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ग़ज़ल का साज़ उठाओ बड़ी उदास है रात.. फ़िराक़ के ग़मों को दूर करने के लिए बुलाए गए हैं गज़लजीत जगजीत सिंह

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #८७ आ ज हम जिस शायर की ग़ज़ल से रूबरू होने जा रहे हैं, उन्हें समझना न सिर्फ़ औरों को लिए बल्कि खुद उनके लिए मुश्किल का काम है/था। कहते हैं ना "पल में तोला पल में माशा"... तो यहाँ भी माज़रा कुछ-कुछ वैसा हीं है। एक-पल में हँसी-मज़ाक से लबरेज रहने वाला कोई इंसान ज्वालामुखी की तरह भभकने और फटने लगे तो आप इसे क्या कहिएगा? मुझे "अली सरदार जाफ़री" की "कहकशां" से एक वाक्या याद आ रहा है। "फ़िराक़" साहब को उनके जन्मदिन की बधाई देने उनके हीं कॉलेज से कुछ विद्यार्थी आए थे। अब चूँकि फ़िराक़ साहब अंग्रेजी के शिक्षक(प्रोफेसर शैलेश जैदी के अनुसार वो शिक्षक हीं थे , प्राध्यापक नहीं) थे, तो विद्यार्थियों ने उन्हें उनकी हीं पसंद की एक अंग्रेजी कविता सुनाई और फिर उनसे उनकी गज़लों की फरमाईश करने लगे। सब कुछ सही चल रहा था, फ़िराक़ दिल से हिस्सा भी ले रहे थे कि तभी उनके घर से किसी ने (शायद उनकी बीवी ने) आवाज़ लगाई और फ़िराक़ भड़क उठे। उन्होंने जी भरके गालियाँ दीं। इतना हीं काफ़ी नहीं था कि उन्होंने अपने जन्मदिन के लिए लाया हुआ केक उठाकर एक विद्यार्थी के

"जय दुर्गा महारानी की" - क्या आपने पहले कभी सुनी है संगीतकार चित्रगुप्त की गाती हुई आवाज़?

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 412/2010/112 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' की कल की कड़ी मे हमने सुनी थी सबिता बनर्जी की गाई हुई एक दुर्लभ फ़िल्मी भजन। आज के गीत का रंग भी भक्ति रस पर ही आधारित है। भारतीय फ़िल्म जगत में सामाजिक फ़िल्मों के साथ साथ धार्मिक और पौराणिक विषयों पर आधारित फ़िल्मों का भी एक जौनर रहा है फ़िल्म निर्माण के शुरुआती दौर से ही। यह परम्परा ९० के दशक में गुल्शन कुमार के निधन के बाद धीरे धीरे विलुप्त हो गई, और आज दो चार धार्मिक गीतों के ऐल्बम के अलावा इस जौनर की कोई कृति ना सुनाई देती है और ना ही परदे पर दिखाई देती है। फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर में बनने वाली धार्मिक फ़िल्मों में कुछ गिने चुने फ़िल्मों को छोड़ कर ज़्यादातर फ़िल्में बॊक्स ऒफ़िस पर असफल हुआ करती थी। दरसल धार्मिक फ़िल्मों के निर्माता इन फ़िल्मों का निर्माण ख़ास दर्शक वर्ग के लिए किया करते थे जैसे कि ग्रामीण जनता के लिए, वृद्ध वर्ग के लिए। ऐसे में आम जनता इन फ़िल्मों से कुछ दूर दूर ही रहती आई है। ज़्यादा व्यावसाय ना होने की वजह से ये कम बजट की फ़िल्में होती थीं। ना इन्हे ज़्यादा बढ़ावा मिलता और ना ही इनका ज़्यादा प्र

रब्बा लक़ बरसा.... अपनी फ़िल्म "कजरारे" के लिए इसी किस्मत की माँग कर रहे हैं हिमेश भाई

ताज़ा सुर ताल २१/२०१० सुजॊय - 'ताज़ा सुर ताल' की एक और ताज़े अंक के साथ हम हाज़िर हैं। विश्व दीपक जी, इस शुक्रवार को 'राजनीति' प्रदर्शित हो चुकी हैं, और फ़िल्म की ओपनिंग अच्छी रही है ऐसा सुनने में आया है, हालाँकि मैंने यह फ़िल्म अभी तक देखी नहीं है। 'काइट्स' को आशानुरूप सफलता ना मिलने के बाद अब देखना है कि 'राजनीति' को दर्शक किस तरह से ग्रहण करते हैं। ख़ैर, यह बताइए आज हम किस फ़िल्म के संगीत की चर्चा करने जा रहे हैं। विश्व दीपक - आज हम सुनेंगे आने वाली फ़िल्म 'कजरारे' के गानें। सुजॊय - यानी कि हिमेश इज़ बैक! विश्व दीपक - बिल्कुल! पिछले साल 'रेडियो - लव ऑन एयर' के बाद इस साल का उनका यह पहला क़दम है। 'रेडियो' के गानें भले ही पसंद किए गए हों, लेकिन फ़िल्म को कुछ ख़ास सफलता नहीं मिली थी। देखते हैं कि क्या हिमेश फिर एक बार कमर कस कर मैदान में उतरे हैं! सुजॊय - 'कजरारे' को पूजा भट्ट ने निर्देशित किया है, जिसके निर्माता हैं भूषण कुमार और जॉनी बक्शी। फ़िल्म के नायक हैं, जी हाँ, हिमेश रेशम्मिया, और उनके साथ हैं मोना लायज़ा, अमृ

"ज़रा मुरली बजा दे मेरे श्याम रे" - सबिता बनर्जी की आवाज़ में एक भूला बिसरा भजन

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 411/2010/111 न मस्कार दोस्तों! बेहद ख़ुशी और जोश के साथ हम फिर एक बार आप सभी का 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल में हार्दिक स्वागत करते हैं। पिछले डेढ़ महीने से आप हर शाम 'ओल्ड इज़ गोल्ड रिवाइवल' का आनंद ले रहे थे, और हमें पूरी उम्मीद है और आप के टिप्पणियों से भी साफ़ ज़ाहिर है कि आपने इस विशेष प्रस्तुति को भी हाथों हाथ ग्रहण किया है। चलिए आज से हम वापस लौट रहे हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के अपने उसी पुराने स्वरूप में और फिर से एक बार गुज़रे ज़माने के अनमोल नग़मों के उसी कारवाँ को आगे बढ़ाते हैं। अब तक 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की कुल ४१० कड़ियाँ प्रस्तुत हो चुकी हैं, आज ४११-वीं कड़ी से यह सिलसिला हम आगे बढ़ा रहे हैं। तो दोस्तों, इस नई पारी की शुरुआत कुछ ख़ास अंदाज़ से होनी चाहिए, क्यों है न! इसीलिए हमने सोचा कि क्यों ना दस ऐसे गानों से इस पारी की शुरुआत की जाए जो बेहद दुर्लभ हों! ये वो गानें हों जिन्हे आप में से बहुतों ने कभी सुनी ही नहीं होगी और अगर सुनी भी हैं तो उनकी यादें अब तक बहुत ही धुंधली हो गई होंगी। पिछले डेढ़ महीने में हमने यहाँ वहाँ से, ज

दो हाथ - इस्मत चुगताई

सुनो कहानी: दो हाथ 'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में उन्हीं की हिंदी कहानी " माय नेम इज खान " का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं इस्मत चुगताई की एक सुन्दर, मार्मिक कथा " दो हाथ ", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने। कहानी का कुल प्रसारण समय 6 मिनट 42 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें। चौथी के जोडे क़ा शगुन बडा नाजुक़ होता है। ~ इस्मत चुगताई (1911-1991) हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी बिलकुल बेवकूफ है तू। ( इस्मत चुगताई की "दो हाथ" से एक अंश ) नीचे के प्लेयर से सुनें. (प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्ले' पर क्लिक करें।) यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंक से ड

महान फनकारों के सुरों से सुर मिलते आज हम आ पहुंचे हैं रिवाईवल की अंतिम कड़ी में ये कहते हुए - तू भी मेरे सुर में सुर मिला दे...

ओल्ड इस गोल्ड /रिवाइवल # ४५ पि छले ४५ दिनों से, यानी डेढ़ महीनों से आप 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर सुन रहे हैं रिवाइवल सुनहरे दौर के सदाबहार नग़मों का, जिन्हे हमारे कुछ जाने पहचाने साथियों की आवाजों में। आज हम आ पहुँचे हैं इस विशेष शृंखला की अंतिम कड़ी पर। इस शृंखला में जिन जिन गायक गायिकाओं ने हमारे सुर में सुर मिला कर इस शृंखला को इस सुरीले अंजाम तक पहुँचाया है, हम उन सभी कलाकारों का तह-ए-दिल से शुक्रिया अदा करते हैं, और साथ ही साथ हम आप सभी सुधी श्रोताओं का भी आभार व्यक्त करते हैं जिन्होने इन गीतों को सुन कर अपनी राय और तारीफ़ें लिख भेजी। तो आइए आज इस सुरीली शृंखला को एक सुरीला अंजाम प्रदान करते हैं और सुनते हैं फ़िल्म 'चितचोर' से "तू जो मेरे सुर में सुर मिला ले, संग गा ले, तो ज़िंदगी हो जाए सफल"। आपको बता दें कि इस गीत के लिए हेमलता को उस साल का फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड मिला था। इससे पहले कि आप यह गीत सुनें, इस गीत की रिकार्डिंग् की कहानी सुनिए ख़ुद हेमलता से जो उन्होने विविध भारती के एक इंटरव्यू में कहे थे। "इस गीत की रिकार्डिंग् के दिन मैं स्टुडियो लेट पहुँची। क

गीत कभी बूढ़े नहीं होते, उनके चेहरों पर कभी झुर्रियाँ नहीं पड़ती...सच ही तो कहा था गुलज़ार साहब ने

ओल्ड इस गोल्ड /रिवाइवल # ४४ गु लज़ार, राहुल देव बर्मन, आशा भोसले। ७० के दशक के आख़िर से लेकर ८० के दशक के मध्य भाग तक इस तिकड़ी ने फ़िल्म सम्गीत को एक से एक यादगार गीत दिए हैं। लेकिन इनमें जिस फ़िल्म के गानें सब से ज़्यादा सुने और पसंद किए गए, वह फ़िल्म थी 'इजाज़त'। इस फ़िल्म में आशा जी का गाया हर एक गीत कालजयी साबित हुआ। ख़ास कर "मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा है"। गुलज़ार साहब ने शब्दों के ऐसे ऐसे जाल बुने हैं इस गीत में कि ये बस वो ही कर सकते हैं। चाहे ख़त में लिपटी रात हो या एक अकेली छतरी में आधे आधे भीगना, या युं कहें कि मन का आधा आधा भीगना, सूखे वाले हिस्से का घर ले आना और गिले मन को बिस्तर के पास छोड़ आना, इस तरह के ऒब्ज़र्वेशन और कल्पना गुलज़ार साहब के अलावा कोई दूसरा आज तक नहीं कर पाया है। विविध भारती में गुलज़ार साहब एक बार 'जयमाला' कार्यक्रम में यह गीत बजाया था। तो उन्होने अपने ही शायराना अंदाज़ में इस गीत को पेश करने से पहले कुछ इस तरह से कहे थे - "दिल में ऐसे संभलते हैं ग़म जैसे कोई ज़ेवर संभालता है। टूट गए, नाराज़ हो गए, अंगूठी उतारी, वा