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कहाँ गया चितचोर....जब संगीत के खासे जानकार राज कपूर ने किया खुद अपने लिए पार्श्वगायन

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 631/2010/331 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के सभी श्रोता-पाठकों को हमारा नमस्कार और बहुत बहुत स्वागत है इस सुरीली महफ़िल में। पिछली शृंखला केन्द्रित थी हिंदी सिनेमा के प्रथम सिंगिंग् सुपरस्टार के.एल. सहगल साहब पर। सिंगिंग् स्टार्स की बात करें तो सहगल साहब के अलावा पंकज मल्लिक, के. सी. डे, कानन देवी, शांता आप्टे, नूरजहाँ, सुरैया जैसे नाम झट से ज़ुबान पर आ जाते हैं। प्लेबैक सिंगर्स के आगमन से धीरे धीरे सिंगिंग् स्टार्स का दौर समाप्त हो चला और एक से एक लाजवाब पार्श्वगायकों नें क़दम जमाया जिन्होंने फ़िल्म संगीत को नई बुलंदियों तक पहुँचाया। और स्टार्स केवल अभिनय तक ही सीमित रह गये। इस तरह से अभिनय और गायन, दोनों जगत को श्रेष्ठ फ़नकार मिले जिन्हें अपनी अपनी विधा में महारथ हासिल थी। वैसे समय समय पर हमारे फ़िल्म निर्माता-निर्देशक और संगीतकारों नें अभिनेताओं से गानें भी गवाये हैं, जो उनकी आवाज़ में बड़े ही निराले और अनोखे बन पड़े हैं। आइए आज से शुरु करें कुछ ऐसे ही अभिनेताओं द्वारा गाये फ़िल्मी गीतों पर आधारित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की नई लघु शृंखला 'सितारों की सरगम

तेरे बिना आग ये चांदनी तू आजा...

ग्रेट शो मैन राज कपूर की जयंती पर विशेष १४ दिसम्बर को हमने गीतकार शैलेन्द्र को उनकी पुण्यतिथि पर याद किया था. गौरतलब ये है कि फ़िल्म जगत में उनके "मेंटर" कहे जाने वाले राज कपूर साहब की जयंती भी इसी दिन पड़ती है. पृथ्वी राज कपूर के एक्टर निर्माता और निर्देशक बेटे रणबीर राज कपूर को फ़िल्म जगत में "ग्रेट शो मैन" के नाम से भी जाना जाता है. हिन्दी फिल्मों के लिए उनका योगदान अमूल्य है. १९४८ में बतौर अदाकार शुरुआत करने वाले राज कपूर ने मात्र २४ साल की उम्र में मशहूर आर के स्टूडियो की स्थापना की और पहली फ़िल्म बनाई "आग" जिसमें अभिनय भी किया. फ़िल्म की नायिका थी अदाकारा नर्गिस. हालाँकि ये फ़िल्म असफल रही पर नायक के तौर पर उनके काम की तारीफ हुई. नर्गिस के साथ उनकी जोड़ी को प्रसिद्दि मिली १९४९ में आई महबूब खान की फ़िल्म "अंदाज़" से. निर्माता निर्देशक और अदाकार की तिहरी भूमिका में फ़िल्म "बरसात" को मिली जबरदस्त कमियाबी के बाद राज कपूर ने फ़िल्म जगत को एक से बढ़कर एक फिल्में दी और कमियाबी की अनोखी मिसालें कायम की. आईये आज उन्हें याद करें उनकी चंद फिल

निर्माता-निर्देशकों के लिए सफलता की गैरंटी था लक्ष्मीकांत प्यारेलाल का संगीत

बात होती है सदी के नायक की, नायिका की, पर अगर हम बात करें बीती सदी के सबसे सफलतम संगीतकार की, तो बिना शक जो नाम जेहन में आता है वो है - संगीतकार जोड़ी लक्ष्मीकांत प्यारेलाल का. १९६३ में फ़िल्म "पारसमणी" से शुरू हुआ संगीत सफर बिना रुके चला अगले चार दशकों तक. बदलते समय के साथ ख़ुद को बदलकर हर पीढी के मिजाज़ को ध्यान में रख ये संगीत के महारथी चलते रहे अनथक और लिखते रहे निरंतर कमियाबी की नयी इबारतें. पल पल रंग बदलती, हर नए शुक्रवार नए रूप में ढलती फ़िल्म इंडस्ट्री में इतने लंबे समय तक चोटी पर अपनी जगह बनाये रखने की ये मिसाल लगभग असंभव सी ही प्रतीत होती है. और किस संगीतकार की झोली में आपको मिलेंगी इतनी विविधता. शास्त्रीय संगीत पर आधारित गीत, लोक गीतों में ढले ठेठ भारतीय गीत, पाश्चात्य संगीत में बसे गीत, भजन, मुजरा, डिस्को -जैसा मूड वैसा संगीत, और वो भी सरल, सुमधुर, "कैची" और "क्लास". परफेक्शन ऐसा कि कोई ढूंढें भी तो कोई कमी न मिले. आम आदमी की जुबान पर तो उनके गीत यूँ चढ़ जाते थे जैसे बस उन्हीं के मन की धुन हो कोई. मेलोडी ही उनके गीतों की आत्मा रही. सहज धुन में स