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फूल गेंदवा ना मारो... - रसूलन बाई के श्रृंगार रस में हास्य रस का रंग भरते मन्ना डे

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 695/2011/135 "ओ ल्ड इज गोल्ड" पर जारी श्रृंखला "रस के भरे तोरे नैन" की आज की इस नई कड़ी में कृष्णमोहन मिश्र की ओर से आप सभी पाठकों / श्रोताओं का स्वागत है| कल के अंक में हमने पूरब अंग ठुमरी की अप्रतिम गायिका रसूलन बाई के कृतित्व से आपका परिचय कराया था| आज हम पूरब अंग की ठुमरी पर चर्चा जारी रखते हुए एक ऐसे व्यक्तित्व से परिचय प्राप्त करेंगे, जिन्हें ठुमरी की "बनारसी शैली के प्रवर्तक" के रूप में मान्यता दी गई है| ठुमरी के इस शिखर-पुरुष का नाम है जगदीप मिश्र| इनका जन्म आजमगढ़ (उत्तर प्रदेश) के एक कथक परिवार में हुआ था| संगीत के संस्कार उन्हें अपने संगीतजीवी परिवार से ही मिले| बाद में इनका परिवार वाराणसी आकर बस गया| जगदीप जी, भैया गणपत राव के समकालीन थे और उन्ही के समान ठुमरी गायन में बोलों के बनाव अर्थात बोलों में निहित भावों को स्वरों की सहायता से अभिव्यक्त करने के पक्ष में थे| वाराणसी के संगीत परिवेश के जानकार और ठुमरी गायक रामू जी (रामप्रसाद मिश्र) के अनुसार मौजुद्दीन खाँ ने प्रारम्भ में जगदीप मिश्र को सुन-सुन कर ही ठुमरी गाना सीखा थ

जा मैं तोसे नाहीं बोलूँ....मान-मनुहार की ठुमरी का मोहक अन्दाज़

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 694/2011/134 पि छली कुछ कड़ियों में हमने आपसे "बोल-बाँट" या "बन्दिश" की ठुमरियों और इस शैली के प्रमुख रचनाकारों के विषय में चर्चा की है| आज के इस अंक में हम आपसे "बोल-बनाव" की ठुमरियों पर कुछ बातचीत करेंगे| दरअसल बोल-बनाव की ठुमरियों का विकास बनारस में हुआ| इस प्रकार की ठुमरियों में शब्द बहुत कम होते हैं और यह विलम्बित लय से शुरू होती हैं| इनमें स्वरों के प्रसार की बहुत गुंजाइश होती है| छोटी-छोटी मुरकियाँ, खटके, मींड का प्रयोग ठुमरी की गुणबत्ता को बढाता है| कुशल गायक ठुमरी के शब्दों से अभिनय कराते हैं| गायक कलाकार ठुमरी के कुछ शब्दों को लेकर अलग-अलग भावपूर्ण अन्दाज़ में प्रस्तुत करते हैं| अन्त में कहरवा ताल की लग्गी के साथ ठुमरी समाप्त होती है| ठुमरी के इस भाग में तबला संगतिकार को अपनी प्रतिभा दिखाने का भरपूर मौका मिलता है| बात जब बोल-बनाव ठुमरी की हो तो रसूलन बाई का ज़िक्र आवश्यक हो जाता है| पूरब अंग की गायकी- ठुमरी, दादरा, होरी, चैती, कजरी आदि शैलियों की अविस्मरणीय गायिका रसूलन बाई बनारस (वाराणसी) की रहनेवाली थीं| संगीत का संस्कार इ

चाहे तो मोरा जिया लईले....राग पीलू में निखरता श्रृंगार का एक और रूप

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 693/2011/133 फि ल्मों में ठुमरी के प्रयोग पर केन्द्रित श्रृंखला "रस के भरे तोरे नैन" की तेरहवीं कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार फिर आपका स्वागत करता हूँ| कल की कड़ी में हमने "पछाहीं ठुमरी" की कुछ प्रमुख विशेषताओं और रचनाकारों से आपका परिचय कराया था| आज हम इसी प्रसंग को आगे बढ़ाते हुए ठुमरी के क्रमशः विस्तृत होते क्षेत्र पर भी चर्चा करेंगे| उन्नीसवी शताब्दी के अन्तिम दशक में नज़र अली और उनके भाई कदर अली ठुमरी के बड़े प्रवीण गायक हुए| ये दोनों भाई संगीतजीवी वर्ग के थे और मूलतः लखनऊ-निवासी थे| बाद में दोनों भाई ग्वालियर जाकर बस गए| नज़र अली ने "नज़रपिया" नाम से अनेक ठुमरियों की रचना की| इनकी अधिकतर ठुमरियाँ बोल-बाँट की हैं| ग्वालियर के सुप्रसिद्ध संगीतज्ञ राजभैया पुँछवाले ने भी नज़रपिया से ठुमरी गायन सीखा था| उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त तक जनसामान्य में ठुमरी गायन इतना लोकप्रिय हो चला था कि तवायफों के अतिरिक्त उस समय देश के अनेक घरानेदार और प्रतिष्ठित ध्रुवपद तथा ख़याल गायकों ने इसे बड़े शौक से अपनाया| ध्रुवपद गायकों में मथुरा के चन