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इश्क़ की रस्म को इस तरह निभाया हमने...."अदा" के तखल्लुस से गज़ल कह रहे हैं शहरयार साहब

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #५७ आ ज की महफ़िल में हम हाज़िर हैं सीमा जी की पसंद की आखिरी गज़ल लेकर। सीमा जी की पसंद औरों से काफ़ी अलहदा है। अब आज की गज़ल को हीं ले लीजिए। लोग अमूमन मेहदी हसन साहब, गुलाम अली साहब या फिर जगजीत सिंह जी की गज़लों की फ़रमाईश करते हैं, लेकिन सीमा जी ने जिस गज़ल की फ़रमाईश की है, उसे आशा ताई ने गाया है। इस गज़ल की एक और खासियत है और खासियत यह है कि आज की गज़ल और आज से दो कड़ी पहले पेश की गज़ल (जिसकी फ़रमाईश सीमा जी ने हीं की थी) में दो समानताएँ हैं। दो कड़ी पहले हमने आपको "गमन" फिल्म की गज़ल सुनाई थी और आज हम "उमराव जान" फिल्म की गज़ल लेकर आप सबके सामने हाज़िर हैं। इन दोनों फ़िल्मों का निर्माण मुज़फ़्फ़र अली ने किया था और इन दोनों गज़लों के गज़लगो शहरयार हैं। ऐसा लगता है कि मुज़फ़्फ़र अली हमारी महफ़िल के नियमित मेहमान बन चुके हैं। अब चूँकि मुज़फ़्फ़र अली और शहरयार के बारे में हम बहुत कुछ कह चुके हैं, इसलिए क्यों न आज आशा ताई के बारे में बातें की जाएँ। ८ सितम्बर १९३३ को जन्मी आशा ताई अब ७६ साल की हो चुकी हैं, लेकिन उन्हें सुनकर उनकी उम्र का तनिक भी भान

तुम न जाने किस जहाँ में खो गए...पूछते हैं संगीत प्रेमी आज भी बर्मन दा और साहिर को याद कर

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 244 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' पर इन दिनों जारी है गीतकार साहिर लुधियानवी और संगीतकार सचिन देव बर्मन के संगीतबद्ध गीतों की ख़ास लघु शॄंखला 'जिन पर नाज़ है हिंद को'। दोस्तों, सन् १९५१ की बात करें तो अब तक हमने दो फ़िल्में, 'नौजवान' और 'बाज़ी' के एक एक गीत सुनें हैं इस शृंखला में। १९५१ पहला पहला साल था साहिर साहब और सचिन दा के सुरीले साथ का। और यह पहला ही साल इतना धमाकेदार रहा है कि हम बार बार मुड़ रहे हैं उसी साल की ओर। कम से कम एक और मशहूर गीत सुनवाए बग़ैर हम इस साल की चर्चा ख़त्म ही नहीं कर सकते। यह गीत है फ़िल्म 'सज़ा' का। फ़िल्म संगीत के ख़ज़ाने का यह भी एक 'टाइमलेस क्लासिक' है, जिसे आज भी जुदाई के दर्द में डूबी प्रेमिकाएँ मन ही मन गा उठती हैं। "तुम न जाने किस जहाँ में खो गए, हम भरी दुनिया में तन्हा हो गए"। जी. पी. सिप्पी, जो कराची में एक नामचीन शख़्स हुआ करते थे, देश के बँटवारे के बाद भारत आ गए और फ़िल्म निर्माण के क्षेत्र में क़दम रखा जी. पी. प्रोडक्शन्स के बैनर के साथ। १९५१ में उन्होने बना डाली फ़िल्म '

टिप टिप टिप... देख के अकेली मोहे बरखा सताए...गीता दत्त का चुलबुला अंदाज़ खिला साहिर-सचिन दा की जोड़ी संग

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 243 सा हिर लुधियानवी और सचिन देव बर्मन की जोड़ी को सलाम करते हुए हमने शुरु की है यह विशेष शृंखला 'जिन पर नाज़ है हिंद को'। पहली कड़ी में आप ने इस जोड़ी की पहली फ़िल्म 'नौजवान' का गीत सुना था जो बनी थी सन् '५१ में; फिर दूसरी कड़ी में १९५५ की फ़िल्म 'मुनीमजी' का एक गीत सुना। आज इसकी तीसरी कड़ी में एक बार फिर से हम चलेंगे सन् १९५१ की ही तरफ़ और सुनेंगे फ़िल्म 'बाज़ी' का एक बड़ा ही चुलबुला सा गीत गीता रॉय और सखियों की आवाज़ों में। फ़िल्म संगीत के हर युग में बरसात पर, सावन पर असंख्य गानें लिखे गए हैं, जिनमें से अधिकतर काफ़ी लोकप्रिय भी हुए हैं। आज का गीत भी बरखा रानी को ही समर्पित है। लेकिन यह गीत दूसरे गीतों से बहुत अलग है। "देख के अकेली मोहे बरखा सताए, गालों को चूमे कभी छींटें उड़ाए रे, टिप टिप टिप टिप टिप"। टिप टिप बरसते हुए पानी को शरारती क़रार दिया है साहिर साहब ने इस गीत में। किसी सुंदर कमसिन लड़की को देख कर किस तरह से बरखा रानी उसे छेड़ती है, यही भाव है इस गीत का। सचिन दा ने इस शरारती और चुलबुली अंदाज़ वाले इस गीत