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जब साजिद वाजिद जोड़ी को मिला गुलज़ार साहब का साथ, तो रचा गया एपिक "वीर" का संगीत

ताज़ा सुर ताल ०२/ २०१० सजीव - 'ताज़ा सुर ताल' की इस साल की दूसरी कड़ी में सभी का हम स्वागत करते हैं। पिछली बार ' दुल्हा मिल गया ' की गीतों की चर्चा हुई थी और गानें भी हमने सुनें थे, आज बारी है एक महत्वपूर्ण फ़िल्म की, जिसकी चर्चा शुरु हुए साल बीत चुका है। सुजॊय - चर्चा शुरु हुए साल बीत चुका है और अभी तक फ़िल्म बाहर नहीं आई, ऐसी तो मुझे बस एक ही फ़िल्म की याद आ रही है, सलमान ख़ान का 'वीर'। सजीव - बिल्कुल सही पहचाना तुमने! आख़िर अब इस फ़िल्म के गानें रिलीज़ हो चुके हैं, और फ़िल्म के प्रोमोज़ भी आने शुरु हो गए हैं। आज फ़िल्म 'वीर' की बातें और 'वीर' का संगीत 'ताज़ा सुर ताल' पर। सुजॊय - तो सजीव, जब 'वीर' की बात छिड़ ही गई है तो बात आगे बढ़ाने से पहले इस फ़िल्म का मशहूर गीत "सलाम आया" सुन लेते हैं और श्रोताओं को भी सुनवा देते हैं, उसके बाद इस गीत के बारे में चर्चा करेंगे और 'वीर' की बातों को आगे बढ़ाएँगे। सजीव - ज़रूर! बस इतना बता दें कि इस फ़िल्म के संगीतकार हैं साजिद-वाजिद और गीतकार हमारे गुलज़ार साहब। गीत - सल

इस मोड़ से जाते हैं कुछ सुस्त कदम रस्ते...और उन्हीं रास्तों पर आज भी राह तकते हैं गुलज़ार पंचम का

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 309/2010/09 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' में 'पंचम के दस रंग' शृंखला में अब तक आप ने जिन ८ रंगों का आनंद उठाया वो रंग थे भारतीय शास्त्रीय संगीत, पाश्चात्य संगीत, लोक संगीत, भक्ति संगीत, हास्य रस, रोमांटिसिज़्म, क़व्वाली और कल का रंग कुछ दर्द भरा सा था जुदाई के रंग से रंगा हुआ। आज हम जिस जौनर की बात करेंगे उसके बारे में सिर्फ़ यही कह सकते हैं कि यह जौनर है गुलज़ार और पंचम की जोड़ी का जौनर। अब इस जौनर को और क्या नाम दें? गुलज़ार साहब, जिनके ग़ैर पारंपरिक बोल हमेशा गीत को एक अलग ही मुक़ाम पर ले जाया करती है, और उस पर अगर उनके चहेते दोस्त और संगीतकार पंचम के संगीत का रंग चढ़े तो फिर कहना ही क्या! इसलिए हमने सोचा कि इस जोड़ी के नाम एक गीत तो होना ही चाहिए और एक ऐसा गीत जिसमें गुलज़ार साहब के अनोखे शब्द हों, जो आम तौर पर फ़िल्मी गीतों में सुनाई नहीं देते हों। ऐसे तो उनके अनेकों गानें हैं, लेकिन हमने आज के लिए चुना है लता मंगेशकर और किशोर कुमार की आवाज़ों में फ़िल्म 'आंधी' का गीत "इस मोड़ से जाते हैं, कुछ सुस्त क़दम रस्ते, कुछ तेज़ क़दम राहें"।

मेरा दिल जो मेरा होता....गीता जी की आवाज़ और गुलज़ार के शब्द, जैसे कविता में घुल जाए अमृत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 280 गी ता दत्त जी के गाए गीतों को सुनते हुए आज हम आ पहुँचे हैं इस ख़ास लघु शृंखला 'गीतांजली' की अंतिम कड़ी पर। पराग सांकला जी के सहयोग से इस पूरे शृंखला में आप ने ना केवल गीता जी के गाए अलग अलग अभिनेत्रियों पर फ़िल्माए हुए गीत सुनें, बल्कि उन अभिनेत्रियों और उन गीतों से संबंधित तमाम जानकारियों से भी अवगत हो सके। अब तक प्रसारित सभी गीत ५० के दशक के थे, लेकिन आज इस शृंखला का समापन हो रहा है ७० के दशक के उस फ़िल्म के गीत से जिसमें गीता जी की आवाज़ आख़िरी बार सुनाई दी थी। यह गीत है १९७१ की फ़िल्म 'अनुभव' का, "मेरा दिल जो मेरा होता"। और यह गीत फ़िल्माया गया था तनुजा पर। इस फ़िल्म के गीतों पर और चर्चा आगे बढ़ाने से पहले आइए कुछ बातें तनुजा जी की हो जाए! तनुजा का जन्म बम्बई के एक मराठी परिवार में हुआ था। उनके पिता कुमारसेन समर्थ एक कवि थे और माँ शोभना समर्थ ३० और ४० के दशकों की एक मशहूर फ़िल्म अभिनेत्री। जहाँ शोभना जी ने अपनी बेटी नूतन को लौंच किया १९५० की फ़िल्म 'हमारी बेटी' में, ठीक वैसे ही उन्होने अपनी छोटी बेटी तनुजा को बतौर बाल क

लकड़ी की काठी, काठी पे घोडा...करीब २५ सालों के बाद भी ये गीत बच्चों के मन को वैसा ही भाता है जैसा पहले...

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 270 दो स्तों, पिछले ९ दिनों से हम इस महफ़िल में कुछ बेहद चर्चित बच्चों वाले फ़िल्मी गीत सुनते चले आ रहे हैं, और आज हम आ पहुँचे हैं इस नन्हे मुन्ने शृंखला 'बचपन के दिन भुला ना देना' की अंतिम कड़ी पर। यूँ तो 'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला में हम ८० के दशक के गानें शामिल नहीं करते, क्योंकि 'ओल्ड इज़ गोल्ड' सलाम करती है फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर को जो ४० के दशक के मध्य भाग से लेकर ७० के दशक के आख़िर तक साधारणत: माना जता है। लेकिन बच्चों वाले गीतों की जब बात चलती है तो एक ऐसी फ़िल्म है जिसके ज़िक्र के बग़ैर, या यूँ कहिए कि जिस फ़िल्म के एक गीत के ज़िक्र के बग़ैर अगर चर्चा समाप्त कर दी जाए तो वह चर्चा अधूरी ही रह जाएगी। यह फ़िल्म है सन् १९८३ में प्रदर्शित शेखर कपूर निर्देशित फ़िल्म 'मासूम' और वह गीत है "लकड़ी की काठी, काठी पे घोड़ा"। इस गीत को अगर हम इस शृंखला में शामिल न करें तो यह शृंखला भी काफ़ी हद तक अधूरी रह जाएगी। यह सच है कि ५०, ६० और ७० के दशकों के कई और बच्चों वाले गीतों को हम शामिल नहीं कर सके हैं, लेकिन इस गीत से मुंह मो

मास्टरजी की आ गयी चिट्टी, चिट्टी में से निकली बिल्ली....गुलज़ार और आर डी बर्मन का "मास्टर" पीस

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 264 ब च्चों पर जब फ़िल्म बनाने या गीत लिखने की बात आती है तो गुलज़ार साहब का नाम बहुत उपर आता है। बच्चों के किरदारों या गीतों को वो इस तरह का ट्रीटमेंट देते हैं कि वो फ़िल्में और वो गानें कालजयी बन कर रह जाते हैं। फिर चाहे वह 'परिचय' हो या 'किताब', या फिर १९८३ की फ़िल्म 'मासूम'। हर फ़िल्म में उन्होने बच्चों के किरदारों को बहुत ही समझकर, बहुत ही नैचरल तरीके से प्रस्तुत किया है। बड़े फ़िल्मकार की यही तो निशानी है कि किस तरह से छोटे से छोटे बच्चो से उनका बेस्ट निकाल लिया जाए! आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर हम ज़िक्र करेंगे एक ऐसी ही फ़िल्म का जिसका निर्माण किया था प्राणलाल मेहता और गुलज़ार ने। पटकथा, निर्देशन और गीत गुलज़ार साहब के थे और संगीत था राहुल देव बर्मन का। जी हाँ, यह फ़िल्म थी 'किताब'। मुख्य भुमिकाओं में थे उत्तम कुमार, विद्या सिंहा, श्रीराम लागू, केष्टो मुखर्जी, असीत सेन, और दो नन्हे किरदार - मास्टर राजू और मास्टर टीटो। 'किताब' की कहानी एक बच्चे के मनोभाव पर केन्द्रित थी। बाबला (मास्टर राजू) अपनी माँ (दीना पाठक) क

दोस्त कहाँ कोई तुमसा...."सिस्टर्स" की सेवाओं को समर्पित एक अनूठा नगमा

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 238 हे मन्त कुमार के निजी बैनर 'गीतांजली पिक्चर्स' के बारे में हम आपको पहले ही बता चुके हैं जब हमने आपको फ़िल्म ' बीस साल बाद ' और ' कोहरा ' के दो गीत सुनवाए थे। इसी बैनर के तले उन्होने १९६९ में फ़िल्म बनाई 'ख़ामोशी'। यह फ़िल्म हिंदी सिनेमा का एक बड़ा ही ख़ूबसूरत और उल्लेखनीय अध्याय माना जाता है। आशुतोष मुखर्जी की कहानी पर बनी इस फ़िल्म का निर्देशन किया था असित सेन ने, संवाद और गीत लिखे गुलज़ार ने, संगीत था हेमन्त कुमार का और फ़िल्म के मुख्य चरित्रों में थे राजेश खन्ना व वहीदा रहमान। फ़िल्म जितनी सार्थक थी, उतने ही लोकप्रिय हुए इसके गानें। चाहे वह लता जी का गाया "हमने देखी है इन आँखों की महकती ख़ुशबू" हो या किशोर दा का गाया "वह शाम कुछ अजीब थी", या फिर हेमन्त दा का ही गाया "तुम पुकार लो, तुम्हारा इंतज़ार है"। इन तीन हिट गीतों के अलावा दो और गीत थे इस फ़िल्म में, एक आरती मुखर्जी का गाया हुआ और दूसरा मन्ना डे साहब का गाया हुआ, जो फ़िल्माया गया था कॊमेडियन देवेन वर्मा पर, जिन्होने फ़िल्म में एक मरीज़ की

बोले रे पपिहरा, नित मन तरसे....वाणी जयराम की मधुर तान

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 227 हा लाँकि शास्त्रीय राग संख्या में अजस्र हैं, लेकिन फिर भी शास्त्रीय संगीत के दक्ष कलाकार समय समय पर नए नए रागों का इजाद करते रहे हैं। संगीत सम्राट तानसेन ने कई रागों की रचना की है जो उनके नाम से जाने जाते हैं। उदाहरण के तौर पर मिया की सारंग, मिया की तोड़ी और मिया की मल्हार। यानी कि सारंग, तोड़ी और मल्हार रागों में कुछ नई चीज़ें डाल कर उन्होने बनाए ये तीन राग। तानसेन के प्रतिद्वंदी बैजु बावरा ने भी कुछ रागों का विकास किया था, जैसे कि सारंग से उन्होने बनाया गौर सारंग, और इसी तरह से गौर मल्हार। आधुनिक काल में पंडित रविशंकर ने कई रागों का आविश्कार किया है, इसी शृंखला में आगे चलकर उन पर भी चर्चा करेंगे। दोस्तों, आज 'दस राग दस रंग' में बारी है राग मिया की मल्हार की। इस राग पर बने फ़िल्मी गीतों की जहाँ तक बात है, मेरे ज़हन में बस दो ही गीत आ रहे हैं, एक तो १९५६ की फ़िल्म 'बसंत बहार' में शंकर जयकिशन के संगीत में मन्ना डे का गाया हुआ "भय भंजना वंदना सुन हमारी, दरस तेरे माँगे ये तेरा पुजारी", और दूसरा गीत है आज का प्रस्तुत गीत, वाणी जयराम का

मुझको भी तरकीब सिखा दे यार जुलाहे...कबीर से बुनकरी सिखना चाहते हैं गुलज़ार और भुपि

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #५२ आ की महफ़िल कुछ खास है। सबब तो समझ हीं गए होंगे। नहीं समझे?... अरे भाई, भुपि(भुपिन्दर सिंह) और गुलज़ार साहब की जोड़ी पहली बार आज महफ़िल में नज़र आने जा रही है। अब जहाँ गुलज़ार का नाम हो, वहाँ सारे बने बनाए ढर्रे नेस्तनाबूत हो जाते हैं। और इसी कारण से हम भी आज अपने ढर्रे से बाहर आकर महफ़िल-ए-गज़ल को गुलज़ार साहब की कविताओं के सुपूर्द करने जा रहे हैं। उम्मीद करते हैं कि हमारा यह बदलाव आपको अटपटा नहीं लगेगा। तो शुरू करते हैं कविताओं का दौर... उससे पहले एक विशेष सूचना: हमें सीमा जी की पसंद की गज़लों की फ़ेहरिश्त मिल गई है और हम इस सोमवार को उन्हीं की पसंद की एक गज़ल सुनवाने जा रहे हैं। शामिख साहब ने २-३ दिनों की मोहलत माँगी है, हमें कोई ऐतराज नहीं है...लेकिन जितना जल्द आप यह काम करेंगे, हमें उतनी हीं ज्यादा सुहूलियत हासिल होगी। शरद जी, कृपया फूर्त्ति दिखाएँ, आप तो पहले भी इस प्रक्रिया से गुजर चुकें हैं। भारतीय ज्ञानपीठ की मासिक साहित्यिक पत्रिका नया ज्ञानोदय के पिछले अंक(जून २००८) में गुलज़ार साहब की कलम ने पांच शहरों की तस्वीरें उकेरी हैं, कविताओं के माध्यम से शहरों क

पतवार पहन जाना... ये आग का दरिया है....गीत संगीत के माध्यम से चेता रहे हैं विशाल और गुलज़ार.

ताजा सुर ताल (16) ता जा सुर ताल में आज पेश है फिल्म "कमीने" का एक थीम आधारित गीत. सजीव - मैं सजीव स्वागत करता हूँ ताजा सुर ताल के इस नए अंक में अपने साथी सुजॉय के साथ आप सब का... सुजॉय - सजीव क्या आप जानते हैं कि संगीतकार विशाल भारद्वाज के पिता राम भारद्वाज किसी समय गीतकार हुआ करते थे। जुर्म और सज़ा, ज़िंदगी और तूफ़ान, जैसी फ़िल्मों में उन्होने गानें लिखे थे.. सजीव - अच्छा...आश्चर्य हुआ सुनकर.... सुजॉय - हाँ और सुनिए... विशाल का ज़िंदगी में सब से बड़ा सपना था एक क्रिकेटर बनने का। उन्होप्ने 'अंडर-१९' में अपने राज्य को रीप्रेज़ेंट भी किया था। हालाँकि उनके पिता चाहते थे कि विशाल एक संगीतकार बने, उन्होने अपने बेटे को क्रिकेट खेलने से नहीं रोका। सजीव - ठीक है सुजॉय मैं समझ गया कि आज आप विशाल की ताजा फिल्म "कमीने" से कोई गीत श्रोताओं को सुनायेंगें, तभी आप उनके बारे में गूगली सवाल कर रहे हैं मुझसे....चलिए इसी बहाने हमारे श्रोता भी अपने इस प्रिय संगीतकार को करीब से जान पायेंगें...आप और बताएं ... सुजॉय - जी सजीव, जाने माने गायक और सुर साधक सुरेश वाडकर ने विशाल

मैंने तेरे लिए ही सात रंग के सपने चुने...सपनों के सौदागर गुलज़ार साहब को जन्मदिन पर समर्पित एक गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 175 "ए क मूड, कुछ बोल, एक मीठी सी धुन, बस, इतनी सी जान होती है गाने की। हाँ, कुछ गानों की उम्र ज़रूर बहुत लम्बी होती है। गीत बूढ़े नहीं होते, उन पर झुर्रियाँ नहीं पड़ती, बस सुनने वाले बदल जाते हैं"। दोस्तों, क्या आप को पता है कि गीत की यह परिभाषा किन के शब्द हैं? ये हैं अल्फ़ाज़ उस अनूठे गीतकार, शायर, लेखक, और निर्देशक की जिनकी कलम से निकलते हैं ऐसे ग़ैर पारम्परिक उपमायें और रूपक जो सुनने वालों को हैरत में डाल देते हैं। कभी इन्होने बादल के पंखों में मोती जड़े हैं तो कभी सितारों को ज़मीन पर चलने को मजबूर कर दिया है, कभी सर से आसमान उड़ जाता है, और कभी जिगर की गरमी से बीड़ी जलाने की भी बात कह जाते हैं। यह उन्ही के गीतों में संभव है कि कभी छाँव छम से पानी में कूद जाए या फिर सुबह शाम से खेलने लगे। इस अनोखे और अनूठे शख़्स को हम सब गुलज़ार के नाम से जानते हैं। आज उनके जन्मदिवस पर हम उन्हे दे रहे हैं ढेरों शुभकामनायें एक लम्बी उम्र की, बेहतरीन स्वास्थ्य की, और इसी तरह से लगातार लिखते रहने की। गुलज़ार साहब का लिखा जो गीत आज हम चुन लाए हैं वह है फ़िल्म 'आन

१० बेहद दुर्लभ गीत गुलज़ार साहब के, चुने हैं पंकज सुबीर ने

सम्‍पूरन सिंह कालरा नाम के इस शख्‍स का जन्‍म 18 अगस्‍त 1936 को दीना नाम की उस जगह में हुआ जो कि आजकल पाकिस्‍तान में है । ये शख्‍स जिसको कि आजकल हम गुलज़ार के नाम से जानते हैं । गुलज़ार जो कि अभी तक 20 फिल्‍मफेयर और 5 राष्‍ट्रीय पुरुस्‍कार अपने गीतों के लिये ले चुके हैं । साथ ही साहित्‍य अकादमी पुरुस्‍कार और जाने कितने सम्‍मान उनकी झोली में हैं । सिक्‍ख धर्म में जन्‍म लेने वाले गुलज़ार का गाने लिखने से पहले का अनुभव कार मैकेनिक के रूप में है। आज हम बात करेंगें उन्‍हीं गुलज़ार साहब के कुछ उन गीतों के बारे में जो या तो फिल्‍म नहीं चलने के कारण उतने नहीं सुने गये या फिर ऐसा हुआ कि उसी फिल्‍म का कोई गीत बहुत जियादह मकबूल हो गया और ये गीत बहुत अच्‍छा होने के बाद भी बरगद की छांव तले होकर रह गया । मैंने आज जो 10 गीत छांटे हैं वे सारे गीत लता मंगेशकर तथा गुलज़ार साहब की अद्भुत जुगलबंदी के गीत हैं । सबसे पहले हम बात करते हैं 1966 में आई फिल्‍म सन्‍नाटा के उस अनोखे प्रभाव वाले गीत की । गुलज़ार साहब के गीतों को सलिल चौधरी जी, हेमंत कुमार जी और पंचम दा के संगीत में जाकर जाने क्‍या हो जाता है । वे

रविवार सुबह की कॉफी और आपकी पसंद के गीत (13)

"है नाम ही काफी उनका और क्या कहें, कुछ लोग तआर्रुफ के मोहताज नहीं होते" गुलजार उन्ही चंद लोगों में से एक हैं जिन्हें किसी परिचय की जरुरत नहीं है. गुलज़ार एक ऐसा नाम है जो उत्कृष्ट और उम्दा साहित्य का पर्याय बन गया है. आज अगर कही भी गुलज़ार जी का नाम आता है लोगों को विश्वास होता है कि हमें कुछ बेहतरीन ही पढ़ने-सुनने को मिलेगा. आवाज हो या लेखन दोनों ही क्षेत्रों में गुलजार जी का कोई सानी नहीं. गुलजार लफ्जों को इस तरह बुन देते है कि वो आत्मा को छूते हैं. शायद इसीलिए वो बच्चों, युवाओं और बूढों में समान रूप से लोकप्रिय है. गुलज़ार जी का स्पर्श मात्र ही शब्दों में प्राण फूँक देता है और ऐसा लगता है जैसे शब्द किसी कठपुतली की तरह उनके इशारों पर नाचने लगे है. उनकी कल्पना की उडान इतनी अधिक है कि उनसे कुछ भी अछूता नहीं रहा है. वो हर नामुमकिन को हकीकत बना देते हैं. उनके कहने का अंदाज बिलकुल निराला है. वो श्रोता और पाठक को ऐसी दुनिया में ले जाते है जहां लगता ही नहीं कि वो कुछ कह रहे है ऐसा प्रतीत होता है जैसे सब कुछ हमारे आस-पास घटित हो रहा है. कभी-कभी सोचती हूँ, गुलजार जी कोई एक व्