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अपने जीवन की उलझन को कैसे मैं सुलझाऊं...

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 32 दो स्तों, क्या आप ने कभी सोचा है कि हिन्दी फिल्म संगीत के इस लोकप्रियता का कारण क्या है? क्यूँ यह इतना लोकप्रिय माध्यम है मनोरंजन का? मुझे ऐसा लगता है कि फिल्म संगीत आम लोगों का संगीत है, उनकी ज़ुबान है, उनके जीवन से ही जुडा हुआ है, उनके जीवन की ही कहानी का बयान करते हैं. ज़िंदगी का ऐसा कोई पहलू नहीं जिससे फिल्म संगीत वाक़िफ़ ना हो, ऐसा कोई जज़्बात या भाव नहीं जिससे फिल्म संगीत अंजान रह गया हो. और यही वजह है कि लोग फिल्म संगीत को सर-आँखों पर बिठाते हैं, उन्हे अपने सुख दुख का साथी मानते हैं. सिर्फ़ खुशी, दर्द, प्यार मोहब्बत, और जुदाई ही फिल्म संगीत का आधार नहीं है, बल्कि समय समय पर हमारे फिल्मकारों ने ऐसे ऐसे 'सिचुयेशन्स' अपने फिल्मों में पैदा किये हैं जिनपर गीतकारों ने भी अपनी पूरी लगन और ताक़त से जानदार और शानदार गीत लिखे हैं. किसी के ज़िंदगी में जब कोई उलझन आ जाती है, जब अपने ही पराए बन जाते हैं, तो बाहरवालों से भला क्या कहा जाए! तो दिल से शायद कुछ ऐसी ही पुकार निकलती है कि "अपने जीवन की उलझन को कैसे मैं सुलझाऊं, अपनों ने जो दर्द दिए हैं कैसे

चन्दन सा बदन...चंचल चितवन...

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 14 'ओ ल्ड इस गोल्ड' के सभी सुननेवालों और पाठकों का बहुत बहुत स्वागत है आज की इस कडी में. दोस्तों, अगर आप किसी भी दौर के फिल्मी गीतों पर गौर करें तो पाएँगे की जिस भाषा का प्रयोग फिल्मी गीतों में होता है वो या तो आम बोलचाल की भाषा होती है या फिर उसमें उर्दू की भरमार होती है. शुद्ध हिन्दी के शब्दों का प्रयोग इनकी तुलना में बहुत कम होता है. कुछ गीतकार ऐसे भी हुए हैं जिन्होने शुद्ध हिन्दी का बहुत सुंदर इस्तेमाल भी किया है. कुछ ऐसे गीतकारों के नाम हैं कवि प्रदीप, पंडित नरेन्द्र शर्मा, भारत व्यास, शैलेन्द्र, योगेश, अनजान, इन्दीवर आदि. आज हम शुद्ध हिन्दी की बात यहाँ इसलिए कर रहे हैं क्योंकि आज जो गीत हम आपको सुनवाने जा रहे हैं वो भी कुछ इसी तरह का है. श्रृंगार रस में ओत-प्रोत यह गीत है फिल्म "सरस्वती चन्द्र" का. अब शायद आपको गीत के बोल बताने की ज़रूरत नहीं है. फिल्म "सरस्वती चन्द्र" आई थी सन 1968 में. उपलब्ध जानकारी के अनुसार यह फिल्म हिन्दी की आखिरी 'ब्लॅक & वाइट' फिल्म थी. नूतन और मनीष अभिनीत यह फिल्म गुजराती उपन्यासकार गोवर्धं