस्वजीत और संध्या अभिनीत इस फ़िल्म में हेमन्त कुमार का संगीत था और गीत लिखे गुलज़ार साहब ने। इसमें आरती मुखर

तुम्हें हो न हो मुझको तो इतना यकीं है....रुना लैला की आवाज़ में गुलज़ार -जयदेव का रचा एक चुलबुला गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 373/2010/73 '१० गीत समानांतर सिनेमा के' लघु शृंखला के लिए आज हमने जिस गीत का चुनाव किया है, वह केवल फ़िल्म की दृष्टि से ही लीग से बाहर नहीं है, बल्कि इस गीत को जिस गायिका ने गाया है, वो भी हिंदी फ़िल्मी गीतों में बहुत कम सुनाई दी हैं। आज ज़िक्र गायिका रुना लैला की, और रुना जी की याद आते ही सब से पहले ज़हन में जो चुनिंदा गीत आ जाते हैं वे हैं "फुलोरी बिना चटनी कैसे बनी", "मेरा बाबू छैल छबीला मैं तो नाचूँगी", "दे दे प्यार दे", "दो दीवानें शहर में" और "तुम्हे हो ना हो मुझको तो इतना यक़ीं है"। जी हाँ, यही आख़िरी गीत आज हम सुनने ज रहे हैं। १९७७ की फ़िल्म 'घरोंदा' का यह गीत है। ७० के दशक से इस तरह की 'पैरलेल सिनेमा' या समानांतर सिनेमा मज़बूती पकड़ रही थी, जिनमें आम जनता के जीवन से जुड़ी सामाजिक मुद्दों को उठाया जाने लगा। समाज की सच्चाइयों पर से पर्दा उठाया जाने लगा। 'घरोंदा' एक ऐसी ही हक़ीक़त दर्शाने वाली फ़िल्म थी एक जोड़े की जो बम्बई में अपना फ़्लैट ख़रीदने के सपने देखा करते हैं। लेक

फिर वही रात है ख्वाब की....किशोर की जादुई आवाज़ में ढला एक काव्यात्मक गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 371/2010/71 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' की ३७१-वीं कड़ी में हम सभी श्रोताओं व पाठकों का हार्दिक स्वागत करते हैं। मित्रों, हमारी मुख्य धारा की हिंदी फ़िल्मों की आत्मा लगभग एक ही तरह की होती है, जिसे हम आम भाषा में फ़ॊरमुला फ़िल्में भी कहते हैं। नायक, नायिका, और खलनायक के इर्द-गिर्द घूमने वाली फ़िल्में ही संख्या में सब से ज़्यादा हैं, और इस तरह का आधार व्यावसायिक तौर पर फ़िल्म की सफलता की चाबी का काम करता है। लेकिन समय समय पर हमारे प्रतिभाशाली फ़िल्मकारों ने बहुत सी ऐसी फ़िल्में भी बनाई हैं जिनकी कहानी, जिनका पार्श्व, बिल्कुल अलग है, लीग से बिल्कुल हट के है। ये फ़िल्में हो सकता है कि बॊक्स ऒफ़िस पर अपना छाप न छोड़ सकी हो, लेकिन अच्छे फ़िल्मों के क़द्रदान इन फ़िल्मों को याद रखा करते हैं। इन फ़िल्मों को समानांतर सिनेमा या आम भाषा में पैरलेल सिनेमा कहा जाता है। इनमें से कई फ़िल्में ऐसी हैं जिनके गीत संगीत में भी अनूठापन है, जो साधारण फ़िल्मी गीतों से अलग सुनाई देते हैं। फ़िल्म के ना चलने से इनमें से कुछ गीतों की तरफ़ लोगों का कम ही ध्यान गया, लेकिन कुछ गानें ऐसे भी हु

रोएंगे हम हज़ार बार कोई हमें सताये क्यूँ.. नूरजहां की काँपती आवाज़ में मचल पड़ी ग़ालिब की ये गज़ल

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #७३ ला जिम था कि देखो मेरा रस्ता कोई दिन और, तनहा गये क्यों अब रहो तनहा कोई दिन और। ग़ालिब की ज़िंदगी बड़ी हीं तकलीफ़ में गुजरी और इस तकलीफ़ का कारण महज़ आर्थिक नहीं था। हाँ आर्थिक भी कई कारण थे, जिनका ज़िक्र हम आगे की कड़ियों में करेंगे। आज हम उस दु:ख की बात करने जा रहे हैं, जो किसी भी पिता की कमर तोड़ने के लिए काफ़ी होता है। ग़ालिब पर चिट्ठा(ब्लाग) चला रहे अनिल कान्त इस बारे में लिखते हैं: ग़ालिब के सात बच्चे हुए पर कोई भी पंद्रह महीने से ज्यादा जीवित न रहा. पत्नी से भी वह हार्दिक सौख्य न मिला जो जीवन में मिलने वाली तमाम परेशानियों में एक बल प्रदान करे. इनकी पत्नी उमराव बेगम नवाब इलाहीबख्शखाँ 'मारुफ़’ की छोटी बेटी थीं. ग़ालिब की पत्नी की बड़ी बहन को दो बच्चे हुए जिनमें से एक ज़ैनुल आब्दीनखाँ को ग़ालिब ने गोद ले लिया था. वह बहुत अच्छे कवि थे और 'आरिफ' उपनाम रखते थे. ग़ालिब उन्हें बहुत प्यार करते थे और उन्हें 'राहते-रूहे-नातवाँ' (दुर्बल आत्मा की शांति) कहते थे. दुर्भाग्य से वह भी भरी जवानी(३६ साल की उम्र) में मर गये. ग़ालिब के दिल पर ऐसी चोट लगी कि

मुझे क्या बुरा था मरना अगर एक बार होता.. चलिए याद करें हम ग़म-ए-रोज़गार से खस्ताहाल चचा ग़ालिब को

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #७१ हो गा कोई ऐसा भी कि ग़ालिब को न जाने शायर तो वो अच्छा है प' बदनाम बहुत है। इस शेर को पढने के बाद आप समझ हीं गए होंगे कि आज की महफ़िल किसकी शान में सजी है। आज से बस दो दिन पहले यानि कि १५ फरवरी को इस महान शायर की मौत की १४१वीं बरसी थी। संयोग देखिए कि उससे महज़ दो दिन पहले यानि कि १३ फरवरी को इस शायर के सच्चे और एकमात्र उत्तराधिकारी फैज़ अहमद फ़ैज़ की भी बरसी थी.. फ़र्क बस इतना था कि फ़ैज़ ने १३ फ़रवरी को जन्म लिया था तो १५ फ़रवरी को ग़ालिब ने अपनी अंतिम साँसें ली थीं। आज हमारे बीच फ़ैज़ भी नहीं हैं। इसलिए हम आज अपनी महफ़िल की ओर से इन दोनों महान शायरों को श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। आपने शायद यह गौर किया हो कि हमारी महफ़िल में आज से पहले फ़ैज़ की चार गज़लें/नज़्में शामिल हो चुकी हैं, लेकिन हमने आज तक ग़ालिब की एक भी गज़ल महफ़िल में पेश नहीं की है। अब यह तो हो हीं नहीं सकता कि कोई महफ़िल सजे, सजती रहे और सजते-सजते सत्तर रातें गुजर जाएँ लेकिन उस महफ़िल में उस शायर का नाम न लिया जाए जिसके बिना महफ़िल क्या, शायरी की छोटी-सी गुफ़्तगू भी अधूरी है। और फिर अगर ऐसा हमारी

वो शाम कुछ अजीब थी...जब किशोर दा की संजीदा आवाज़ में हेमंत दा के सुर थे

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 323/2010/23 आ ज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस कड़ी की शुरुआत में हम श्रद्धांजली अर्पित करते हैं इस देश के अन्यतम वीरों में से एक, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस को, जिनकी आज जयंती है। उन पर कई फ़िल्में बनीं हैं, आज इस वक़्त मुझे ऐसी ही किसी फ़िल्म के जिस गीत की याद आ रही है वह है "झंकारो झंकारो झननन झंकारो, झंकारो अग्निवीणा, आज़ाद होके बंधुओं जीयो, ये जीना कोई जीना, ये जीना क्या जीना"। आइए अब आगे बढ़ते हैं और इंदु जी के पसंद का तीसरा गीत सुनते हैं ख़ामोशी से। मेरा मतलब है फ़िल्म 'ख़ामोशी' से। वैसे दोस्तों, यह गीत इतना भावुक और नायाब है कि इसे बिल्कुल ख़ामोश होकर ही सुनें तो बेहतर है। "वो शाम कुछ अजीब थी, ये शाम भी अजीब है, वो कल भी पास पास थी, वो आज भी करीब है"। गुलज़ार साहब के बेहद बेहद बेहद असरदार बोल, हेमन्त कुमार का दिल को छू लेनेवाला संगीत, और उस पर किशोर कुमार की गम्भीर गायकी, कुल मिलाकर एक ऐसा गीत बना है कि दशकों बाद भी आज जब भी कभी इस गीत को सुनते हैं तो हर बार यह दिल को उतना ही छू जाता है जितना कि उस दौर के लोगों का छूता होगा। आख़ि

"इश्किया" विशाल और गुलज़ार ने दिया नया संगीतमय तोहफा

ताज़ा सुर ताल ०३/ २०१० सुजॊय - सजीव, यह इस साल के पहले महीने जनवरी का तीसरा 'ताज़ा सुर ताल' है। हमने अब तक इस महीने 'दुल्हा मिल गया', और वीर फ़िल्मों के संगीत की चर्चा की है। इनमें से 'दुल्हा मिल गया' रिलीज़ हो चुकी है, लेकिन फ़िल्म अब तक रफ़्तार नहीं पकड़ पाई है शाहरुख़ ख़ान के होने के बावजूद। सजीव - और सुजॊय, इसी महीने 'प्यार इम्पॊसिबल' और 'चांस पे डांस' भी प्रदर्शित हो चुकी है, लेकिन बहुत ज़्यादा उम्मीदें इनमें भी नज़र नहीं आ रही। बता सकते हो क्या कारण हो सकता है? सुजॊय - मुझे तो यही लगता है कि 'अवतार' और '३ इडियट्स' का नशा अभी तक लोगों के ज़हन से उतरा नहीं है। क्या होता है न कि हब कोई फ़िल्म बहुत ज़्यादा हिट हो जाती है, तो उसके ठीक बाद रिलीज़ होने वाली फ़िल्में कुछ हद तक उसकी चपेट में आ ही जाते हैं। अच्छा सजीव, इससे पहले कि हम आज के फ़िल्म की बातें शुरु करें, क्यों न आप जल्दी जल्दी 'प्यार इम्पॊसिबल' और 'चांस पे डांस' के म्युज़िक के बारे में हमारे पाठकों को एक हल्का सा आभास करा दें! सजीव - ज़रूर! देखो सुजॊय,