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मैंने रंग ली आज चुनरिया....मदन साहब के संगीत से शुरू हुई ओल्ड इस गोल्ड की परंपरा में एक विराम उन्हीं की एक और संगीत रचना पर

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 410/2010/110 'प संद अपनी अपनी' शृंखला की आज है अंतिम कड़ी। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर युं तो इससे पहले भी पहेली प्रतियोगिता के विजेताओं को हमने अपनी फ़रमाइशी गानें सुनने और सुनवाने का मौका दिया है, लेकिन इस तरह से बिना किसी शर्त या प्रतियोगिता के फ़रमाइशी गीत सुनवाने का सिलसिला पहली बार हमने आयोजित किया है। आज इस पहले आयोजन की आख़िरी कड़ी है और इसमें हम सुनवा रहे हैं रश्मि प्रभा जी की फ़रमाइश पर फ़िल्म 'दुल्हन एक रात की' का लता मंगेशकर का गाया एक बड़ा ही सुंदर गीत "मैंने रंग ली आज चुनरिया सजना तेरे रंग में"। राजा मेहंदी अली ख़ान का गीत और मदन मोहन का संगीत। हमें ख़याल आया कि एक लम्बे समय से हमने 'ओल इज़ गोल्ड' पर मदन मोहन द्वारा स्वरबद्ध गीत नहीं सुनवाया है। तो लीजिए मदन जी के धुनों के शैदाईयों के लिए पेश है आज का यह गीत। युं तो चुनरिया रंगने की बात काफ़ी सारे गीतों में होती रही है, लेकिन इस गीत में जो मिठास है, जो सुरीलापन है, उसकी बात ही कुछ और है। इस फ़िल्म में रफ़ी साहब का गाया "एक हसीन शाम को दिल मेरा खो गया" गीत

मैं पल दो पल का शायर हूँ...हर एक पल के शायर साहिर हैं मनु बेतक्ल्लुस जी की खास पसंद

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 409/2010/109 आ पकी फ़रमाइशी गीतों के ध्वनि तरंगों पे सवार हो कर 'पसंद अपनी अपनी' शृंखला की नौवीं कड़ी में हम आज आ पहुँचे हैं। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है मनु बेतख़ल्लुस जी की पसंद पर एक गीत। अपनी इस पसंद के बारे में उन्होने हमें कुछ इस तरह से लिख भेजा है। "गीत तो जाने कितने ही हैं..जो बेहद ख़ास हैं...और ज़ाहिर है..हर ख़ास गीत से कुछ ना कुछ दिली अहसास गहरे तक जुड़े हुए हैं... क्यूंकि आवाज़ को हम काफी समय से पढ़ते/सुनते आ रहे हैं...और आज अपने उन खास गीतों कि फेहरिश्त जब दिमाग में आ रही है..तो ये भी याद आ रहा है के ये गीत तो पहले ही बजाया जा चुका है... हरे कांच की चूड़ियाँ...तकदीर का फ़साना....जीवन से भरी तेरी आँखें... और ना जाने कितने ही.....जो मन से गहरे तक जुड़े हैं... ऐसे में एक और गीत याद आ रहा है...हो सकता है ये भी बजाया जा चुका हो पहले...मगर दिल कर रहा है इसी गीत को फिर से सुनने का.... मुकेश कि आवाज़ में फिल्म कभी कभी कि नज़्म.... आमतौर पर इसके एक ही पहलू पर ज्यादा गौर किया गया है..में पल दो पल का शायर हूँ.... इसी नज़्म का एक और पहलू है..जो उतना

मैं कहीं कवि न बन जाऊं....ये गीत पसंद है "महफ़िल-ए-गज़ल" प्रस्तुतकर्ता विश्व दीपक तन्हा को

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 408/2010/108 आ ज 'पसंद अपनी अपनी' में हम जिन शख़्स के पसंद का गीत सुनने जा रहे हैं, वह इसी हिंद युग्म से जुड़े हुए हैं। आप सभी के अतिपरिचित विश्व दीपक 'तन्हा' जी। 'महफ़िल-ए-ग़ज़ल' शृंखला के लिए वो जो मेहनत करते हैं, वो मेहनत साफ़ झलकती है उनके आलेखों में, ग़ज़लों के चुनाव में। क्योंकि वो ख़ुद भी एक कवि हैं, शायद यही वजह है कि इन्हे यह गीत बहुत पसंद है - "मैं कहीं कवि ना बन जाऊँ तेरे प्यार में ऐ कविता"। रफ़ी साहब की आवाज़ में यह है फ़िल्म 'प्यार ही प्यार' का गीत, हसरत जयपुरी के बोल और शंकर जयकिशन का संगीत। दोस्तों, यह वह दौर था जब शैलेन्द्र जी हमसे बिछड़ चुके थे और केवल हसरत साहब ही शंकर जयकिशन के लिए गानें लिख रहे थे। १९६८-६९ से १९७१-७२ के बीच हसरत साहब, शंकर जयकिशन और रफ़ी साहब ने एक साथ कई फ़िल्मों में काम किया जैसे कि 'यकीन', 'पगला कहीं का', 'प्यार ही प्यार', 'दुनिया', 'तुमसे अच्छा कौन है', 'सच्चाई', 'शिकार', 'धरती', आदि। पहले शैलेन्द्र चले गए, फिर १९७२ म