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मल्लिका-ए-गजल - बेगम अख्तर

सुना है तानसेन जब दीपक राग गाते थे तो दीप जल उठते थे और जब मेघ मल्हार की तान छेड़ते थे तो मेघ अपनी गठरी खोलने को मजबूर हो जाते थे। पीछे मुड़ कर देखें तो न जाने कितने ही ऐसे फ़नकार वक्त की चादर में लिपटे मिल जाते हैं जो इतिहास का हिस्सा बन कर भी आज भी हमारे दिलो जान पर छाये हुए हैं, आज भी उनका संगीत आदमी तो आदमी, पशु पक्षियों, वृक्षों और सारी कायनात को अपने जादू से बांधे हुए है। आइए ऐसी ही एक जादूगरनी से आप को मिलवाते हैं जो बेगम अख्तर के नाम से मशहूर हैं। आज से लगभग एक सदी पहले जब रंगीन मिजाज, संगीत पुजारी अवधी नवाबों का जमाना था, लखनऊ से कोई 80 किलोमीटर दूर फ़ैजाबाद में एक प्रेम कहानी जन्मी। पेशे से वकील, युवा असगर हुसैन को मुश्तरी से इश्क हो गया। हुसैन साहब पहले से शादी शुदा थे पर इश्क का जादू ऐसा चढ़ा कि उन्हों ने मुश्तरी को अपनी दूसरी बेगम का दर्जा दे दिया। लेकिन हर प्रेम कहानी का अंत सुखद नहीं होता, दूसरे की आहों पर परवान चढ़े इश्क का अंत तो बुरा होना ही था। मुशतरी के दो बेटियों के मां बनते बनते हुसैन साहब के सर से इश्क का भूत उतर गया और उन्हों ने न सिर्फ़ मुश्तरी से सब रिश्ते तोड़ लिए बल

जब ओ पी नैयर के गीतों को आल इंडिया रेडियो ने प्रतिबंधित कर दिया....

नैयर साहब की जयंती पर विशेष ओ.पी.नैयर नाम सुनते ही एक पतली काया और टोपी पहने हुए इंसान की छवि सामने आती है ।नैयर साहब का जन्म 16जनवरी १९२६ में लाहोर जो कि अब पाकिस्तान का हिस्सा है,हुआ। दबंग, निरंकुश और हमेशा नये प्रयोग करने वाले इस सितारे का नाम माता पिता ने ओंकार प्रसाद रखा। पाकिस्तान के विभाजन के बाद वो लाहोर से अमृतसर आ गये। ओंकार प्रसाद ने संगीत की सेवा करने के लिए अपनी पढ़ाई बीच में छोड़ दी । अपने संगीत के सफ़र की शुरुआत इन्होंने आल इंडिया रेडियो से की ।इनकी पत्नी सरोज मोहनी नैयर एक बहुत ही अच्छी गीतकारा थी. सरोज के द्वारा लिखा गया ‘प्रीतम आन मिलो...’.ने ओपी को सिने जगत में नयी उँचाइयों तक पहुँचा दिया. सिने जगत में ओ. पी. नैयर का नाम ओपी प्रसिद्ध हुआ ।थोड़े ही दिनो के बाद एक रिकॉर्डिंग कंपनी ने इनके गाने ‘प्रीतम आन मिलो’ और ‘कौन नगर तेरा दूर ठिकाना’ को लेकर एक संगीत का एल्बम निकाला, जो लोगों के द्वारा बहुत पसंद किया गया और नैयर साहब के काम को लोगों ने पहचाना । कुछ ही दिनों बाद हिन्दी फिल्मों में अपने नसीब को आज़माने ये मुंबई आ गये । १९४९ में "कनीज़" से इन्हें सिने जगत

उदय प्रकाश का कहानीपाठ और आलाकमान की बातें

९ जनवरी २००९ को हिन्दी अकादमी की ओर से आयोजित कार्यक्रम की रिकॉर्डिंग ९ जनवरी २००९ को मैं पहली दफ़ा किसी कथापाठ सरीखे कार्यक्रम में गया था। कार्यक्रम रवीन्द्र सभागार, साहित्य अकादमी, दिल्ली में था जिसमें फिल्मकार, कवि, कथाकार उदय प्रकाश का कथापाठ और उनपर प्रसिद्ध आलोचक नामवर सिंह का वक्तव्य होना था। जाने की कई वज़हें थीं। हिन्द-युग्म पिछले १ साल से कालजयी कहानियों का पॉडकास्ट प्रसारित कर रहा है। पहले इस आयोजन में हम निरंतर नहीं थे, लेकिन जुलाई से पिट्वबर्गी अनुराग शर्मा के जुड़ने के बाद हम हर शनिवार को प्रेमचंद की कहानियाँ प्रसारित करने लगे। कई लोग शिकायत करते रहे थे (खुले तौर पर न सही) कि कहानियों के वाचन में और प्रोफेशनलिज्म की ज़रूरत है। तो पहली बात तो ये कि मैं उदय प्रकाश जैसे वरिष्ठ कथाकारों को सुनकर यह जानना चाहता था कि असरकारी कहानीपाठ आखिर क्या बला है? हालाँकि इसमें मुझे निराशा हाथ लगी। मुझे लगा कि हिन्द-युग्म के अनुराग शर्मा, शन्नो अग्रवाल और शोभा महेन्द्रू इस मामले में बहुत आगे हैं। लेकिन फिर भी कहानीकार से कहानी सुनने का अपना अलग आनंद है। दूसरी वजह थी कि यह भी सीखें कि यदि

जब मुझे विचित्र वीणा वादन हेतु मिला आदरणीय स्वर्गीय पंडित किशन महाराज जी का आशीर्वाद

( पहले अंक से आगे...) शाम के यही कोई आठ बजे का समय था, बनारस में गंगा मैया झूम झूम कर बह रही थी और कई युवा संगीत कलाकारों को शब्द, स्वर और लय की सरिता में खो जाने के लिए प्रोत्साहित कर रही थी, नगर के एक सभागार में 'आकाशवाणी संगीत प्रतियोगिता' के विजेताओ का संगीत प्रदर्शन हो रहा था, मैं मंच पर विचित्र वीणा लेकर बैठी, श्रोताओं की पहली पंक्ति में ही श्रद्धेय स्वर्गीय किशन महाराज जी को देखा और दोनों हाथ जोड़ कर उन्हें नमस्कार किया, तत्पश्चात वीणा वादन शुरू किया, जैसे ही वादन समाप्त समाप्त हुआ, आदरणीय स्वर्गीय पंडित किशन महाराज जी मंच पर आए, अपना हाथ मेरे सर पर रखा और कहा "अच्छा बजा रही हो, खूब बजाओ "। उनका यह आशीर्वाद और फ़िर उनके हाथ से स्वर्ण पदक पाकर मेरी संगीत साधना सफल हो गई, जीवन का वह क्षण मेरे लिए अविस्मर्णीय हैं । कई बार कई संगीत समारोह में उनका तबला सुनने का अवसर भी मुझे प्राप्त हुआ, उनका तबला चतुर्मिखी था, तबले की सारी बातें उसमे शामिल थी, लव और स्याही का वे सूझबूझ से प्रयोग करते थे, उनके उठान, कायदे रेलों और परनो की विशिष्ट पहचान थी । उन्होंने तबले में गणित के

जब मिला तबले को वरदान

पंडित किशन महाराज (१९२३- २००८) को संगीत की तीनों विधाओं में सर्वश्रेष्ठ कलाकार होने का सौभाग्य प्राप्त था. वो तबले के उस्ताद होने के साथ साथ मूर्तिकार, चित्रकार, वीर रस के कवि और ज्योतिष के मर्मज्ञ भी थे. यानी दूसरे शब्दों में कहें तो भारत सरकार द्वारा पद्मविभूषण से सम्मानित होने वाले वाले पहले कलाकार पंडित किशन महाराज जी, एक सम्पूर्ण कलाकार थे. बीते साल में उन्हें खोना संगीत की दुनिया को हुई एक बहुत बड़ी क्षति है. वीणा साधिका, राधिका बुधकर जी लेकर आई हैं पंडित जी पर दो विशेष आलेख. रात का समय ....जब पुरी दुनिया गहरी नींद में सो रही थी ...तब वाराणसी के संकट मोचन मंदिर में तबले की थाप गूंज रही थी, तबले के बोल मानो ईश्वरीय नाद की तरह सम्पूर्ण वातावरण में बहकर उसे दिव्य और भी दिव्य बना रहे थे, अचानक न जाने क्या हुआ और तबले की ध्वनी कम और मंदिर की घंटियों की आवाज़ ज्यादा सुनाई देने लगी, उन्होंने पल भर के लिए तबले की बहती गंगा को विराम दिया और सब कुछ शांत हो गया, उन्होंने फ़िर तबले पर बोलो की सरिता का प्रवाह अविरत किया और फ़िर मंदिरों की घंटिया बजने लगी, सुबह लोगो ने कहा उन्हें ईश्वरीय वरदान मि

गोल्डन ग्लोब ए आर रहमान ने कहा "करोड़ों भारतीयों" को सलाम

बात सन् ९६ की है। ४ सालों से बिना रूके, बिना थके फिल्मों में म्युजिक देने के बाद रहमान कुछ अलग करना चाहते थे। दीगर बात है कि कलाकार सीमाओं में अपना सर्वश्रेष्ठ नहीं दे पाता और फिल्मों में संगीत देना सीमा में बँधने जैसा हीं है। निर्माता-निर्देशक,कहानी-पटकथा सबकी बात सुननी होती है।तो हुआ यूँ कि स्क्रीन अवार्ड्स के लिए रहमान मुंबई आए हुए थे और एक होटल में ठहरे थे। अचानक उन्हें कुछ ख्याल आया और उन्होंने अपने बचपन के दोस्त जी० भरत को तलब किया। जी० भरत यानि भरत बाला ने रहमान के साथ लगभग १०० से ज्यादा जिंगल्स पर काम किया था। रहमान और भरत के बीच संगीत पर चर्चा हुई। बातों-बातों में उन दोनों ने अपने अगले एलबम का प्लान कर लिया। उसी साल अंतर्राष्ट्रीय ख्याति-लब्ध म्युजिक कंपनी "सोनी म्युजिक" का भारतीय संगीत-उद्योग में आना हुआ । सोनी भारतीय कलाकारों को प्रोत्साहित करने के बहाने बाज़ार में पाँव जमाना चाहती थी। सोनी के मैनेजिंग डायरेक्टर "विजय सिंह" के दिमाग में जिस पहले बंदे का नाम आया वह थे ए०आर० रहमान । सोनी ने रहमान के साथ तीन कैसेट्स का अनुबंध किया। रहमान ने भरत बाला के साथ ज

जब रफी साहब की आवाज़ ढली शम्मी कपूर के मदमस्त अंदाज़ में...

जब दो कलाकार एक दूसरे के प्रर्याय बन जाते हैं तो कई मायनों में एक दुसरे की परछाई की तरह लगने लगते हैं। जिस तरह दो घनिष्ठ दोस्तों की जोडी में से एक को देखते ही दूसरे की ही याद आ जाये, ठीक उसी तरह जब हम शम्मी कपूर के गानों को सुनते हैं तो मोहम्मद रफी बरबस ही याद आते हैं और जब मोहम्मद रफी के चुलबुलेपन से सनी हुई आवाज को सुनते हैं तो सबसे पहले हमें शम्मी कपूर की अदायें ही याद आती हैं। एक अच्छे दोस्त की यही तो पहचान है कि वह अपने दोस्त के अनुसार खुद को ढाल ले। शम्मी के शोख व्यक्तित्व के अनुसार ही उन्हीं की तरह की शोखी मोहम्मद रफी ने अपनी आवाज में भरी और उनके गीतों को अलग अंदाज दिया। एक समय था जब लगातार चौदह फ्लाप फिल्में दे कर शम्मी कपूर की गिनती एक असफल कलाकार के रुप में की जाने लगी थी। उनकें फिल्मी कैरियर में बेहतरीन मोड उस वक्त आया जब नासिर हुसैन की फिल्म "तुमसा नहीं देखा" आई जिसमें उनका चुलबुला अंदाज और उसमें मोहम्मद रफी के गाये हुये गीत बेहद प्रसिद्द हुए जो आज तक भी संगीत प्रेमियों की पसंद बने हुये हैं, उसके बाद तो मोहम्मद रफी शम्मी कपूर की ही आवाज बन गये थे । १९६० का वह दौर