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वो एक दोस्त मुझको खुदा सा लगता है.....सुनेंगे इस गज़ल को तो और भी याद आयेंगें किशोर दा

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 454/2010/154 मो हम्मद रफ़ी, आशा भोसले, और लता मंगेशकर के बाद आज बारी है किशोर दा, यानी किशोर कुमार की। और क्यों ना हो, आज ४ अगस्त जो है। ४ अगस्त यानी किशोर दा का जन्मदिन। पिछले साल आज ही के दिन से 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर हमने आपको सुनवाया था किशोर दा के गाए दस अलग अलग मूड के गीतों पर आधारित शृंखला 'दस रूप ज़िंदगी के और एक आवाज़ - किशोर कुमार'। और इस साल, यानी कि आज के दिन जब ८० के दशक के कुछ बेहद ख़ूबसूरत ग़ज़लों की शृंखला 'सेहरा में रात फूलों की' चल ही रही है, तो क्यों ना किशोर दा की गाई एक बहुत ही कम सुनी लेकिन बेहद सुंदर ग़ज़ल को याद किया जाए। यह फ़िल्म थी 'सुर्ख़ियाँ' जो आयी थी सन् १९८५ में। यह एक समानांतर फ़िल्म थी जिसका निर्माण अनिल नागरथ ने किया था और निर्देशक थे अशोक त्यागी। फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे नसीरुद्दिन शाह, मुनमुन सेन, सुरेश ओबेरॊय, रामेश्वरी, अरुण बक्शी, ब्रह्म भारद्वाज, कृष्ण धवन, गुलशन ग्रोवर, एक. के. हंगल, पद्मिनी कपिला, भरत कपूर, पिंचू कपूर, कुलभूषण खरबंदा, विनोद पाण्डेय, सुधीर पाण्डेय, आशा शर्मा और दिनेश ठाकुर।

आवारा हैं गलियों में मैं और मेरी तन्हाई .. अली सरदार जाफ़री के दिल का गुबार फूटा जगजीत सिंह के सामने

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #९५ "शा यर न तो कुल्हाड़ी की तरह पेड़ काट सकता है और न इन्सानी हाथों की तरह मिट्टी से प्याले बना सकता है। वह पत्थर से बुत नहीं तराशता, बल्कि जज़्बात और अहसासात की नई-नई तस्वीरें बनाता है। वह पहले इन्सान के जज़्बात पर असर-अंदाज़ होता है और इस तरह उसमें दाख़ली (अंतरंग) तबदीली पैदा करता है और फिर उस इन्सान के ज़रिये से माहौल (वातावरण) और समाज को तबदील करता है।" शायर की परिभाषा देती हुई ये पंक्तियाँ उन शायर की हैं, जिनकी पिछले १ अगस्त को पुण्यतिथि थी। जी हाँ, इस १ अगस्त को उनको सुपूर्द-ए-खाक हुए पूरे १० साल हो गए। २९ नवंबर १९१३ को जन्मे "सरदार" ७७ साल की उम्र में इस जहां-ए-फ़ानी से रूखसत हुए। मैं ये तो नहीं कह सकता कि आज की महफ़िल सजाने से पहले मुझे इस बात की जानकारी थी, लेकिन कहते हैं ना कि कुछ बातें बिन जाने हीं सही हो जाती हैं। तो ये देखिए. हमें यह सौभाग्य हासिल हो गया कि हम अपनी महफ़िल के माध्यम से इस महान शायर को श्रद्धंजलि अर्पित कर सकें। सरदार यानि कि अली सरदार जाफ़री.. हमने इनका ज़िक्र पिछली कई सारी महफ़िलों में किया है। दर-असल हमारी पिछली ४-५ महफ

अहले दिल यूँ भी निभा लेते हैं....नक्श साहब का कलाम और लता की पुरकशिश आवाज़

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 453/2010/153 ख़ य्याम साहब एक ऐसे संगीतकार रहे जिन्होने ना केवल अपने संगीत के साथ कभी कोई समझौता नहीं किया, बल्कि उन्होनें कभी सस्ते बोल वाले गीतों को स्वरबद्ध करना भी नहीं स्वीकारा। नतीजा यह कि ख़य्याम साहब का हर एक गीत उत्कृष्ट है, क्लासिक है। ख़्य्याम साहब ८० के दशक के उन गिने चुने संगीतकारों में से हैं जिन्होने फ़िल्म संगीत के बदलते तेवर के बावजूद अपने स्तर को बनाए रखते हुए एक से एक नायाब गानें हमें दिए। इसलिए आश्चर्य की बात बिलकुल नहीं है कि हमारी इस शृंखला में कुल १० ग़ज़लों में से ४ ग़ज़लें ख़य्याम साहब की कॊम्पोज़ की हुई हैं। इन चार ग़ज़लों में से एक ग़ज़ल फ़िल्म 'उमरावजान' से कल आपने सुनी, आज दूसरी ग़ज़ल की बारी। और इस बार आवाज़ आशा जी की बड़ी बहन लता जी की। नक्श ल्यालपुरी साहब का कलाम है और क्या ख़ूब उन्होने लिखा है कि "अहल-ए-दिल यूँ भी निभा लेते हैं, दर्द सीने में छुपा लेते हैं"। आज 'सेहरा में रात फूलों की' शृंखला में इसी ग़ज़ल की बारी। १९८१ की फ़िल्म 'दर्द' की यह ग़ज़ल है। इस फ़िल्म के गीतों की अगर बात करें तो इसमें

"इश्क़ महंगा पड़े फिर भी सौदा करे".. ऐसा हीं एक सौदा करने आ पहुँचें हैं कभी साफ़, कभी गंदे, "लफ़ंगे परिंदे"

ताज़ा सुर ताल २९/२०१० विश्व दीपक - नमस्कार दोस्तों! जैसा कि हाल के सालों में हम देखते आ रहे हैं.. आज के फ़िल्मकार नई नई कहानियाँ हिंदी फ़िल्मों में ला रहे हैं। वैसे तो ज़्यादातर फ़िल्मों की कहानियों का आधार नायक-नायिका-खलनायक ही होते रहे हैं और आज भी है, लेकिन बदलते समाज और दौर के साथ साथ फ़िल्म के पार्श्व में काफ़ी परिवर्तन आ गए हैं। अब आप ही बताइए मुंबई के 'बाइक गैंग्स' पर किसी फ़िल्म की कल्पना क्या ७० के दशक में की जा सकती थी? सुजॊय - क्योंकि फ़िल्म समाज का आईना कहलाता है, तो बदलते दौर के साथ साथ, बदलते समाज के साथ साथ फ़िल्में भी बदल रही है। और यही बात लागू होती है फ़िल्म संगीत पर भी। जब जब फ़िल्मी गीतों के गिरते हुए स्तर पर लोग चर्चा शुरु कर देते हैं, तब भी उन्हें इसी बात को ध्यान में रखना होगा कि अब वक़्त बदल गया है। आज की नायिका अगर "चुप चुप खड़े हो ज़रूर कोई बात है" जैसे गीत गाये, तो वह बहुत ज़्यादा नाटकीय और बेमानी लगेगी। इसलिए बदलते दौर के साथ साथ बदलते संगीत को भी खुले दिल से स्वीकारें, इसी में शायद सब की भलाई है। हाँ, यह ज़रूर है कि गीतों का स्तर नहीं गि

ये क्या जगह है दोस्तों.....शहरयार, खय्याम और आशा की तिकड़ी और उस पर रेखा की अदाकारी - बेमिसाल

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 452/2010/152 'से हरा में रात फूलों की' - ८० के दशक की कुछ यादगार ग़ज़लों की इस लघु शृंखला की दूसरी कड़ी में आप सभी का स्वागत है। जैसा कि कल हमने कहा था कि इस शृंखला में हम दस अलग अलग शायरों के क़लाम पेश करेंगे। कल हसरत साहब की लिखी ग़ज़ल आपने सुनी, आज हम एक बार फिर से सन् १९८१ की ही एक बेहद मक़बूल और कालजयी फ़िल्म की ग़ज़ल सुनने जा रहे हैं। यह वह फ़िल्म है दोस्तों जो अभिनेत्री रेखा के करीयर की सब से महत्वपूर्ण फ़िल्म साबित हुई। और सिर्फ़ रेखा ही क्यों, इस फ़िल्म से जुड़े सभी कलाकारों के लिए यह एक माइलस्टोन फ़िल्म रही। अब आपको फ़िल्म 'उमरावजान' के बारे में नई बात और क्या बताएँ! इस फ़िल्म के सभी पक्षों से आप भली भाँति वाक़ीफ़ हैं। और इस फ़िल्म में शामिल होने वाले मुजरों और ग़ज़लों के तो कहने ही क्या! आशा भोसले की गाई हुई ग़ज़लों में किसे किससे उपर रखें समझ नहीं आता। "दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिए" या फिर "इन आँखों की मस्ती के", या "जुस्तजू जिसकी थी उसको तो ना पाया हमने" या फिर "ये क्या जगह है दोस्तों"। ए

मोहब्बत रंग लाएगी जनाब आहिस्ता आहिस्ता....इसी विश्वास पे तो कायम है न दुनिया के तमाम रिश्ते

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 451/2010/151 फ़ि ल्म संगीत का सुनहरा दौर ४० के दशक के आख़िर से लेकर ५० और ६० के दशकों में पूरे शबाब पर रहने के बाद ७० के दशक के आख़िर से धीरे धीरे ख़त्म होता जाता है। और इस बारे में यही आम धारणा भी है। ८० के दशक में फ़िल्मों की कहानी ही कहिए, फ़िल्म और संगीत के बदलते रूप ही कहिए, या लोगों की रुचि ही कहिए, जो भी है, हक़ीक़त तो यही है कि ८० के दशक में फ़िल्म संगीत एक बहुत ही बुरे वक़्त से गुज़रा। कुछ फ़िल्मों, कुछ गीतों और कुछ गिने चुने गीतकारों और संगीतकारों को छोड़ कर ज़्यादातर गानें ही चलताऊ क़िस्म के बने। लेकिन जैसा कि हमने "कुछ' शब्द का प्रयोग किया, तो कुछ गानें ऐसे भी बनें उस दशक में दोस्तों जो उतने ही सुनहरे हैं जितने कि फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर के गीत। दोस्तों, कुछ ऐसे ही सुनहरी ग़ज़लों को चुन कर आज से अगले दस कड़ियों में पिरो कर हम आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की नई लघु शृंखला 'सेहरा में रात फूलों की'। चारों तरफ़ वीरानी हो, और ऐसे में कहीं से फूलों की ख़ुशबू आ कर हमारी सांसों को महका जाए, कुछ ऐसी ही बात थी इन ग़

रविवार सुबह की कॉफी और रफ़ी साहब के अंतिम सफर की दास्ताँ....दिल का सूना साज़

३१ जुलाई को सभी रफ़ी के चाहने वाले काले दिवस के रूप मानते आये हैं और मनाते रहेंगे क्यूंकि इस दिन ३१ जुलाई १९८० को रफ़ी साब हम सब को छोड़ कर चले गए थे लेकिन इस पूरे दिन का वाकया बहुत कम लोग जानते हैं आज उस दिन क्या क्या हुआ था आपको उसी दिन कि सुबह के साथ ले चलता हूँ. ३१ जुलाई १९८० को रफ़ी साब जल्दी उठ गए और तक़रीबन सुबह ९:०० बजे उन्होंने नाश्ता लिया. उस दिन श्यामल मित्रा के संगीत निर्देशन तले वे कुछ बंगाली गीत रिकॉर्ड करने वाले थे इसलिए नाश्ते के बाद उसी के रियाज़ में लग गए. कुछ देर के बाद श्यामल मित्रा उनके घर आये और उन्हें रियाज़ करवाया. जैसे ही मित्रा गए रफ़ी साब को अपने सीने में दर्द महसूस हुआ. ज़हीर बारी जो उनके सचिव थे उनको दवाई दी वहीँ दूसरी तरफ ये बताता चलूँ के इससे पहले भी रफ़ी साब को दो दिल के दौरे पड़ चुके थे लेकिन रफ़ी साब ने उनको कभी गंभीरता से नहीं लिया. मगर हाँ नियमित रूप से वो एक टीका शुगर के लिए ज़रूर लेते थे और अपने अधिक वज़न से खासे परेशान थे. सुबह ११:०० बजे डॉक्टर की सलाह से उनको अस्पताल ले जाया गया जहाँ एक तरफ रफ़ी साब ने अपनी मर्ज़ी से माहेम नेशनल अस्पताल जाना मंज़