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चर्चा राग कल्याण अथवा यमन की

    स्वरगोष्ठी – 125 में आज भूले-बिसरे संगीतकार की कालजयी कृति – 5 ‘आँसू भरी है ये जीवन की राहें...’ राग यमन के सच्चे स्वरों का गीत  ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ पर जारी लघु श्रृंखला ‘भूले-बिसरे संगीतकार की कालजयी कृति’ की यह पाँचवीं कड़ी है और इस कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र आप सब संगीत-रसिकों का एक बार पुनः हार्दिक स्वागत करता हूँ। आज हमारी चर्चा का विषय होगा, राग यमन पर आधारित एक सदाबहार गीत- ‘आँसू भरी है ये जीवन की राहें...’। 1958 में प्रदर्शित फिल्म ‘परिवरिश’ के इस कालजयी गीत के संगीतकार दत्ताराम वाडेकर थे, जिनके बारे में वर्तमान पीढ़ी शायद परिचित हो। इसके साथ ही आज के अंक में हम राग यमन पर चर्चा करेंगे और आपको सुप्रसिद्ध सारंगी वादक उस्ताद सुल्तान खाँ का बजाया, राग यमन का भावपूर्ण आलाप भी सुनवाएँगे।   दत्ताराम सं गीतकार दत्ताराम की पहचान एक स्वतंत्र संगीतकार के रूप में कम, परन्तु सुप्रसिद्ध संगीतकार शंकर-जयकिशन के सहायक के रूप में अधिक हुई। इसके अलावा लोक-तालवाद्य ढप बजाने में वे सिद्धहस्त थे। फिल्म ‘जिस देश में गंग

गायक मुकेश फिल्म ‘अनुराग’ में बने संगीतकार

भारतीय सिनेमा के सौ साल – 34 स्मृतियों का झरोखा : ‘किसे याद रखूँ किसे भूल जाऊँ...’   भारतीय सिनेमा के शताब्दी वर्ष में ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ द्वारा आयोजित विशेष अनुष्ठान- ‘स्मृतियों का झरोखा’ में आप सभी सिनेमा-प्रेमियों का हार्दिक स्वागत है। आज माह का पाँचवाँ गुरुवार है और नए वर्ष की नई समय सारिणी के अनुसार माह का पाँचवाँ गुरुवार हमने आमंत्रित अतिथि लेखकों के लिए सुरक्षित कर रखा है। आज ‘स्मृतियों का झरोखा’ का यह अंक आपके लिए पार्श्वगायक मुकेश के परम भक्त और हमारे नियमित पाठक पंकज मुकेश लिखा है। पंकज जी ने गायक मुकेश के व्यक्तित्व और कृतित्व पर गहन शोध किया है। अपने शुरुआती दौर में मुकेश ने फिल्मों में पार्श्वगायन से अधिक प्रयत्न अभिनेता बनने के लिए किये थे, इस तथ्य से अधिकतर सिनेमा-प्रेमी परिचित हैं। परन्तु इस तथ्य से शायद आप परिचित न हों कि मुकेश, 1956 में प्रदर्शित फिल्म ‘अनुराग’ के निर्माता, अभिनेता और गायक ही नहीं संगीतकार भी थे। आज के ‘स्मृतियों का झरोखा’ में पंकज जी ने मुकेश के कृतित्व के इन्हीं पक्षों, विशेष रूप से उनकी संगीतकार-प्र

पार्श्वगायक मुकेश के जन्मदिवस पर विशेष प्रस्तुति

सावन का महीना और मुकेश का अवतरण हिन्दी फिल्मों में १९४१ से १९७६ तक सक्रिय रहने वाले मशहूर पार्श्वगायक स्वर्गीय मुकेश फिल्म-संगीत-क्षेत्र में अपनी उत्कृष्ठ स्तर की गायकी के लिए हमेशा याद किये जाते रहे हैं। हिन्दी फिल्मों में उन्हें सर्वाधिक ख्याति उनके गाये दर्द भरे नगमों से मिली। इसके अलावा उन्होने कई ऐसे गीत भी गाये हैं, जो राग आधारित गीतों की श्रेणी में आते हैं। २२ जुलाई, २०१२ को मुकेश जी का ८८-वां सालगिरह है। आज उनके जन्मदिवस की पूर्वसंध्या पर रेडियो प्लेबैक इंडिया के नियमित पाठक और मुकेश के अनन्य भक्त पंकज मुकेश, इस विशेष आलेख के माध्यम से मुकेश के गाये गीतों की चर्चा कर रहे हैं। साथ ही आपको सुनवा रहे हैं उनके गाये कुछ सुमधुर गीत। मि त्रों, मानसून के आने से ऋतुओं की रानी वर्षा, अपने पूरे चरम पर विराजमान है। दरअसल सावन के महीने और पार्श्वगायक मुकेश के बीच सम्बन्ध बहुत ही गहरा है। मुकेश जी की बहन चाँद रानी के अनुसार २२जुलाई, १९२३ को रविवार का दिन था, धूप खिली थी और मुकेश के जन्म के साथ ही अचानक सावन की रिमझिम बूँदें बरस पड़ीं और पूरा माहौल खुशनुमा हो गया। आइये शुर

फिल्म और सुगम संगीत के रंग में रँगी चैती

स्वरगोष्ठी – ६३ में आज ‘यही ठइयाँ मोतिया हेरा गइलीं रामा...’ पिछले अंक में आपने उपशास्त्रीय संगीत के गायक-वादकों के माध्यम से चैती गीतों का आनन्द प्राप्त किया था। आज हम चैती गीतों के, ग्रामोफोन रिकार्ड, फिल्म और सुगम संगीत के अन्य माध्यमों में किये गए प्रयोग पर चर्चा करेंगे। शा स्त्रीय, उपशास्त्रीय, लोक और फिल्म संगीत की चर्चाओं पर केन्द्रित हमारी-आपकी इस अन्तरंग साप्ताहिक गोष्ठी में मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार पुनः आपका स्वागत करता हूँ। आप सब पाठको/श्रोताओं को शुक्रवार से आरम्भ हुए भारतीय नववर्ष के उपलक्ष्य में हमारी ओर से हार्दिक बधाई। अपने पिछले अंक से हमने चैत्र मास में गायी जाने वाली लोक संगीत की शैली ‘चैती’ पर चर्चा आरम्भ की थी। यूँ तो चैती लोक संगीत की शैली है, किन्तु ठुमरी अंग में ढल कर यह और भी रसपूर्ण हो जाती है। पिछले अंक में हमने आपको शास्त्रीय और उपशास्त्रीय संगीत के कलाकारों से कुछ चैती गीतों का रसास्वादन कराया था। आज हम आपसे पुराने ग्रामोफोन रिकार्ड और फिल्मों में चैती के प्रयोग पर चर्चा करेंगे। भारत में ग्रामोफोन रिकार्ड के निर्माण का आरम्भ १९०२ से हुआ था। पहले ग

मैं तो हर मोड पे तुझको दूंगा सदा....दिलों के बीच उभरी नफरत की दीवारों को मिटाने की गुहार

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 712/2011/152 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' में कल से हमने शुरु की है सजीव सारथी की लिखी कविताओं की किताब ' एक पल की उम्र लेकर ' से १० चुने हुए कविताओं और उनसे सम्बंधित फ़िल्मी गीतों पर आधारित यह लघु शृंखला। आज इसकी दूसरी कड़ी में प्रस्तुत है कविता 'दीवारें'। मैं छूना चाहता हूँ तुम्हें महसूस करना चाहता हूँ तुम्हारा दिल पर देखना तो दूर मैं सुन भी नहीं पाता हूँ तुम्हें तुम कहीं दूर बैठे हो सरहदों के पार हो जैसे कुछ कहते तो हो ज़रूर पर आवाज़ों को निगल जाती हैं दीवारें जो रोज़ एक नए नाम की खड़ी कर देते हैं 'वो' दरमियाँ हमारे तुम्हारे घर की खिड़की से आसमाँ अब भी वैसा ही दिखता होगा ना तुम्हारी रसोई से उठती उस महक को पहचानती है मेरी भूख अब भी, तुम्हारी छत पर बैठ कर वो चाँदनी भर-भर पीना प्यालों में याद होगी तुम्हें भी मेरे घर की वो बैठक जहाँ भूल जाते थे तुम कलम अपनी तुम्हारे गले से लग कर रोना चाहता हूँ फिर मैं और देखना चाहता हूँ फिर तुम्हें चहकता हुआ अपनी ख़ुशियों में तरस गया हूँ सुनने को तुम्हारे बच्चों की किलकारियाँ जाने कितनी सदियाँ से पर सोचता हूँ

चेहरे से जरा आँचल जो आपने सरकाया....एक प्रेम गीत जिसमें हँसी भी है और अदा भी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 655/2011/95 'गा न और मुस्कान' शृंखला में इन दिनों आप सुन रहे हैं कुछ ऐसी फ़िल्मी रचनाएँ जिनमें गायक की हँसी सुनाई पड़ती है। गायिका आशा भोसले के गायकी के कई आयाम हैं, हर तरह के गीत गाने में वो सक्षम हैं, गायन की कोई ऐसी विधि नहीं जिसको उन्होंने आज़माया न हो। शास्त्रीय, पाश्चात्य, भजन, ग़ज़ल, क़व्वाली, देशभक्ति, मुजरा, शरारती, सेन्सुअस, लोक-संगीत आधारित, हर वर्ग में उन्होंने शीर्ष पर अपने आप को पहुँचाया है। उनकी आवाज़ में जो लोच है, जो खनक है, जो शोख़ी है, वही उनको दूसरी गायिकाओं से अलग करती हैं। गायन तो गायन, उनकी हँसी भी कातिलाना है। आशा जी नें भी बहुत से गीतों में अपनी हँसी बिखेरी है, जिनमें से कुछ गीत छेड़-छाड़ वाले हैं, तो कुछ हल्के फुल्के रोमांटिक कॉमेडी वाले, कुछ सेन्सुअस या मादक, और कुछ गीत ऐसे भी हैं जिनमें वो खुले दिल से हँसती हैं, और ऐसी हँसी हैं कि सुनने वाला भी कुछ देर के लिए अपने सारे ग़म भूल जाये! ऐसा ही एक गीत है १९७२ की फ़िल्म 'एक बार मुस्कुरा दो' का, जिसमें उनसे अनुरोध तो किया जा रहा है मुस्कुराने की, पर वो हँसती हैं, पूरे खुले दि

ऐ जान-ए-जिगर दिल में समाने आजा....पियानों के तार खनके और मुकेश की आवाज़ में गूंजा अनिल दा नग्मा

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 593/2010/293 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों नमस्कार और स्वागत है आप सभी का इन दिनों चल रही लघु शृंखला 'पियानो साज़ पर फ़िल्मी परवाज़' में। साल १७९० से लेकर १८६० के बीच मोज़ार्ट के दौर के पियानों में बहुत सारे बदलाव आये, पियानो का निरंतर विकास होता गया, और १८६० के आसपास जाकर पियानो ने अपना वह रूप ले लिया जो रूप आज के पियानो का है। पियानो के इस विकास को एक क्रांति की तरह माना जा सकता है, और इस क्रांति के पीछे कारण था कम्पोज़र्स और पियानिस्ट्स के बेहतर से बेहतर पियानो की माँग और उस वक़्त चल रही औद्योगिक क्रांति (industrial revolution), जिसकी वजह से उत्तम क्वालिटी के स्टील विकसित हो रहे थे और उससे पियानो वायर का निर्माण संभव हुआ जिसका इस्तमाल स्ट्रिंग्स में हुआ। लोहे के फ़्रेम्स भी बनें प्रेसिशन कास्टिंग् पद्धति से। कुल मिलाकर पियानो के टोनल रेंज में बढ़ौत्री हुई। और यह बढ़ौत्री थी मोज़ार्ट के 'फ़ाइव ऒक्टेव्स' से ७-१/४ या उससे भी ज़्यादा ऒक्टेव्स तक की, जो आज के पियानो में पायी जाती है। पियानो की शुरुआती विकास में एक और उल्लेखनीय नाम है ब्रॊडव