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एक चित का चोर जो गायक भी है, गीतकार भी और संगीतकार भी....- रविन्द्र जैन

हमने आपको सुनवाया था येसुदास का गाया रविन्द्र जैन का स्वरबद्ध किया एक अनमोल गीत . चलिए अब बात करते हैं एक बेहद अदभुत संगीत निर्देशक, गीतकार और गायक रंविन्द्र जैन की, जिन्हें फ़िल्म जगत प्यार से दादू के नाम से जानता है. स्वर्गीय के सी डे के बाद वो पहले संगीत सर्जक हैं जिन्होंने चक्षु बाधा पर विजय प्राप्त कर अपनी प्रतिभा को दक्षिण एशिया ही नही, वरन संसार भर में फैले समस्त भारतीय परिवारों तक बेहद सफलता के साथ पहुंचाया. दादू के संगीत में अलीगढ की सामासिक संस्कृति, बंगाल के माधुर्य और हिंदू जैन परम्परा का अदभुत मिश्रण है. २८ फरवरी १९४४ में जन्में रविन्द्र जैन की फिल्मी सफर शुरू हुआ १४ जनवरी १९७२ के दिन जब कोलकत्ता से मुंबई पहुंचे दादू ने फ़िल्म सेण्टर स्टूडियो में अपना पहला गाना रिकॉर्ड किया, गायक थे मोहम्मद रफी साहब. रफी साहब को जब ज्ञात हुआ की दादू अलीगढ से हैं तो उनसे ग़ज़ल सुनाने का आग्रह किया तो दादू ने पेश किया ये कलाम- गम भी हैं न मुक्कमल, खुशियाँ भी हैं अधूरी, आंसू भी आ रहे हैं, हंसना भी है जरूरी, ग़ज़ल का मत्तला सुनते ही रफी साहब ने कहा की देखिये मास्टर जी, देखिये मेरे बाल खड़े हो

मिलिए ग़ज़ल गायकी की नई मिसाल रफ़ीक़ शेख से

कर्नाटक के बेलगाम जिले में जन्मे रफ़ीक़ शेख ने मरहूम मोहम्मद हुसैन खान (पुणे)की शागिर्दी में शास्त्रीय गायन सीखा तत्पश्चात दिल्ली आए पंडित जय दयाल के शिष्य बनें. मखमली आवाज़ के मालिक रफ़ीक़ के संगीत सफर की शुरुवात कन्नड़ फिल्मों में गायन के साथ हुई, पर उर्दू भाषा से लगाव और ग़ज़ल गायकी के शौक ने मुंबई पहुँचा दिया जहाँ बतौर बैंक मैनेजर काम करते हुए रफ़ीक़ को सानिध्य मिला गीतकार /शायर असद भोपाली का जिन्होंने उन्हें उर्दू की बारीकियों से वाकिफ करवाया. संगीत और शायरी का जनून ऐसा छाया कि नौकरी छोड़ रफ़ीक़ ने संगीत को अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया. आज रफ़ीक़ पूरे भारत में अपने शो कर चुके हैं. वो जहाँ भी गए सुनने वालों ने उन्हें सर आँखों पर बिठाया. २००४ में औरंगाबाद में हुए अखिल भारतीय मराठी ग़ज़ल कांफ्रेंस में उन्होंने अपनी मराठी ग़ज़लों से समां बाँध दिया, भाषा चाहे कन्नड़ हो, हिन्दी, मराठी या उर्दू रफ़ीक़ जानते हैं शायरी /कविता का मर्म और अपनी आवाज़ के ढाल कर उसे इस तरह प्रस्तुत करते हैं कि सुनने वालों पर जादू सा चल जाता है, महान शायर अहमद फ़राज़ को दी गई अपनी दो श्रद्धांजली स्वरुप ग़ज़लों क

यही वो जगह है - आशा, एक परिचय

बहुमुखी प्रतिभा-यही शब्द हैं जो आशा भोंसले के पूरे कैरियर को अपने में समाहित करते है। और कौन ऐसा है जो गर्व कर सके, जिसने व्यापक तौर पर तीन पीढ़ियों के महान संगीतकारों के साथ काम किया हो। चाहें ५० के दशक में ऒ.पी नय्यर का मधुर संगीत हो या आर.डी.बर्मन के ७० के दशक के पॉप हों या फिर ए.आर.रहमान का लयबद्ध संगीत- आशा जी ने सभी के साथ भरपूर काम किया है। गायन के क्षेत्र में प्रयोग करने की उनकी भूख की वजह से ही उनमें विविधता आ पाई है। उन्होंने १९५० के दशक में हिन्दी सिने जगत के पहले रॉक गीतों में से एक "ईना, मीना, डीका.." गाया। उन्होंने महान गज़ल गायक गुलाम अली व जगजीत सिंह के साथ कईं गज़लों में भी काम किया, और बिद्दू के पॉप व बप्पी लहड़ी के डिस्को गीत भी गाये। मंगेशकर बहनों में से एक, आशा भोंसले का जन्म ८ सितम्बर १९३३ को महाराष्ट्र के मशहूर अभिनेता व गायक दीनानाथ मंगेशकर के घर छोटे से कस्बे "गोर" में हुआ। अपनी बड़ी बहन लता मंगेशकर की तरह इन्होंने भी बचपन से ही गाना शुरु कर दिया था। परन्तु अपने पिता से शास्त्रीय संगीत सीखने के कारण वे जल्द ही पार्श्व गायन के क्षेत्र में कूद पड़ी।

मैं इस जमीं पे भटकता रहा हूँ सदियों तक...गुलजार

जब रंजना भाटिया "रंजू" ,रूबरू हुई गुलज़ार की कलम के तिलिस्म से ... मैं जब छांव छांव चला था अपना बदन बचा कर कि रूह को एक खूबसूरत जिस्म दे दूँ न कोई सिलवट .न दाग कोई न धूप झुलसे, न चोट खाएं न जख्म छुए, न दर्द पहुंचे बस एक कोरी कंवारी सुबह का जिस्म पहना दूँ, रूह को मैं मगर तपी जब दोपहर दर्दों की, दर्द की धूप से जो गुजरा तो रूह को छांव मिल गई है . अजीब है दर्द और तस्कीं [शान्ति ] का साँझा रिश्ता मिलेगी छांव तो बस कहीं धूप में मिलेगी ... जिस शख्स को शान्ति तुष्टि भी धूप में नज़र आती है उसकी लिखी एक एक पंक्ति, एक एक लफ्ज़ के, साए से हो कर जब दिल गुजरता है, तो यकीनन् इस शख्स से प्यार करने लगता है सुबह की ताजगी हो, रात की चांदनी हो, सांझ की झुरमुट हो या सूरज का ताप, उन्हें खूबसूरती से अपने लफ्जों में पिरो कर किसी भी रंग में रंगने का हुनर तो बस गुलजार साहब को ही आता है। मुहावरों के नये प्रयोग अपने आप खुलने लगते हैं उनकी कलम से। बात चाहे रस की हो या गंध की, उनके पास जा कर सभी अपना वजूद भूल कर उनके हो जाते हैं और उनकी लेखनी में रचबस जाते है। यादों और सच को वे एक नया रूप दे देते है। उदासी