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अजब विधि का लेख किसी से पढ़ा नहीं जाये....जब वयोवृद्ध महर्षि वाल्मीकि की आवाज़ बने युवा मन्ना डे

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 642/2010/342 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के सभी मित्रों को कृष्णमोहन मिश्र का नमस्कार! स्वरगंधर्व मन्ना डे पर केन्द्रित लघु शृंखला 'अपने सुरों में मेरे सुरों को बसा लो' की कल पहली कड़ी में आपने मन्ना डे की बाल्यावस्था, उनकी शिक्षा-दीक्षा, अभिरुचि और पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में कुछ जानकारी प्राप्त की। आपने यह भी जाना कि वो अपने कैरियर के दोराहे पर खड़े होकर बैरिस्टर बनने की अपेक्षा संगीतकार या गायक बनने के मार्ग पर चलना अधिक उपयुक्त समझा। मन्ना डे के इस निर्णय से उनके पिता बहुत संतुष्ट नहीं थे, बावजूद इसके उन्होंने अपने पुत्र के इस निर्णय में कोई बाधा नहीं डाली। अपने अंध-संगीतज्ञ चाचा कृष्णचन्द्र डे के साथ 1940 में मन्ना डे मुम्बई (तब बम्बई या बॉम्बे) के लिए रवाना हुए। उस समय उनके पास बाउल गीत, रवीन्द्र संगीत, थोडा-बहुत ख़याल, ठुमरी, दादरा आदि की संचित पूँजी थी | साथ में चाचा के.सी. डे का वरदहस्त उनके सर पर था। प्रारम्भ में मन्ना डे अपने चाचा के सहायक के रूप में कार्य करने लगे। गीतों की धुन बनाने में सहयोग देने, धुन तैयार होने पर उसकी स्वरलिपि लिखन

दूर है किनारा....आईये किनारे को ढूंढती मन्ना दा की आवाज़ के सागर में गोते लगाये हम भी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 641/2010/341 'ओ ल्ड इस गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार! मैं, सुजॉय चटर्जी, आप सभी का इस स्तंभ में फिर एक बार स्वागत करता हूँ। युं तो इस शृंखला का वाहक मैं और सजीव जी हैं, लेकिन समय समय पर आप में से कई श्रोता-पाठक इस स्तंभ के लिए उल्लेखनीय योगदान करते आये हैं, चाहे किसी भी रूप में क्यों न हो! यह हमारा सौभाग्य है कि हाल में हमारी जान-पहचान एक ऐसे वरिष्ठ कला संवाददाता व समीक्षक से हुई, जो अपने लम्बे करीयर के बेशकीमती अनुभवों से हमारा न केवल ज्ञानवर्धन कर रहे हैं, बल्कि 'सुर-संगम' स्तंभ में भी अपना अमूल्य योगदान समय समय पर दे रहे हैं। और अब 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के लिए एक पूरी की पूरी शृंखला के साथ हाज़िर हैं। आप हैं लखनऊ के श्री कृष्णमोहन मिश्र। मिश्र जी का परिचय कुछ शब्दों में संभव नहीं, इसलिए आप यहाँ क्लिक कर उनके बारे में विस्तृत रूप से जान सकते हैं। तो दोस्तों, आइए अगले दस अंकों के लिए 'ओल्ड इज़ गोल्ड' का आनंद लें श्री कृष्णमोहन मिश्र जी के साथ। एक और बात, कृष्णमोहन जी नें इस शृंखला के हर अंक में इतने सारे तथ्य भरे हैं कि अलग से "

सुर संगम में आज - लोकप्रिय तालवाद्य घटम की चर्चा

सुर संगम - 17 - घटम जब विक्कु अपना अरंगेत्रम् देने मंच पर जा रहे थे, तब 'गणेश' नामक एक बच्चे ने उनका घटम तोड़ दिया। इसे घटना को वे आज भी अपने करियर के लिए शुभ मानते हैं। सु प्रभात! सुर-संगम के आज के अंक में मैं, सुमित चक्रवर्ती आपका स्वागत करता हूँ। भारतीय संगीत में ताल की भूमिका सबसे महत्त्व्पूर्ण मानी गयी है। ताल किसी भी तालवाद्य से निकलने वाली ध्वनि का वह तालबद्ध चक्र है जो किसी भी गीत अथवा राग को गाते समय गायक को सुर लगाने के सही समय का बोध कराता है। भारतीय शास्त्रीय संगीत में जहाँ कुछ ताल बहुत रसद हैं वहीं कुछ ताल बहुत ही जटिल व जटिल भी हैं। तालों के लिए कई वाद्‍यों का प्रयोग किया जाता है जिनमें तबला, ढोलक, ढोल, मृदंगम, घटम आदि कुछ नाम हम सब जानते हैं। आज के इस अंक में हम चर्चा करेंगे एक बहुत ही लोकप्रिय तालवाद्य - घटम के बारे में। घटम मूलतः दक्षिण भारत के कार्नाटिक संगीत में प्रयोग किया जाने वाला तालवाद्य है। राजस्थान में इसी के दो अनुरूप मड्गा तथा सुराही के नामों से प्रचलित हैं। यह एक मिट्टी का बरतन है जिसे वादक अपनी उँगलियो, अंगूठे, हथेलियों व हाथ की एड़ी से इसके बाहरी