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ज़िंदगी का फलसफा समझा कर माधोलाल कीप वाकिंग की जोरदार एवं असरदार अपील की है नायब राजा ने

ताज़ा सुर ताल ३५/२०१० सुजॊय - सभी दोस्तों को हमारा नमस्कार! दोस्तों, आज हम एक ऐसी फ़िल्म के गीतों की चर्चा करने जा रहे हैं जो पैरलेल सिनेमा की श्रेणी में आता है। कुछ फ़िल्में ऐसी होती हैं जो व्यावसायिक लाभों से परे होती हैं, जिनका उद्देश्य होता है क्रीएटिव सैटिस्फ़ैक्शन। ये फ़िल्में भले ही सिनेमाघरों में ज़्यादा देखने को ना मिले, लेकिन अच्छे फ़िल्मों के दर्शक इन्हें अपने दिलों में जगह देते हैं और एक लम्बे समय तक इन्हें याद रखते हैं। विश्व दीपक - लेकिन यह अफ़सोस की भी बात है कि आज फ़िल्मों का हिट होना उसकी मारकेटिंग पर बहुत ज़्यादा निर्भर हो गया है। पैसे वाले प्रोड्युसर हर टीवी चैनल पर अपनी नई फ़िल्म का प्रोमो बार बार लगातार दिखा दिखा कर लोगों के दिमाग़ पर उसे बिठा देते हैं और एक समय के बाद लोगों को भी लगने लगता है कि वह हिट है। गीतों को भी इसी तरह से आजकल हिट करार दिया जाता है। लेकिन जिन प्रोड्युसरों के पास पैसे कम है, वो इस तरह के प्रोमोशन नहीं कर पाते, जिस वजह से उनकी फ़िल्म सही तरीक़े से लोगों तक नहीं पहुँच पाती। जब लोगों को मालूम ही नहीं चल पाता कि ऐसी भी कोई फ़िल्म बनी है, तो उन

दिल एक फूल है इसे खिलने भी दीजिए......पेश है एक जोड़ी कमाल की

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #२२ य ह कोई फ़िल्मी किस्सा नहीं है, ना हीं किसी लैला-मजनू, हीर-रांझा की दास्तां, लेकिन जो भी है, इन-सा होकर भी इनसे अलहदा है। सुदूर पश्चिम का "मुंडा" और हजारों कोस दूर पूरब की एक "कुड़ी" , वैसे "कुड़ी" तो नहीं कहना चाहिए क्योंकि यह एक पंजाबी शब्द है और लड़की ठहरी बंगाली, लेकिन क्या करूँ मेरा "बांग्ला" का अल्प-ज्ञान मुझे सही शब्द मुहैया नहीं करा रहा, इसलिए सोचा कि जिस तरह उस फ़नकारा ने शादी के बाद अपना "बंगाली उपनाम" त्याग कर "पंजाबी उपनाम" स्वीकार कर लिया, उसी तरह उसने "कुड़ी" होना भी स्वीकार कर लिया होगा, इसलिए "कुड़ी" कहने में कोई बुराई नहीं है।हाँ तो बात की शुरूआत "पंजाब" से करते हैं। "गेहूँ और धान" की लहलहाती फ़सलों के बीच ६ फ़रवरी १९४० में अमृतसर में जन्मे इस फ़नकार की शुरूआती तालीम अपने पिता प्रोफ़ेसर नाथा सिंह से हुई थी, जो खुद एक प्रशिक्षित गायक और संगीतकार थे। वहीं हमारी फ़नकारा ने "बांग्लादेश" की एक संगीतमय परिवार में जन्म लिया था, जन्म से थी तो वो &qu