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अकेला चल चला चल...मंजिल की पुकार सुनाता ये गीत दादु का रचा

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 794/2011/234 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के सभी साथियों को सुजॉय चटर्जी का नमस्कार और स्वागत है आप सभी का रवीन्द्र जैन के लिखे और स्वरबद्ध किए गीतों से सजी लघु शृंखला 'मेरे सुर में सुर मिला ले' की चौथी कड़ी में। आइए एक बार फिर रुख़ करते हैं विविध भारती के उसी साक्षात्कार की ओर जिसमें दादु बता रहे हैं अपने शुरुआती दिनों के बारे में। पिछली कड़ी में ज़िक्र आया था दादु के बड़े भाई डी. के. जैन का, जिनका रवीन्द्र जैन के जीवन में बड़ा महत्व है, आइए आज वहीं से बात को आगे बढ़ाते हैं। " भाईसाहब साहित्य कर रहे थे उन दिनों, उन्होंने डी.लिट किया, जैन ऑथर्स ऑफ़ फ़्रेन्च पे काम कर रहे थे, तो किताबें रहती थी उनके रूम में ढेर सारी, तो मैं वहीं बैठा रहता था उनके पास, उनको कहता था कि थोड़ा ज़ोर-ज़ोर से पढ़ें ताकि मैं अपने अन्दर समेट सकूँ उन रचनाओं को, उस साहित्य को सहेज के रख सकूँ। आप जो भी आज सुनते हैं वो सारा वहीं से अनुप्रेरीत है। और अलीगढ़ में मेरे ज़्यादातर दोस्त मुस्लिम रहे, मेरे घर के पास ही मोहल्ला है, उपर कोर्ट, दिन वहीं गुज़रता था, मेरे बचपन की एक बान्धवी मेरे

तू जो मेरे सुर में सुर मिला दे...दादु के इस मनुहार को भला कौन इनकार कर पाये

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 793/2011/233 "तू जो मेरे सुर में सुर मिला ले, संग गा ले, तो ज़िन्दगी हो जाये सफल"। यह बात किसी और के लिए सटीक हो न हो, रवीन्द्र जैन के लिए १००% सही है क्योंकि उनके सुरों में जिन जिन नवोदित गायक गायिकाओं नें सुर मिलाया, उन्हें प्रसिद्धि मिली, उन्हें यश प्राप्त हुआ, उनका करीयर चल पड़ा। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार सुजॉय चटर्जी का और इन दिनों इस स्तंभ में जारी है लघु शृंखला 'मेरे सुर में सुर मिला ले' जिसमें आप सुन रहे हैं गीतकार-संगीतकार रवीन्द्र जैन की फ़िल्मी रचनाएँ और जान रहे हैं उनके जीवन की दास्तान उनकी ही ज़ुबानी विविध भारती की शृंखला 'उजाले उनकी यादों के' के सौजन्य से। कल की कड़ी में आपने जाना कि किस तरह से जन्म से ही उनकी आँखों की रोशनी जाती रही और इस कमी को ध्यान में रखते हुए उनके पिताजी नें उन्हें गीत-संगीत की तरफ़ प्रोत्साहित किया। अब आगे की कहानी दादु की ज़ुबानी - " तो यहाँ अलीगढ़ में नाटकों में मास्टर जी. एल. जैन संगीत निर्देशन किया करते थे, आर्य-जैन समाज के, और उन्होंने सबसे पहले जो ग़ज़ल मुझे सिखाई थी,

श्याम तेरी बंसी पुकारे राधा नाम....दादु का ये गीत कितना सकून भरा है

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 792/2011/232 गी तकार-संगीतकार-गायक रवीन्द्र जैन पर केन्द्रित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की लघु शृंखला 'मेरे सुर में सुर मिला ले' की दूसरी कड़ी में आप सभी का फिर एक बार हार्दिक स्वागत है। दोस्तों, जैसा कि कल हमने कहा था कि रवीन्द्र जैन की दास्तान शुरु से हम आपको बताएंगे, तो आज की कड़ी में पढ़िए उनके जीवन के शुरुआती दिनों का हाल दादु के ही शब्दों में (सौजन्य: उजाले उनकी यादों के, विविध भारती)। जब दादु से यह पूछा गया कि वो अपने बचपन के दिनों के बारे में बताएँ, तो उनका जवाब था - " बचपन तो अभी गया नहीं है, क्योंकि जहाँ तक ज्ञान का सम्बंध है, आदमी हमेशा बच्चा ही रहता है, यह मैं मानता हूँ। उम्र में भले ही हमने बचपन खो दिया हो, लेकिन ज्ञान में अभी बच्चे हैं। तो अलीगढ़ में थे मेरे माता-पिता, अलीगढ़ से ही जन्म मुझको मिला, अलीगढ़ में ही हो गया था शुरु ये गीत और संगीत का सिलसिला। डॉ. मोहनलाल, जो मेरे पिताश्री के कन्टेम्पोररी थे, मेरे पिताजी का नाम पंडित इन्द्रमणि ज्ञान प्रसाद जी, तो मोहनलाल जी नें जन्म के दिन ही आँखों का छोटा सा एक ऑपरेशन किया, उन्होंने आँखें खोल

हर हसीं चीज़ का मैं तलबगार हूँ...कहता हुआ आया वो सुरों का सौदागर

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 791/2011/231 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के सभी रसिक श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का सप्रेम नमस्कार! दोस्तों, ७० के दशक के मध्य भाग से फ़िल्म-संगीत में व्यवसायिक्ता सर चढ़ कर बोलने लग पड़ी थी। धुनों में मिठास कम और शोर-शराबा ज़्यादा होने लगा। गीतों के बोल भी अर्थपूर्ण कम और चलताऊ क़िस्म के होने लगे थे। गीतकार और संगीतकार को न चाहते हुए भी कई बंधनों में बंध कर काम करने पड़ते थे। लेकिन तमाम पाबन्दियों के बावजूद कुछ कलाकार ऐसे भी हुए जिन्होंने कभी हालात के दबाव में आकर अपने उसूलों और कला के साथ समझौता नहीं किया। भले इन कलाकारों नें फ़िल्में रिजेक्ट कर दीं, पर अपनी कला का सौदा नहीं किया। ७० के दशक के मध्य भाग में एक ऐसे ही सुर-साधक का फ़िल्म जगत में आगमन हुआ था जो न केवल एक उत्कृष्ट संगीतकार हुए, बल्कि एक बहुत अच्छे काव्यात्मक गीतकार और एक सुरीले गायक भी हैं। यही नहीं, यह लाजवाब कलाकार पौराणिक विषयों के बहुत अच्छे ज्ञाता भी हैं। फ़िल्म-संगीत के गिरते स्तर के दौर में अपनी रुचिकर रचनाओं से इसके स्तर को ऊँचा बनाये रखने में उल्लेखनीय योगदान देने वाले इस श्रद्धेय कलाकार क

‘सिया रानी के जाये दुई ललनवा, विपिन कुटिया में...’ सोहर से होता है नवागन्तुक का स्वागत

सुर संगम- 44 – संस्कार गीतों में अन्तरंग पारिवारिक सम्बन्धों की सोंधी सुगन्ध संस्कार गीतों की नयी श्रृंखला - पहला भाग ‘सुर संगम’ स्तम्भ के एक नये अंक के साथ मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार पुनः उपस्थित हूँ। पिछले अंकों में आपने शास्त्रीय गायन और वादन की प्रस्तुतियों का रसास्वादन किया था, आज बारी है, लोक संगीत की। आज के अंक से हम आरम्भ कर रहे हैं, लोकगीतों के अन्तर्गत आने वाले संस्कार गीतों का सिलसिला। किसी देश के लोकगीत उस देश के जनमानस के हृदय की अभिव्यक्ति होते हैं। वे उनकी हार्दिक भावनाओं के सच्चे प्रतीक हैं। प्रकृतिक परिवेश में रहने वाला मानव अपने आसपास के वातावरण और संवेदनाओं से जुड़ता है तो नैसर्गिक रूप से उनकी अभिव्यक्ति के लिए एकमात्र साधन है, लोकगीत अथवा ग्राम्यगीत। भारतीय उपमहाद्वीप के निवासियों का जीवन आदिकाल से ही संगीतमय रहा है। वैदिक ऋचाओं को भी तीन स्वरों में गान की प्राचीन परम्परा चली आ रही है। भारतीय परम्परा के अनुसार प्रचलित लोकगीतों को हम चार वर्गों में बाँटते हैं। प्रत्येक उत्सव, पर्व और त्योहारों पर गाये जाने वाले गीतों को हम ‘मंगल गीत’ की श्रेणी में, तथा घरेलू और कृषि

"बुझ गई है राह से छाँव" - डॉ. भूपेन हज़ारिका को 'आवाज़' की श्रद्धांजलि (भाग-२)

ओल्ड इज़ गोल्ड - शनिवार विशेष - 68 भाग ०१ 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार! 'शनिवार विशेषांक' मे पिछले हफ़्ते हमने श्रद्धांजलि अर्पित की स्वर्गीय डॉ. भूपेन हज़ारिका को। उनके जीवन सफ़र की कहानी बयान करते हुए हम आ पहुँचे थे सन् १९७४ में जब भूपेन दा नें अपनी पहली हिन्दी फ़िल्म 'आरोप' में संगीत दिया था। आइए उनकी दास्तान को आगे बढ़ाया जाये आज के इस अंक में। दो अंकों वाली इस लघु शृंखला 'बुझ गई है राह से छाँव' की यह है दूसरी व अन्तिम कड़ी। भूपेन हज़ारिका नें असमीया और बंगला में बहुत से ग़ैर फ़िल्मी गीत तो गाये ही, असमीया और हिन्दी फ़िल्मों में भी उनका योगदान उल्लेखनीय रहा। १९७५ की असमीया फ़िल्म 'चमेली मेमसाब' के संगीत के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था। आपको याद होगा उषा मंगेशकर पर केन्द्रित असमीया गीतों के 'शनिवार विशेषांक' में हमने इस फ़िल्म का एक गीत आपको सुनवाया था। १९७६ में भूपेन दा नें अरुणाचल प्रदेश सरकार द्वारा निर्मित हिन्दी फ़िल्म 'मेरा धरम मेरी माँ' को नि

सुनो कहानी - ढपोलशंख मास्टर हो गए - हरिशंकर परसाई

'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में उभरते लेखक अभिषेक ओझा की कहानी " घूस दे दूँ क्या? " का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं प्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार हरिशंकर परसाई का व्यंग्य " ढपोलशंख मास्टर हो गए ", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने। कहानी का कुल प्रसारण समय 1 मिनट 58 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें। मेरी जन्म-तारीख 22 अगस्त 1924 छपती है। यह भूल है। तारीख ठीक है। सन् गलत है। सही सन् 1922 है। । ~ हरिशंकर परसाई (1922-1995) हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी तुलसीदास की पत्नी रत्नावली कौन-कौन से आभूषण पहनती थी? ( हरिशंकर परसाई की "ढपोलशंख मास्टर हो गए" से एक अंश ) नीचे के प्लेयर से सुनें. (प्लेयर