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स्वाधीनता संग्राम और फिल्मी गीत (भाग – 2)

विशेष अंक : भाग 2 भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में फिल्म संगीत की भूमिका   'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' के सभी पाठकों को सुजॉय चटर्जी का नमस्कार! मित्रों, पिछले शनिवार से हमने 'सिने पहेली' के स्थान पर एक विशेष श्रृंखला 'भारत के स्वाधीनता संग्राम में फ़िल्म-संगीत की भूमिका' आरम्भ की है। पिछले सप्ताह हमने इस विशेष श्रृंखला का प्रथम भाग प्रस्तुत किया था। आज प्रस्तुत है, इस श्रृंखला का दूसरा भाग। गतांक से आगे... तिमिर बरन 30 के दशक के आख़िरी साल, यानी 1939 में, बहुत से देशभक्ति गीत फ़िल्मों में सुनाई पड़े हैं। इस वर्ष ‘वनराज पिक्चर्स, बम्बई’ की एम. उदवाडिया निर्देशित फ़िल्म अई थी ‘वतन के लिए’। इस फ़िल्म के लिए पराधीन भारत के लोगों में देशभक्ति के जस्बे को जगाने के लिए मुन्शी दिल ने दो देशभक्ति गीत लिखे; पहला “ईतहाद करो, ईतहाद करो, तुम हिन्द के रहने वालों” और दूसरा “भारत के रहने वालों, कुछ होश तो संभालो, ये आशियाँ हमारा”। इन दोनों गीतों को गुलशन सूफ़ी और बृजमाला ने गाया था। उधर 'न्यू थिएटर्स' के संगीतकार ति मिर बरन के करीयर की सबसे बड़ी

गणतन्त्र दिवस पर विशेष : ‘बॉम्बे टॉकीज़’, ‘क़िस्मत’ और अनिल विश्वास

भारतीय सिनेमा के सौ साल – 33   स्मृतियों का झरोखा  : गणतन्त्र दिवस पर विशेष ‘दूर हटो ऐ दुनिया वालों हिन्दुस्तान हमारा है...’ भारतीय सिनेमा के शताब्दी वर्ष में ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ द्वारा आयोजित विशेष अनुष्ठान- ‘स्मृतियों का झरोखा’ में आप सभी सिनेमा प्रेमियों का हार्दिक स्वागत है। आज माह का चौथा गुरुवार है और आज से प्रत्येक माह के दूसरे और चौथे गुरुवार को हम ‘स्मृतियों का झरोखा’ के अन्तर्गत ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के संचालक मण्डल के सदस्य सुजॉय चटर्जी की प्रकाशित पुस्तक ‘कारवाँ सिने-संगीत का’ से किसी रोचक प्रसंग का उल्लेख किया करेंगे। आज के अंक में हम ‘बॉम्बे टॉकीज़’ की फ़िल्म ‘क़िस्मत’ की निर्माण-प्रक्रिया और उसकी सफलता के बारे में कुछ विस्मृत यादों को ताजा कर रहे हैं। ‘ बॉ म्बे टॉकीज़’ की दूसरी फ़िल्म ‘क़िस्मत’ तो एक ब्लॉकबस्टर सिद्ध हुई। अशोक कुमार और मुमताज़ शान्ति अभिनीत इस फ़िल्म ने बॉक्स ऑफ़िस के पहले के सारे रेकॉर्ड्स तोड़ दिए। पूरे देश में कई जगहों पर जुबिलियाँ मनाने के अलावा कलकत्ते के ‘चित्र प्लाज़ा’ थिएटर में यह फ़िल्म लगातार 196 हफ़्त

स्वाधीनता दिवस विशेषांक : भारतीय सिनेमा के सौ साल – 10

फ़िल्मों में प्रारम्भिक दौर के देशभक्ति गीत  'रुकना तेरा काम नहीं चलना तेरी शान, चल चल रे नौजवान... ' हिन्दी फ़िल्मों में देशभक्ति गीतों का होना कोई नई बात नहीं है। 50 और 60 के दशकों में मोहम्मद रफ़ी, मन्ना डे और महेन्द्र कपूर के गाये देशभक्तिपूर्ण फ़िल्मी गीतों ने अत्यधिक लोकप्रियता प्राप्त की थी। परन्तु देशभक्ति के गीतों का यह सिलसिला शुरू हो चुका था, बोलती फ़िल्मों के पहले दौर से ही। ब्रिटिश शासन की लाख पाबन्दियों के बावजूद देशभक्त फ़िल्मकारों ने समय-समय पर देशभक्तिपूर्ण गीतों के माध्यम से जनजागरण उत्पन्न करने के प्रयास किये और हमारे स्वाधीनता संग्राम में महत्वपूर्ण योगदान दिया। आज 66वें स्वाधीनता दिवस पर आइए 30 के दशक में बनने वाले फिल्मों के देशभक्तिपूर्ण गीतों पर एक दृष्टिपात करते हें, जिन्हें आज हम पूरी तरह से भूल चुके हैं।आज का यह अंक स्वतन्त्रता दिवस विशेषांक है, इसीलिए आज के अंक में हम मूक फिल्मों की चर्चा नहीं कर रहे हैं। आगामी अंक से यह चर्चा पूर्ववत की जाएगी। 1930 के दशक के आते-आते पराधीनता की ज़ंजीरों में जकड़ा हुआ, देश आज़ादी के लिए ज़ोर

"ऐ मेरे वतन के लोगों" - इस कालजयी देशभक्ति गीत को न गा पाने का मलाल आशा भोसले को आज भी है

कालजयी देशभक्ति गीत "ऐ मेरे वतन के लोगों" के साथ केवल पंडित नेहरू की यादें ही नहीं जुड़ी हुई हैं, बल्कि इस गीत के बनने की कहानी भी बड़ी दिलचस्प है। आज गणतन्त्र दिवस की पूर्वसंध्या पर इसी गीत से जुड़ी कहानियाँ सुजॉय चटर्जी के साथ 'एक गीत सौ कहानियाँ' की चौथी कड़ी में... एक गीत सौ कहानियाँ # 4 देशभक्ति गीतों की बात चलती है तो कुछ गीत ऐसे हैं जो सबसे पहले याद आ जाते हैं, चाहे वो फ़िल्मी हों या ग़ैर-फ़िल्मी। लता मंगेशकर की आवाज़ में एक ऐसी ही कालजयी रचना है "ऐ मेरे वतन के लोगों, ज़रा आँख में भर लो पानी, जो शहीद हुए हैं उनकी ज़रा करो क़ुर्बानी"। कवि प्रदीप के लिखे और सी. रामचन्द्र द्वारा स्वरबद्ध इस गीत को जब भी सुनें, रोंगटे खड़े हुए बिना नहीं रहते, आँखें नम हुए बिना नहीं रहतीं, हमारे वीर शहीदों के आगे नतमस्तक हुए बिना हम नहीं रह पाते। इस गीत को १९६२ के भारत-चीन युद्ध के शहीदों को समर्पित किया गया था। कहते हैं कि रेज़ांग् ला के प्रथम युद्ध में १३ - कुमाऊं रेजिमेण्ट, सी-कंपनी के आख़िरी मोर्चे में परमवीर मेजर शैतान सिंह भाटी के दुस्साहस और बलिदान से प्रभावित

झंकारो झंकारो झंकारो अग्निवीणा....कवि प्रदीप के शब्दों से निकलती आग

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 725/2011/165 भा रत नें हमेशा अमन और सदभाव का राह चुनी है। हमनें कभी किसी को नहीं ललकारा। हज़ारों सालों का हमारा इतिहास गवाह है कि हमनें किसी पर पहले वार नहीं किया। जंग लड़ना हमारी फ़ितरत नहीं। ख़ून बहाना हमारा धर्म नहीं। लेकिन जब दुश्मनों नें हमारी इस धरती को अपवित्र करने की कोशिश की है, हम पर ज़ुल्म करने की कोशिश की है, तो हमने भी अपनी मर्यादा और सम्मान की रक्षा की है। न चाहते हुए भी बंसी के बदले बंदूक थामे हैं हम प्रेम-पुजारियों नें। अंग्रेज़ी सरकार नें 200 वर्ष तक इस देश पर राज किया। 1857 से ब्रिटिश राज के ख़िलाफ़ आवाज़ उठनी शुरु हुई थी, और 90 वर्ष की कड़ी तपस्या और असंख्य बलिदानों के बाद 1947 में ब्रिटिश राज से इस देश को मुक्ति मिली। भारत के स्वाधीनता संग्राम के प्रमुख सेनानियों में एक महत्वपूर्ण नाम है नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का। उनके वीरता की कहानियाँ हम जानते हैं, और उन पर एकाधिक फ़िल्में भी बन चुकी हैं। ऐसी ही एक फ़िल्म आई थी 'नेताजी सुभाषचन्द्र बोस' और इस फ़िल्म में एक जोश पैदा कर देने वाला गीत था हेमन्त कुमार, सबिता चौधरी और साथियों की आवाज़ों म

ई मेल के बहाने यादों के खजाने (२६)- प्रदीप चटर्जी नाम से कोई गीतकार नहीं -हरमंदिर सिंह 'हमराज़'

नमस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड शनिवार विशेष' में एक बार फिर आप सभी का हम स्वागत करते हैं। इस साप्ताहिक स्तंभ में हम साधारणतः 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ाने' पेश किया करते हैं। कई बार यादों के ख़ज़ानें तो नहीं शामिल हो पाते, लेकिन जो भी पेश होता है वो ईमेल के बहाने से ही होता है। हर बार की तरह इस बार भी हम आप सभी से गुज़ारिश करते हैं कि इस शीर्षक को सार्थक करने के लिए आप अपने जीवन से जुड़ी किसी यादगार घटना या संस्मरण हमारे साथ बांटिये जिसे हम इस मंच के माध्यम से पूरी दुनिया के साथ बांट सके। ईमेल भेजने के लिए हमारा आइ.डी है oig@hindyugm.com। दोस्तों, इसमें कोई शक़ नहीं कि इंटरनेट ने तथ्य तकनीकी और दूरसंचार के क्षेत्र में क्रांति ला दी है, और ऐसी क्रांति आई है, ऐसा बदलाव लाया है कि अब इंटरनेट के बिना सब काम काज जैसे ठप्प सा हो जाता है। लेकिन जिस तरह से हर अच्छे चीज़ के साथ कुछ बुरी चीज़ें भी समा जाती हैं, ऐसा ही कुछ इंटरनेट के साथ भी है। जी नहीं, हम अश्लील वेबसाइटों की बात नहीं कर रहे; हम तो बात कर रहे हैं ग़लत जानकारियों की जो इंटरनेट पर अपलोड होते रहते हैं। दरअसल बात यह है कि

दौलत ने पसीने को आज लात मारी है.....बगावती तेवर चितलकर के स्वर और सुरों का

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 568/2010/268 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार! 'कितना हसीं है मौसम', सी. रामचन्द्र को सपर्पित इस लघु शृंखला में आज हम चितलकर और साथियों का गाया एक जोश भरा गीत सुनेंगे। इस गीत के बारे में बताने से पहले आपको याद दिला दें कि कल की कड़ी में हम ज़िक्र कर रहे थे लता मंगेशकर और सी. रामचन्द्र के बीच के अनबन के बारे में। हमने कुछ कही सुनी बातें तो जानी, सी. रामचन्द्र का राजु भारतन को दिए इंटरव्यु के बारे में भी जाना; लेकिन इस चर्चा को तब तक पूरी नहीं मानी जा सकती जब तक हम लता जी से इसके बारे में ना पूछ लें। और हमारे इस काम को अंजाम दिया अमीन सायानी साहब ने जिन्होंने लता जी से इसके बारे में पूछा और लता जी ने विस्तार से बताया। लीजिए पेश है उस इंटरव्यु का वही अंश, यह प्रस्तुत हुआ था 'सरगम के सितारों की महफ़िल' रेडियो प्रोग्राम में। अमीन सायानी: सी. रामचन्द्र से क्या बात हो गई, कैसे अनबन हो गई, क्यों हो गई, और ना होती तो कितना अच्छा होता? लता मंगेशकर: (हँसते हुए) नहीं, अगर आप ऐसे सोचें तो मेरा दुश्मन कोई नहीं है, ना ही मैं किसी की दुश्मन हूँ। पर

कारी कारी कारी अंधियारी सी रात.....सावन की रिमझिम जैसी ठडक है अन्ना के संगीत में भी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 566/2010/266 न मस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक नई सप्ताह के साथ हम हाज़िर हैं दोस्तों। फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर के गीतों को सुनने और उनके बारे में जानने का सिलसिला जारी है। इन दिनों हम करीब से जान रहे हैं सी. रामचन्द्र को जिनके स्वरबद्ध और गाये हुए गानें हम शामिल कर रहे हैं उन पर केन्द्रित शृंखला 'कितना हसीं है मौसम' में। दोस्तों, युं तो सी. रामचन्द्र ने ज़्यादातर युगल गानें लता जी के साथ ही गाये थे, लेकिन एक वक़्त ऐसा भी आया कि जब उन दोनों के बीच अनबन हो गई और लता जी ने उनके लिए गाना बंद कर दिया। इसके बारे में विस्तार से हम कल की कड़ी में चर्चा करेंगे, आज बस इतना कहते हैं कि लता का विकल्प आशा बनीं और ५० के दशक के आख़िर के कुछ सालों में अन्नासाहब ने आशा भोसले से कई गीत गवाये। तो आइए आज उन चंद सालों में सी. रामचन्द्र और आशा भोसले के संगम से उत्पन्न गीतों की बात करें। इन फ़िल्मों में जो नाम सब से उपर आता है, वह है १९५८ की फ़िल्म 'नवरंग'। आज इसी फ़िल्म से एक गीत आपको सुनवाने जा रहे हैं। वैसे इस फ़िल्म के दो गीत हम आपको सुनवा चुके हैं - "तू छुपी ह

हम लाये हैं तूफानों के किश्ती निकाल के.....कवि प्रदीप का ये सन्देश जो आज भी मन से राष्ट्र प्रेम जगा जाता है

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 527/2010/227 दो स्तों कल था १४ नवंबर, देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु का जन्मदिवस। नेहरु जी का बच्चों के प्रति अत्यधिक लगाव हुआ करता था। बच्चों के लिए उन्होंने बहुत सारा कार्य भी किया। इसी वजह से आज का यह दिन देश भर में 'बाल दिवस' के रूप में मनाया जाता है। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार। 'दिल की कलम से', इस शुंखला में आज हम लेकर आए हैं एक ऐसे कवि की बातें जो एक कवि होने साथ साथ एक उत्कृष्ट गीतकार और गायक भी थे, जिनकी लेखनी और गायकी में झलकता है उनका अपने देश के प्रति प्रेम और देशवासियों में जागरुक्ता लाने की शक्ति। जी हाँ, आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में ज़िक्र कवि प्रदीप का। कवि प्रदीप का जन्म १९१५ में मध्य प्रदेश के उज्जैन के बाधनगर में हुआ था। उनका पूरा नाम था रामचन्द्र नारायणजी द्विवेदी। उनकी शिक्षा अलाहाबाद में हुई और वहीं उन्होंने कविताएँ लिखनी शुरु की। गर्मियों की छुट्टियों मे वे मित्रों के घर जाया करते थे। ऐसी ही एक छुट्टी में वे बम्बई आये और उनकी मुलाक़ात हो गई बॊम्बे टॊकीज़ के हिमांशु राय से। उनकी लेखनी से प

कुछ शर्माते हुए और कुछ सहम सहम....सुनिए लता की आवाज़ में ये मासूमियत से भरी अभिव्यक्ति

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 483/2010/183 'ल ता के दुर्लभ दस' शृंखला की तीसरी कड़ी में आप सभी का स्वागत है। १९४८ की दो फ़िल्मों - 'हीर रांझा' और 'मेरी कहानी' - के गानें सुनने के बाद आइए अब हम क़दम रखते हैं १९४९ के साल में। १९४९ का साल भी क्या साल था साहब! 'अंदाज़', 'बड़ी बहन', 'बरसात', 'बाज़ार', 'एक थी लड़की', 'दुलारी', 'लाहोर', 'महल', 'पतंगा', और 'सिपहिया' जैसी फ़िल्मों में गीत गा कर लता मंगेशकर यकायक फ़िल्म संगीत के आकाश का एक चमकता हुआ सितारा बन गईं। इन नामचीन फ़िल्मों की चमक धमक के पीछे कुछ ऐसी फ़िल्में भी बनीं इस साल जिसमें भी लता जी ने गीत गाए, लेकिन अफ़सोस कि उन फ़िल्मों के गानें ज़्यादा लोकप्रिय नहीं हुए और वो आज भूले बिसरे और दुर्लभ गीतों में शुमार होता है। ऐसी ही एक फ़िल्म थी 'गर्ल्स स्कूल'। लोकमान्य प्रिडक्शन्स के बैनर तले बनी इस फ़िल्म के निर्देशक थे अमीय चक्रबर्ती। फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे सोहन, गीता बाली, शशिकला, मंगला, सज्जन, राम सिंह और वशिष्ठ प्रमुख। फ़िल्म का सं

क्रांतिकारी कवि प्रदीप ने फ़िल्मी गीतों को दी आकाश सी ऊंचाई, रचकर एक से एक कालजयी गीत

ओल्ड इस गोल्ड /रिवाइवल # १८ 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड रिवाइवल' में हमारे आज के गीत के गीतकार एक ऐसे शख़्स हैं जिनकी लेखनी और गायकी में झलकता है उनका अपने देश के प्रति प्रेम और देशवासियों में जागरूक्ता लाने की शक्ति। कवि प्रदीप, जिन्होने असंख्य देश भक्ति के गीत और कविताएँ लिखे, जिन्हे पढ़कर देश प्रेम से जैसे ख़ून गरम हो उठता है। पराधीन भरत में भी आज़ादी पर ऐसे ऐसे गीत और कविताएँ लिखे कि उन्हे कई बार अंडरग्राउंड होना पड़ा। आज हम आपको सुनवा रहे हैं फ़िल्म 'जागृति' का वह मशहूर देश भक्ति गीत "आओ बच्चों तुम्हे दिखाएँ झांखी हिंदुस्तान की", जो उन्होने ही गाया था और यह गीत पिक्चराइज़ हुआ था अभि भट्टाचार्य और बच्चों पर। इस फ़िल्म के संगीतकार थे हेमंत कुमार। क्योंकि बात देश भक्ति की चल रही है और संगीतकार हैं हेमन्त कुमार, इसलिए आज हम रुख़ करते हैं हेमन्त दा द्वारा प्रस्तुत किए गए सन् १९७२ के उस 'जयमाला' कार्यक्रम की ओर, जो उन्होने 'बांगलादेश वार' के ठीक बाद प्रस्तुत किया था विविध भारती पर। हमारे वीर फ़ौजी भाइयों से मुख़ातिब उन्होने कहा था - "फ़ौजी भाइयों, वि

मेरा बुलबुल सो रहा है शोर तू न मचा...कवि प्रदीप और अनिल दा का रचा एक अनमोल गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 344/2010/44 १९४३ । इस वर्ष ने ३ प्रमुख फ़िल्में देखी - क़िस्मत, तानसेन, और शकुंतला। 'तानसेन' रणजीत मूवीटोन की फ़िल्म थी जिसमें संगीतकार खेमचंद प्रकाश ने सहगल और ख़ुर्शीद से कुछ ऐसे गानें गवाए कि फ़िल्म तो सुपर डुपर हिट साबित हुआ ही, खेमचंद जी और सहगल साहब के करीयर का एक बेहद महत्वपूर्ण फ़िल्म भी साबित हुआ। प्रभात से निकल कर और अपनी निजी बैनर 'राजकमल कलामंदिर' की स्थापना कर वी. शांताराम ने इस साल बनाई फ़िल्म 'शकुंतला', जिसके गीत संगीत ने भी काफ़ी धूम मचाया। संगीतकार वसंत देसाई की इसी फ़िल्म से सही अर्थ में करीयर शुरु हुआ था। और १९४३ में बॊम्बे टॊकीज़ की सफलतम फ़िल्म आई 'क़िस्मत'। 'क़िस्मत' को लिखा व निर्देशित किया था ज्ञान मुखर्जी ने। हिमांशु राय की मृत्यु के बाद बॊम्बे टॊकीज़ में राजनीति चल पड़ी थी। देवीका रानी और शशधर मुखर्जी के बीच चल रही उत्तराधिकार की लड़ाई के बीच ही यह फ़िल्म बनी। अशोक कुमार और मुम्ताज़ शांति अभिनीत इस फ़िल्म ने बॊक्स ऒफ़िस के सारे रिकार्ड्स तोड़ दिए। देश भर में कई कई जुबिलीज़ मनाने के अलावा यह फ़िल्