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फिर छिड़ी रात बात फूलों की......तलत अज़ीज़ और खय्याम से सुनिए इस गज़ल के बनने की कहानी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 460/2010/160 ये महकती ग़ज़लें इन दिनों आप सुन रहे हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर लघु शृंखला 'सेहरा में रात फूलों की' के तहत। 'सेहरा में रात फूलों की, जैसा कि आप में से बहुतों को मालूम ही होगा मशहूर शायर मख़्दूम महिउद्दिन की एक मशहूर ग़ज़ल के एक शेर का हिस्सा है, जिसे हमने इस शृंखला के शीर्षक के लिए चुना। क्यों चुना, शायद यह हमें अब बताने की ज़रूरत नहीं। ८० के दशक के संगीत का जो चलन था, उस लिहाज़ से ये ग़ज़लें सेहरा में फूलों भरी रात की तरह ही तो हैं। ख़ैर, आज इस शृंखला की अंतिम कड़ी में मख़्दूम के इसी ग़ज़ल की बारी, जिसे फ़िल्म 'बाज़ार' के लिए स्वरबद्ध किया था ख़य्याम साहब ने। और यह ख़य्याम साहब के संगीत में इस शृंखला की चौथी ग़ज़ल भी है, जैसा कि हमने आप से वादा किया था। फ़िल्म 'बाज़ार' के सभी ग़ज़लें कंटेम्पोररी शायरों की ग़ज़लें हैं। ऐसा कैसे संभव हुआ आइए जान लेते हैं ख़य्याम साहब से जो उन्होने विविध भारती के 'संगीत सरिता' कार्यक्रम में कहे थे। " वो हमारी फ़िल्म आपको याद होगी, 'बाज़ार'। उसमें ये सागर सरहदी सा

मन धीरे धीरे गाए रे, मालूम नहीं क्यों ...तलत और सुरैया का रेशमी अंदाज़

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 259 १९५८ में गायक तलत महमूद कुल तीन फ़िल्मों में बतौर अभिनेता नज़र आए थे। ये फ़िल्में थीं 'सोने की चिड़िया', 'लाला रुख़' और 'मालिक'। जहाँ पहली दो फ़िल्में 'फ़िल्म इंडिया कॊर्पोरेशन' की प्रस्तुति थीं, 'मालिक' फ़िल्म का निर्माण किया था एस. एम युसूफ़ ने अपनी 'सनी आर्ट प्रोडक्शन्स' के बैनर तले। फ़िल्म की नायिका थीं सुरैया। दोस्तों, १९५८ तक पार्श्वगायन पूरी तरह से अपनी शबाब पर था। ३० और ४० के दशकों के 'सिंगिंग्‍ स्टार्स' फ़िल्म जगत के आसमान से ग़ायब हो चुके थे, कुछ देश विभाजन की वजह से, कुछ बदलते दौर और तकनीक की वजह से। लेकिन कुछ ऐसे कलाकार जिनकी गायन प्रतिभा उनके अभिनय की तरह ही पुख़्ता थी, वो ५० के दशक में भी लोकप्रिय बने रहे। इसका सीधा सीधा उदाहरण है तलत महमूद और सुरैया। ये सच है कि तलत साहब एक गायक के रूप में ही जाने जाते हैं, लेकिन अभिनय में रुचि और नायक जैसे दिखने की वजह से वो चंद फ़िल्मों में बतौर नायक काम किया था। और सुरैया के तो क्या कहने! अभिनय और गायन, दोनों में लाजवाब! लेकिन दूसरी अभिनेत्रियों के ल

आज के बाद कोई खत न लिखूँगा तुझको.... "अश्क़" के हवाले से चेता रहे हैं "चंदन दास"

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #४४ अ गर पिछली कड़ी की बात करें तो उस कड़ी की प्रश्न-पहेली का हमारा अनुभव कुछ अच्छा नहीं रहा। "सीमा" जी जवाबों के साथ सबसे पहले हाज़िर तो हुईं लेकिन उन्होंने फिर से डेढ सवालों का हीं सही जवाब दिया। हमें लगा कि इस बार भी हमें वही करना होगा जो हमने पिछली बार किया था यानि कि उधेड़बुन का निपटारा, लेकिन "सीमा" जी की खेल-भावना ने हमें परेशान होने से बचा लिया। यह तो हुई अच्छी बात लेकिन जिस बुरे अनुभव का हम ज़िक्र कर रहे हैं वह है शरद जी का देर से महफ़िल में हाज़िर होना (मतलब कि पुकार लगाने के बाद) और शामिख जी का शरद जी के जवाबों को हुबहू छाप देना। शामिख जी, यह बात हमने वहाँ टिप्पणी करके भी बता दी थी कि सही जवाबों के बावजूद आपको कोई अंक नहीं मिलेगा। हमारे प्रश्न इतने भी मुश्किल न हैं कि आपको ऐसा करना पड़े। और हाँ, आपने शायद नियमों को सही से नहीं पढा है। हर सही जवाब देने वाले को कम से कम १ अंक मिलना तो तय है। इसलिए आपका यह कहना कि चूँकि सीमा जी ने जवाब दे दिया था इसलिए मैने कोशिश नहीं की, का कोई मतलब नहीं बनता। शरद जी, आपको भी मान-मनव्वल की जरूरत आन पड़ी। आप त

खुद-बखुद नींद आ जाएगी, तू मुझे सोचना छोड़ दे...... तलत अज़ीज़ साहब की एक और फ़रियाद

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #३९ आ ज का अंक शुरू करने से पहले हम पिछले अंक में की गई एक गलती के लिए माफ़ी माँगना चाहेंगे। यह माफ़ी सिर्फ़ एक इंसान से है और उस इंसान का नाम है "शरद जी"। दर-असल पिछले अंक में हमने आपको जनाब अतर नफ़ीस की लिखी जो नज़्म सुनाई थी, वह है तो यूँ बड़ी हीं खुबसूरत, लेकिन उसकी फ़रमाईश शरद जी ने नहीं की थी। हुआ यूँ कि शरद जी की पसंद की तीन गज़लें/नज़्में और "आज जाने की ज़िद न करो" एक हीं जगह संजो कर रखी हुई थी, अब उस फ़ेहरिश्त से दो गज़लें हम आपको पहले हीं सुना चुके थे तो तीसरे के रूप में हमारी नज़र "आज जाने की ज़िद न करो" पर पड़ी और जल्दीबाजी में आलेख उसी पर तैयार हो गया। चलिए माना कि हमने इस नाम से नज़्म पोस्ट कर दी कि यह शरद जी की पसंद की है, लेकिन आश्चर्य तो इस बात का है कि खुद शरद जी ने इस गलती की शिकायत नहीं की। शायद वो कहीं अन्यत्र व्यस्त थे या फिर वो खुद हीं भूल चुके थे कि उन्होंने किन गज़लों की फ़रमाईश की थी। जो भी हो, लेकिन यह गलती हमारी नज़र से छिप नहीं सकी और इसलिए हमने यह फ़ैसला किया है कि महफ़िल-ए-गज़ल की ४०वीं कड़ी (जो यूँ भी फ़रमाईश

कैसे छुपाऊँ राज़-ए-ग़म...आज की महफ़िल में पेश हैं "मौलाना" के लफ़्ज़ और दर्द-ए-"अज़ीज़"

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #३५ पि छली महफ़िल में किए गए एक वादे के कारण शरद जी की पसंद की तीसरी गज़ल लेकर हम हाज़िर न हो सके। आपको याद होगा कि पिछली महफ़िल में हमने दिशा जी की पसंद की गज़लों का ज़िक्र किया था और कहा था कि अगली गज़ल दिशा जी की फ़ेहरिश्त से चुनी हुई होगी। लेकिन शायद समय का यह तकाज़ा न था और कुछ मजबूरियों के कारण हम उन गज़लों/नज़्मों का इंतजाम न कर सके। अब चूँकि हम वादाखिलाफ़ी कर नहीं सकते थे, इसलिए अंततोगत्वा हम इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि क्यों न आज अपने संग्रहालय में मौजूद एक गज़ल हीं आप सबके सामने पेश कर दी जाए। हमें पूरा यकीन है कि अगली महफ़िल में हम दिशा जी को निराश नहीं करेंगे। और वैसे भी हमारी आज़ की गज़ल सुनकर उनकी नाराज़गी पल में छू हो जाएगी, इसका हमें पूरा विश्वास है। तो चलिए हम रूख करते हैं आज़ की गज़ल की ओर जिसे मेहदी हसन साहब की आवाज़ में हम सबने न जाने कितनी बार सुना है लेकिन आज़ हम जिन फ़नकार की आवाज़ में इसे आप सबके सामने पेश करने जा रहे हैं, उनकी बात हीं कुछ अलग है। आप सबने इनकी मखमली आवाज़ जिसमें दर्द का कुछ ज्यादा हीं पुट है, को फिल्म डैडी के "आईना मुझसे मेरी पह