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आज कल में ढल गया....रफ़ी साहब की आवाज़ में लोरी का वात्सल्य

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 785/2011/225 न मस्कार! 'चंदन का पलना, रेशम की डोरी' की पाँचवी कड़ी में आज आवाज़ रफ़ी साहब की। दोस्तों, रफ़ी साहब और लोरी का जब साथ-साथ ज़िक्र हो तो सबसे पहले जो दो गीत याद आते हैं वो हैं फ़िल्म 'ब्रह्मचारी' का "मैं गाऊँ तुम सो जाओ" और फ़िल्म 'बेटी-बेटे' का "आज कल में ढल गया दिन हुआ तमाम"। दोनों ही मास्टरपीसेस हैं अपनी अपनी जगह और मज़े की बात तो यह है कि दोनों ही शैलेन्द्र नें लिखे हैं और संगीत दिया है शंकर जयकिशन नें। बस इतना ज़रूर है कि 'ब्रह्मचारी' के गीत को व्यवसायिक कामयाबी ज़्यादा मिली, जबकि स्तर की बात करें तो 'बेटी-बेटे' का गीत ज़्यादा बेहतर लगता है। मैं बड़ा परेशान हो गया कि इन दोनों में से किस लोरी को चुना जाये, अन्त में "आज कल में ढल गया" के पक्ष में ही मन बना लिया। इस लोरी की सब से ख़ास बात यह है कि इसमें रफ़ी साहब नें हर एक शब्द में जान डाल दी है, आत्मा डाल दी है। और एस.जे. के ऑरकेस्ट्रेशन की भी क्या तारीफ़ करें! और शैलेन्द्र का काव्य, उफ़! गायक, गीतकार, और संगीतकार, तीनों के टीमवर...

तुझे सूरज कहूँ या चन्दा...शायद आपके पिता ने भी कभी आपके लिए ये गाया होगा

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 784/2011/224 न मस्कार! दोस्तों, इन दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में हम प्रस्तुत कर रहे हैं लघु शृंखला 'चंदन का पलना, रेशम की डोरी'। इस शृंखला में आपनें बलराज साहनी पर फ़िल्माया तलत साहब का गाया फ़िल्म 'जवाब' का गीत सुना था। आज एक बार फिर बलराज साहब पर फ़िल्माई एक लोरी हम आपके लिए ले आये हैं, और इस बार आवाज़ है मन्ना डे की। एक समय ऐसा था जब किसी वयस्क चरित्र पर जब भी कोई गीत फ़िल्माया जाना होता तो संगीतकार और निर्माता मन्ना दा की खोज करते। इस बात का मन्ना दा नें एक साक्षात्कार में हँसते हुए ज़िक्र भी किया था कि मुझे बुड्ढों के लिए प्लेबैक करने को मिलते हैं। मन्ना दा की आवाज़ में कुछ ऐसी बात है कि नायक से ज़्यादा उनकी आवाज़ वयस्क चरित्रों पर फ़िट बैठती थी। लेकिन इससे उन्हें नुकसान कुछ नहीं हुआ, बल्कि कई अच्छे अच्छे अलग हट के गीत गाने को मिले। आज उनकी गाई जिस लोरी को हम सुनने जा रहे हैं, वह भी एक ऐसा ही अनमोल नग़मा है फ़िल्म-संगीत के धरोहर का। १९६९ की फ़िल्म 'एक फूल दो माली' का यह गीत है "तुझे सूरज कहूँ या चन्दा, तुझे दीप कहूँ या तारा...

चन्दन का पलना रेशम की डोरी....लोरी की मिठास और हेमंत दा की आवाज़

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 783/2011/223 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का सप्रेम नमस्कार! इन दिनों इस स्तंभ में आप आनन्द ले रहे हैं पुरुष गायकों द्वारा गाई फ़िल्मी लोरियों से सजी इस लघु शृंखला 'चंदन का पलना, रेशम की डोरी' का। आज के अंक की लोरी भी यही है जिससे इस शृंखला का नाम रखा गया है। हेमन्त कुमार की गाई हुई १९५४ की फ़िल्म 'शबाब' की लोरी "चंदन का पलना, रेशम की डोरी, झुलना झुलाऊँ निन्दिया को तोरी"। शक़ील बदायूनी के बोल, नौशाद का संगीत। लोरी फ़िल्माई गई है भारत भूषण पर। वैसे इस लोरी के दो संस्करण हैं, पहला हेमन्त दा की एकल आवाज़ में और दूसरे में लता जी भी उनके साथ हैं। एकल संस्करण में महल का दृश्य है जिसमें गायक बने भारत भूषण इस लोरी को गाते हैं और पर्दे के उस पार कक्ष में नूतन बिस्तर में बैठी हैं। राजा और दासियाँ/ सहेलियाँ छुप-छुप कर यह दृश्य देख रहे हैं। मैंने फ़िल्म तो नहीं देखी पर इस गीत के विडियो को देख कर ऐसा लगता है जैसे नूतन को नींद न आने की बिमारी है और उन्हें सुलाने के लिए राजमहल में गायक को बुलाया गया है लोरी गाने के लिए। नूतन...

सो जा तू मेरे राजदुलारे सो जा...लोरी की जिद करते बच्चे पिता को भी माँ बना छोड़ते हैं

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 782/2011/222 'चं दन का पलना, रेशम की डोरी' - 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में कल से हमने शुरु की है पुरुष गायकों द्वारा गाई हुई फ़िल्मी लोरियों पर आधारित यह लघु शृंखला। लोरी, जिसे अंग्रेज़ी में ललाबाई (lullaby) कहते हैं। आइए इस 'ललाबाई' शब्द के उत्स को समझने की कोशिश करें। सन् १०७२ में टर्कीश लेखक महमूद अल-कशगरी नें अपनी किताब 'दीवानूल-लुगत अल-तुर्क' में टर्कीश लोरियों का उल्लेख किया है जिन्हें 'बालुबालु' कहा जाता है। ऐसी धारणा है कि 'बालुबालु' शब्द 'लिलिथ-बाई' (लिलिथ का अर्थ है अल्विदा) शब्द से आया है, जिसे 'लिलिथ-आबी' भी कहते हैं। जिउविश (Jewish) परम्परा में लिलिथ नाम का एक दानव था जो रात को आकर बच्चों के प्राण ले जाता था। लिलिथ से बच्चों को बचाने के लिए जिउविश लोग अपने घर के दीवार पर ताबीज़ टांग देते थे जिस पर लिखा होता था 'लिलिथ-आबी', यानि 'लिलिथ-बाई', यानि 'लिलिथ-अल्विदा'। इसी से अनुमान लगाया जाता है कि अंग्रेज़ी शब्द 'ललाबाई' भी 'लिलिथ-बाई' से ही आया होगा। और शायद य...

धीरे से आजा री अँखियन में...सी रामचंद्र रचित एक कालजयी लोरी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 781/2011/221 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के सभी रसिक श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का सप्रेम नमस्कार! दोस्तों, ज़िन्दगी की शायद सबसे आनन्ददायक अनुभूति होती है माँ-बाप बनना। यह एक ऐसी ख़ुशी है जिसका शब्दों में बयान नहीं हो सकती। ईश्वर की परम कृपा से मुझे भी पिछले दिनों पिता बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उस नन्हे के आने से जैसे ज़िन्दगी की धारा ही बदल गई। रात-रात जाग कर बच्चे को सुलाना कुछ और ही आनन्द प्रदान करती है। पुराने ज़माने में मायें लोरियाँ गा कर अपने बच्चों को सुलाती थीं, पर अब यह प्रथा केवल माओं तक सीमित नहीं रही। पिता भी समान रूप से घर के काम-काज में योगदान देते हुए बच्चों को सुलाने तक में अपना योगदान देते हैं। दोस्तों, अब तक लोरियों की तरफ़ मेरा ज़्यादा ध्यान नहीं जाता था, पर अब तो जैसे रातों को लोरियाँ याद कर कर गाने को जी चाहता है। इसी से मुझे ख़याल आया कि क्यों न 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में एक ऐसी शृंखला चलाई जाए जिसमें पुरुष गायकों द्वारा गाई हुई लोरियों को शामिल किए जाएँ। गायिकाओं द्वारा गाई लोरियों की तो फ़िल्मों में कोई कमी नहीं है, पर गायकों की ल...

मौसिकी अर्श के आफताब : उस्ताद फ़ैयाज़ खाँ

सुर संगम- 42 – उन्हे मैसूर दरबार से “आफताब-ए-मौसिकी” (संगीत के सूर्य) की उपाधि से नवाजा गया भारतीय संगीत के प्रचलित घरानों में जब भी आगरा घराने की चर्चा होगी तत्काल एक नाम जो हमारे सामने आता है, वह है- आफताब-ए-मौसिकी उस्ताद फ़ैयाज़ खाँ। ‘सुर संगम’ के आज के अंक में हम इन्हीं महान गायक कलासाधक को श्रद्धा-सुमन अर्पित करेंगे। पिछली शताब्दी के पूर्वार्द्ध के जिन संगीतज्ञों की गणना हम शिखर-पुरुष के रूप में करते हैं उस्ताद फ़ैयाज़ खान उन्ही में से एक थे। ध्रुवपद-धमार, खयाल-तराना, ठुमरी-दादरा, सभी शैलियों की गायकी पर उन्हें कुशलता प्राप्त थी। प्रकृति ने उन्हें घन, मन्द्र और गम्भीर कण्ठ का उपहार तो दिया ही था, उनके शहद से मधुर स्वर श्रोताओं पर रस-वर्षा कर देते थे। फ़ैयाज़ खाँ का जन्म ‘आगरा रँगीले घराना’ के नाम से विख्यात ध्रुवपद गायकों के परिवार में हुआ था। दुर्भाग्य से फ़ैयाज़ खाँ के जन्म से लगभग तीन मास पूर्व ही उनके पिता सफदर हुसैन खाँ का इन्तकाल हो गया। जन्म से ही पितृ-विहीन बालक को उनके नाना ग़ुलाम अब्बास खाँ ने अपना दत्तक पुत्र बनाया और पालन-पोषण के साथ-साथ संगीत-शिक्षा की व्यवस्था भी की।...

कुछ एल पी गीतों की क्वालिटी तो आजकल के डिजिटल रेकॉर्डिंग् से भी उत्तम थी -विजय अकेला

ओल्ड इज़ गोल्ड - शनिवार विशेष - 66 गीतकार विजय अकेला से बातचीत उन्हीं के द्वारा संकलित गीतकार जाँनिसार अख़्तर के गीतों की किताब 'निगाहों के साये' पर (भाग-२) भाग ०१ यहाँ पढ़ें 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार! 'शनिवार विशेषांक' मे पिछले सप्ताह हम आपकी मुलाकात करवा रहे थे गीतकार विजय अकेला से जिनसे हम उनके द्वारा सम्पादित जाँनिसार अख़्तर साहब के गीतों के संकलन की किताब 'निगाहों के साये' पर चर्चा कर रहे थे। आइए आज बातचीत को आगे बढ़ाते हुए आनन्द लेते हैं इस शृंखला की दूसरी और अन्तिम कड़ी। सुजॉय - विजय जी, नमस्कार और एक बार फिर आपका स्वागत है 'आवाज़' के मंच पर। विजय अकेला - धन्यवाद! नमस्कार! सुजॉय - विजय जी, पिछले हफ़्ते आप से बातचीत करने के साथ साथ जाँनिसार साहब के लिखे आपकी पसन्द के तीन गीत भी हमनें सुने। क्यों न आज का यह अंक अख़्तर साहब के लिखे एक और बेमिसाल नग़मे से शुरु की जाये? विजय अकेला - जी ज़रूर! सुजॉय - तो फिर बताइए, आपकी पसन्द का ही कोई और गीत। विजय अकेला - फ़िल्म 'नूरी' का शीर्षक गीत स...