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भैरवी के सुरों में श्रृंगार, वैराग्य और आध्यात्म का अनूठा संगम -"बाबुल मोरा नैहर छुटो ही जाए.."

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 685/2011/125 'ओ ल्ड इज गोल्ड' पर जारी श्रृंखला "रस के भरे तोरे नैन" की पाँचवी कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र आपका स्वागत करता हूँ| दोस्तों; संगीत के मंच की एक परम्परा है कि गायक या वादक अपनी प्रस्तुतियों का समापन राग भैरवी के गायन-वादन से करते हैं| आज की यह सप्ताहान्त प्रस्तुति है, अतः आज हमने आपके लिए जो ठुमरी चुनी है वह राग भैरवी में निबद्ध है| राग भैरवी को "सदा सुहागन राग" कहा गया है| संगीत के अन्य रागों को समय (प्रहर) या ऋतुओं में ही गाने-बजाने की परम्परा है, किन्तु "भैरवी" हर मौसम और हर समय कर्णप्रिय लगता है| राग "भैरवी की एक विशेषता यह भी होती है कि इस राग के बाद दूसरा कोई भी राग सुनने में अच्छा नहीं लगता, इसीलिए हर कलाकार द्वारा प्रस्तुति के अन्त में "भैरवी" का गायन-वादन किया जाता है| सभी कोमल स्वरों वाला यह राग उपशास्त्रीय और सुगम संगीत की रचनाओं के लिए सबसे उपयुक्त राग है| इसीलिए फिल्म संगीत में राग आधारित गीतों में सर्वाधिक संख्या भैरवी आधारित गीतों की ही है| श्रृंखला की पिछली कड़ियों में हमने अवध

बिछुडती नायिका की अपने प्रियतम के लिए कामना -"मैं मिट जाऊँ तो मिट जाऊँ, तू शाद रहे आबाद रहे...."

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 684/2011/124 'र स के भरे तोरे नैन' - फिल्मों में ठुमरी विषयक इस श्रृंखला में मैं कृष्णमोहन मिश्र, एक बार फिर आपका स्वागत करता हूँ| कल की कड़ी में हमने आपसे चर्चा की थी कि नवाब वाजिद अली शाह के दरबार में 'ठुमरी' एक शैली के रूप में विकसित हुई थी| अपने प्रारम्भिक रूप में यह एक प्रकार से नृत्य-गीत ही रहा है| राधा-कृष्ण की केलि-क्रीड़ा से प्रारम्भ होकर सामान्य नायक-नायिका के रसपूर्ण श्रृंगार तक की अभिव्यक्ति इसमें होती रही है| शब्दों की कोमलता और स्वरों की नजाकत इस शैली की प्रमुख विशेषता तब भी थी और आज भी है| कथक नृत्य के भाव अंग में ठुमरी की उपस्थिति से नर्तक / नृत्यांगना का अभिनय मुखर हो जाता है| ठुमरी का आरम्भ चूँकि कथक नृत्य के साथ हुआ था, अतः ठुमरी के स्वर और शब्द भी भाव प्रधान होते गए| राज-दरबार के श्रृंगारपूर्ण वातावरण में ठुमरी का पोषण हुआ था| तत्कालीन काव्य-जगत में प्रचलित रीतिकालीन श्रृंगार रस से भी यह शैली पूरी तरह प्रभावित हुई| नवाब वाजिद अली शाह स्वयं उच्चकोटि के रसिक और नर्तक थे| ऊन्होने राधा-कृष्ण के संयोग-वियोग पर कई ठुमरी गीतों

साजन के छोड़ कर चले जाने की स्थिति में "मैं रोय मरूँगी..." की धमकी देती नायिका

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 683/2011/123 ठु मरी गीतों की हमारी श्रृंखला "रस के भरे तोरे नैन" की तीसरी कड़ी में आप सभी संगीत प्रेमियों का मैं कृष्णमोहन मिश्र स्वागत करता हूँ| कल की ठुमरी में आपने श्रृंगार रस के वियोग पक्ष का कल्पनाशील चित्रण महसूस किया था; किन्तु आज की ठुमरी में नायिका अपने प्रियतम से बिछड़ना ही नहीं चाहती| उसे रोकने के लिए नायिका तरह-तरह के प्रयत्न करती है, तर्क देती है, यहाँ तक कि वह अपने प्रियतम को धमकी भी देती है| इस श्रृंखला की पहली कड़ी में हम यह चर्चा कर चुके हैं कि ठुमरी शैली में रस, रंग और भाव की प्रधानता होती है| ख़याल शैली के द्रुत लय की रचना (छोटा ख़याल) और ठुमरी में मूलभूत अन्तर यही होता है कि छोटा ख़याल में शब्दों की अपेक्षा राग के स्वरों और स्वर संगतियों पर विशेष ध्यान रखना पड़ता है, जबकि ठुमरी में रस के अनुकूल भावाभिव्यक्ति पर ध्यान रखना पड़ता है| प्रायः ठुमरी गायक / गायिका को एक ही शब्द अथवा शब्द समूह को अलग-अलग भाव में प्रस्तुत करना होता है| इस प्रक्रिया में राग के निर्धारित स्वरों में कहीं-कहीं परिवर्तन करना पड़ता है| आज हम ठुमरी की उत