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सांझ ढले गगन तले....एक उदास अकेली शाम की पीड़ा वसंत देसाई के शब्दों में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 374/2010/74 अ स्सी के दशक के फ़िल्मी गीतों के ज़िक्र से कुछ लोग अपना नाक सिकुड़ लेते हैं। यह सच है कि ८० के दशक में फ़िल्म संगीत के स्तर में काफ़ी गिरावट आ गई थी, लेकिन कई अच्छे गीत भी बने थे। पूरे के पूरे दशक को बदनाम करने से इन अच्छे गीतों के साथ नाइंसाफ़ी वाली बात हो जाएगी। और किसी भी गीत के स्तर को उसके बनने वाले समय से जोड़ा नहीं जाना चाहिए। जो चीज़ वाक़ई अच्छी है, हमें उसके बनने वाले समय से क्या! और दोस्तों, ८० का दशक एक ऐसा भी दशक रहा जिसमें सब से ज़्यादा आर्ट फ़िल्में बनीं। सिनेमा के इस विधा को हम पैरलेल सिनेमा या आर्ट फ़िल्मों के नाम से जानते हैं। युं तो कलात्मक फ़िल्मों में बहुत ज़्यादा गीत संगीत की गुंजाइश नहीं होती है, लेकिन किसी किसी फ़िल्म के लिए कुछ गानें भी बने हैं। आर्ट फ़िल्मों में संगीत देने वाले संगीतकारों में अजीत वर्मन और वनराज भाटिया का नाम सब से पहले ज़हन में आता है। लेकिन आज हम एक ऐसी फ़िल्म का गीत सुनने जा रहे हैं जिसके संगीतकार हैं लक्ष्मीकांत प्यारेलाल। यह फ़िल्म है 'उत्सव', जो बनी थी सन् १९८४ में। वैसे इस फ़िल्म को पूरी तरह

बोले रे पपिहरा, नित मन तरसे....वाणी जयराम की मधुर तान

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 227 हा लाँकि शास्त्रीय राग संख्या में अजस्र हैं, लेकिन फिर भी शास्त्रीय संगीत के दक्ष कलाकार समय समय पर नए नए रागों का इजाद करते रहे हैं। संगीत सम्राट तानसेन ने कई रागों की रचना की है जो उनके नाम से जाने जाते हैं। उदाहरण के तौर पर मिया की सारंग, मिया की तोड़ी और मिया की मल्हार। यानी कि सारंग, तोड़ी और मल्हार रागों में कुछ नई चीज़ें डाल कर उन्होने बनाए ये तीन राग। तानसेन के प्रतिद्वंदी बैजु बावरा ने भी कुछ रागों का विकास किया था, जैसे कि सारंग से उन्होने बनाया गौर सारंग, और इसी तरह से गौर मल्हार। आधुनिक काल में पंडित रविशंकर ने कई रागों का आविश्कार किया है, इसी शृंखला में आगे चलकर उन पर भी चर्चा करेंगे। दोस्तों, आज 'दस राग दस रंग' में बारी है राग मिया की मल्हार की। इस राग पर बने फ़िल्मी गीतों की जहाँ तक बात है, मेरे ज़हन में बस दो ही गीत आ रहे हैं, एक तो १९५६ की फ़िल्म 'बसंत बहार' में शंकर जयकिशन के संगीत में मन्ना डे का गाया हुआ "भय भंजना वंदना सुन हमारी, दरस तेरे माँगे ये तेरा पुजारी", और दूसरा गीत है आज का प्रस्तुत गीत, वाणी जयराम का

अखियाँ भूल गयी हैं सोना....सोने सा चमकता है ये गीत आज ५० सालों के बाद भी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 84 आ ज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में एक बहुत ही ख़ुशनुमा, चुलबुला सा, गुदगुदाने वाला गीत लेकर हम हाज़िर हुए हैं। दोस्तों, हमारी फ़िल्मों में कुछ 'सिचुएशन' ऐसे होते हैं जो बड़े ही जाने पहचाने से होते हैं और जो सालों से चले आ रहे हैं। लेकिन पुराने होते हुए भी ये 'सिचुएशन' आज भी उतने ही लोकप्रिय हैं जितने कि उस ज़माने में हुआ करते थे। ऐसी ही एक 'सिचुएशन' हमारी फ़िल्मों में हुआ करती है कि जिसमें सखियाँ नायिका को उसके नायक और उसकी प्रेम कहानी को लेकर छेड़ती हैं और नायिका पहले तो इन्कार करती हैं लेकिन आख़िर में मान जाती हैं लाज भरी अखियाँ लिए। 'सिचुएशन' तो हमने आपको बता दी, हम बारी है 'लोकेशन' की। तो ऐसे 'सिचुएशन' के लिए गाँव के पनघट से बेहतर और कौन सा 'लोकेशन' हो सकता है भला! फ़िल्म 'गूँज उठी शहनाई' में भी एक ऐसा ही गीत था। यह फ़िल्म आज से पूरे ५० साल पहले, यानी कि १९५९ में आयी थी, लेकिन आज के दौर में भी यह गीत उतना ही आनंददायक है कि जितना उस समय था। गीता दत्त, लता मंगेशकर और सखियों की आवाज़ों में यह गी

ओ दिलदार बोलो एक बार, क्या मेरा प्यार पसंद है तुम्हें...कवि प्रदीप का एक गीत ये भी...

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 70 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' की ७०-वीं कड़ी में आप सभी का स्वागत है। सुरीले फ़िल्म संगीत का यह सफ़र पिछले ७० दिनो से चला आ रहा है और आप भी इसमें पूरी तरह से हिस्सेदारी निभा रहे हैं जिस वजह से हमें भी रोज़ नयी ऊर्जा मिल रही है बेहतर से बेहतर गाने और उनसे संबंधित जानकारियाँ खोजने में। कभी कभी जब जानकारियों में कुछ गड़बड़ हो जाती है तो आप उसका सुधार भी कर देते हैं जिसके लिए हम आप के तह-ए-दिल से आभारी हैं। आगे भी आप हमारा इसी तरह से मार्ग-दर्शन करते रहेंगे ऐसा हमारा विश्वास है। तो चलिये इसी बात पर अब हम आते हैं आज के गाने पर। दोस्तों, कुछ दिन पहले हमने 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में आपको एक गीत सुनवाया था लता मंगेशकर और तलत महमूद का गाया हुआ फ़िल्म 'मौसी' का - "टिम टिम टिम तारों के दीप जले नीले आकाश तले"। याद है न आपको? इस गीत को भरत व्यास ने लिखा था और संगीत था वसंत देसाई का। आज इस गीत से मिलता-जुलता एक और गीत हम लेकर आये हैं, इसे भी लताजी और तलत साहब ने गाया है और संगीत भी एक बार फिर वसंत देसाई साहब का है। बस गीतकार भरत व्यास के जगह आ गये हैं कवि

तेरे सुर और मेरे गीत...दोनों मिलकर बनेगी प्रीत...

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 33 सु र संगीतकार का क्षेत्र है तो गीत गीतकार का. एक अच्छा सुरीला गीत बनने के लिए सुर और गीत, यानी कि संगीतकार और गीतकार का आपस में तालमेल होना बेहद ज़रूरी है, वरना गीत तो किसी तरह से बन जायेगा लेकिन शायद उसमें आत्मा का संचार ना हो सकेगा. शायद इसी वजह से फिल्म संगीत जगत में कई संगीतकार और गीतकारों ने अपनी अपनी जोडियाँ बनाई जिनका आपस में ताल-मेल 'फिट' बैठ्ता था, जैसे कि नौशाद और शक़ील, शंकर जयकिशन और हसरत शैलेन्द्र, गुलज़ार और आर डी बर्मन, वगैरह. ऐसी ही एक जोड़ी थी गीतकार भारत व्यास और संगीतकार वसंत देसाई की. इस जोडी ने भी कई मधुर से मधुर संगीत रचनाएँ हमें दी हैं जिनमें शामिल है फिल्म "गूँज उठी शहनाई". इस फिल्म का एक सुरीला नग्मा आज गूँज रहा है 'ओल्ड इस गोल्ड' में. फिल्म निर्माता और निर्देशक विजय भट्ट ने एक बार किसी संगीत सम्मेलन में उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ान का शहनाई वादन सुन लिया था. वो उनसे और उनकी कला से इतने प्रभावित हुए कि वो न केवल अपनी अगली फिल्म का नाम रखा 'गूँज उठी शहनाई', बल्कि फिल्म की कहानी भी एक शहनाई वादक के जीवन पर

टिम टिम टिम तारों के दीप जले...

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 08 'ओल्ड इस गोल्ड' में आज बारी है एक सदाबहार युगल गीत को सुनने की. दोस्तों, फिल्मकार वी शांताराम और संगीतकार वसंत देसाई प्रभात स्टूडियो के दिनो से एक दूसरे से जुडे हुए थे, जब वसंत देसाई वी शांताराम के सहायक हुआ करते थे. वी शांताराम को वसंत देसाई के प्रतिभा का भली भाँति ज्ञान था. इसलिए जब उन्होंने प्रभात छोड्कर अपने 'बैनर' राजकमल कलामंदिर की नीव रखी तो वो अपने साथ वसंत देसाई को भी ले आए. "दहेज", "झनक झनक पायल बाजे", "तूफान और दीया", और "दो आँखें बारह हाथ" जैसी चर्चित फिल्मों में संगीत देने के बाद वसंत देसाई ने राजकमल कलामंदिर की फिल्म "मौसी" में संगीत दिया था सन 1958 में. इस फिल्म में एक बडा ही प्यारा सा गीत गाया था तलत महमूद और लता मंगेशकर ने. यही गीत आज हम आपके लिए लेकर आए हैं 'ओल्ड इस गोल्ड' में. हालाँकि वी शांताराम प्रभात स्टूडियो छोड चुके थे, लेकिन उसे अपने दिल से दूर नहीं होने दिया. उन्होने अपने बेटे का नाम इसी 'स्टूडियो' के नाम पर प्रभात कुमार रखा. और उनके इसी बेटे ने फिल्म