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राग भैरवी : SWARGOSHTHI – 491 : RAG BHAIRAVI

स्वरगोष्ठी – 491 में आज   राज कपूर के विस्मृत संगीतकार – 7 : संगीतकार – सलिल चौधरी   राज कपूर की फिल्म “जागते रहो” में फंतासी कम और सामाजिक यथार्थ अधिक है  उस्ताद राशिद खाँ  संगीतकार सलिल चौधरी  “रेडियो प्लेबैक इण्डिया” के साप्ताहिक स्तम्भ "स्वरगोष्ठी" के मंच पर जारी हमारी श्रृंखला “राज कपूर के विस्मृत संगीतकार" की सातवीं कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सब संगीत प्रेमियों का हार्दिक स्वागत करता हूँ। इस श्रृंखला में हम फिल्म निर्माता, निर्देशक और अभिनेता राज कपूर के फिल्मी जीवन के पहले दशक के कुछ विस्मृत संगीतकारों की और उनकी कृतियों पर चर्चा कर रहे हैं। इन फिल्मों में से राज कपूर ने कुछ फिल्मों का निर्माण, कुछ का निर्देशन और कुछ फिल्मों में केवल अभिनय किया था। आरम्भ के पहले दशक अर्थात 1948 में प्रदर्शित फिल्म "आग" से लेकर 1958 में प्रदर्शित फिल्म "फिर सुबह होगी" तक की चर्चा इस श्रृंखला में की जाएगी। आमतौर पर राज कपूर की फिल्मों के अधिकतर संगीतकार शंकर जयकिशन ही रहे हैं। उन्होने राज कपूर की कुल 20 फिल्मों का संगीत निर्देशन किया है। इसके अलावा बाद की कु

स्वतंत्रता दिवस के इस सप्ताह में पढ़िये कुछ गीतकारों के संदेश हमारे फ़ौजी जवानों के नाम

स्मृतियों के स्वर - 07 स्वतंत्रता दिवस सप्ताह में विशेष 'उन सरहदों की बात कभी नहीं करता जो दिलों में पैदा हो जाती हैं...' 'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार। दोस्तों, एक ज़माना था जब घर बैठे प्राप्त होने वाले मनोरंजन का एकमात्र साधन रेडियो हुआ करता था। गीत-संगीत सुनने के साथ-साथ बहुत से कार्यक्रम ऐसे हुआ करते थे जिनमें कलाकारों के साक्षात्कार प्रस्तुत किये जाते थे और जिनके ज़रिये फ़िल्म और संगीत जगत के इन हस्तियों की ज़िन्दगी से जुड़ी बहुत सी बातें जानने को मिलती थी। गुज़रे ज़माने के इन अमर फ़नकारों की आवाज़ें आज केवल आकाशवाणी और दूरदर्शन के संग्रहालय में ही सुरक्षित हैं। मैं ख़ुशक़िस्मत हूँ कि शौकिया तौर पर मैंने पिछले बीस वर्षों में बहुत से ऐसे कार्यक्रमों को लिपिबद्ध कर अपने पास एक ख़ज़ाने के रूप में समेट रखा है। 'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' पर, महीने के हर दूसरे और चौथे शनिवार को इसी ख़ज़ाने में से मैं निकाल लाता हूँ कुछ अनमोल मोतियाँ, हमारे इस स्तम्भ में, जिसका शीर्षक है - स्मृतियों के स्वर, जिसमें हम

ऋतु आधारित राग हैं इस रागमाला गीत में

स्वरगोष्ठी – 117 में आज रागों के रंग रागमाला गीत के संग – 4 ‘ऋतु आए ऋतु जाए सखी री मन के मीत न आए...’ ‘स्वरगोष्ठी’ के एक नये अंक के साथ मैं, कृष्णमोहन मिश्र अपने संगीत-प्रेमी पाठकों-श्रोताओं के बीच एक बार पुनः उपस्थित हूँ। आज के अंक में हम एक बार फिर लघु श्रृंखला ‘रागों के रंग रागमाला गीत के संग’ की अगली कड़ी प्रस्तुत कर रहे हैं। श्रृंखला के पिछले दो अंकों में हमने जो गीत शामिल किये थे, उनमे रागों के क्रम प्रहर के क्रमानुसार थे। परन्तु आज के रागमाला गीत में रागों का क्रम बदलते मौसम के अनुसार है। इस गीत में ग्रीष्म ऋतु का राग गौड़ सारंग, वर्षा ऋतु का राग गौड़ मल्हार, पतझड़ का राग जोगिया और बसन्त ऋतु का राग बहार क्रमशः शामिल किया गया है। रागमाला का यह गीत हमने 1953 प्रदर्शित फिल्म ‘हमदर्द’ से लिया है। फिल्म के संगीतकार हैं, अनिल विश्वास और इसे मन्ना डे और लता मंगेशकर ने गाया है।  अनिल विश्वास और लता मंगेशकर   ‘रा गमाला’ संगीत का वह प्रकार होता है, जिसमे किसी गीत में एक से अधिक रागों का प्रयोग हो और सभी राग स्वतंत्र रूप से रच

ए वतन ए वतन हमको तेरी कसम....प्रेम धवन ने दी बलिदानियों के जज़्बात को जुबाँ

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 726/2011/166 शृं खला ‘वतन के तराने’ की छठी कड़ी में आपका पुनः स्वागत है। इस श्रृंखला के गीतों के माध्यम से हम उन बलिदानियों का पुण्य स्मरण कर रहे हैं, जिन्होंने ब्रिटिश शासन के विरुद्ध संघर्ष में अपने प्राणों की आहुतियाँ दी। जिनके त्याग, तप और बलिदान के कारण ही हम उन्मुक्त हवा में साँस ले पा रहे हैं। आज जो गीत हम आपके लिए प्रस्तुत करने जा रहे हैं, वह भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के एक ऐसे महानायक से सम्बन्धित है, जिसे नाम के स्थान पर दी गई ‘शहीद-ए-आजम’ की उपाधि से अधिक पहचाना जाता है। जी हाँ, आपका अनुमान बिलकुल ठीक है, हम अमर बलिदानी भगत सिंह की स्मृति को आज स्वरांजलि अर्पित करेंगे। भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के अमर बलिदानी भगत सिंह का जन्म एक देशभक्त परिवार में 28सितम्बर, 1907 को ग्राम बंगा, ज़िला लायलपुर (अब पाकिस्तान में) हुआ था। उनके पूर्वज महाराजा रणजीत सिंह की सेना के योद्धा थे। भगत सिंह के दो चाचा स्वर्ण सिंह व अजीत सिंह तथा पिता किशन सिंह ने अपना पूरा जीवन अंग्रेजों की सत्ता उखाड़ने में लगा दिया। ऐसी पारिवारिक पृष्ठभूमि से निकले भगतसिंह के हृदय में अंग्रेज

चल मेरे घोड़े टिक टिक टिक...प्रेम धवन ने लिखा इस फ़साने को, स्वर दिया लता ने

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 676/2011/116 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार! आज रविवार की शाम इस स्तंभ में एक नई सप्ताह के साथ हम हाज़िर हैं। आजकल इसमें जो शृंखला चल रही है, उसमें हम आपको केवल गीत ही नहीं, बल्कि कहानियाँ भी सुनवा रहे हैं। 'एक था गुल और एक थी बुलबुल' शृंखला आधारित है उन गीतों पर जिनमें कही गई है किस्से-कहानियाँ। पाँच कहानियाँ हम पिछले हफ़्ते सुन चुके हैं, और आज से अगले पाँच अंकों में हम सुनने जा रहे हैं पाँच और दिलचस्प कहानियाँ। किदार शर्मा, मुंशी अज़ीज़, कमर जलालाबादी, हसरत जयपुरी और मजरूह सुल्तानपुरी के बाद आज बारी है प्रेम धवन साहब की। धवन साहब नें आज के गीत के रूप में जो कहानी लिखी है, उसमें एक राजा है, एक रानी है, एक घोड़ा है, और एक डायन जादूगरनी भी है। किसी फ़िल्म की ही तरह यह कहानी भी बड़ी दिलचस्प है। इस कहानी को आगे हम बताने वाले हैं, लेकिन उससे पहले आपको यह बता दें कि इस कहानी के सभी किरदारों को फ़िल्म की नायिका मीना कुमारी ही अभिनय के द्वारा दर्शाती है। जैसे जैसे कहानी आगे बढ़ती है, मीना जी भी अपनी बॉडी-लैंगुएज से, अपने एक्स्प्रेशन से, अपने बालो

चंदा रे जा रे जा रे....मुस्लिम समाज में महिलाओं की निर्भीक आवाज़ बनकर उभरी इस्मत चुगताई को आज आवाज़ सलाम

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 617/2010/317 हिं दी सिनेमा के कुछ सशक्त महिला कलाकारों को सलाम करती 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की लघु शृंखला 'कोमल है कमज़ोर नहीं' की सातवीं कड़ी में आप सभी का फिर एक बार स्वागत है। आज हम जिस प्रतिभा से आपका परिचय करवा रहे हैं, वो एक उर्दू की जानीमानी लेखिका तो हैं ही, साथ ही फ़िल्म जगत को एक कहानीकार, पटकथा व संवाद लेखिका, निर्मात्री व निर्देशिका के रूप में अपना परिचय देनेवाली इस फनकारा का नाम है इस्मत चुगताई। १५ अगस्त १९१५ को उत्तर प्रदेश के बदायूं में जन्मीं और जोधपुर राजस्थान में पलीं इस्मत जी के पिता एक सिविल सर्वैण्ट थे। ६ भाई और ४ बहनों के विशाल परिवार में इस्मत नौवीं संतान थीं। इस्मत की बड़ी बहनों का उनकी बचपन में ही शादी हो जाने की वजह से इस्मत का बचपन अपने भाइयों के साथ गुज़रा। और शायद यही वजह थी इस्मत के अंदर पनपने वाले खुलेपन की और इसी ने उनके लेखन में बहुत ज़्यादा प्रभाव डाला। इस्मत के युवावस्था में ही उनका भाई मिर्ज़ा अज़ीम बेग चुगताई एक स्थापित लेखक बन चुके थे, और वो ही उनके पहले गुरु बनें। १९३६ में स्नातक की पढ़ाई करते हुए इस्मत चुगताई लखनऊ