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सुर संगम में आज - उस्ताद अमीर ख़ान का गायन - राग मालकौन्स

सुर संगम - 03 उस्ताद अमीर ख़ान ने "अतिविलंबित लय" में एक प्रकार की "बढ़त" ला कर सबको चकित कर दिया था। इस बढ़त में आगे चलकर सरगम, तानें, बोल-तानें, जिनमें मेरुखण्डी अंग भी है, और आख़िर में मध्यलय या द्रुत लय, छोटा ख़याल या रुबाएदार तराना पेश किया। जा ड़ों की नर्म धूप और आंगन में लेट कर, आँखों पे खींच कर तेरे दामन के साये को, आंधे पड़े रहे, कभी करवट लिए हुए"। गुलज़ार के इन अल्फ़ाज़ों से बेहतर शायद ही कोई अल्फ़ाज़ होंगे जाड़ों की इस सुहानी सुबह के आलम का बयाँ करने के लिए। 'आवाज़' के दोस्तों, सर्दी की इस सुहाने रविवार की सुबह में मैं आप सभी का 'आवाज़' के इस साप्ताहिक स्तंभ 'सुर-संगम' में स्वागत करता हूँ। आज इस स्तंभ का तीसरा अंक है। पहले अंक में आपने उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ साहब का गायन सुना था राग गुनकली में, और दूसरे अंक में उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ान और उस्ताद विलायत ख़ान से शहनाई और सितार पर एक भैरवी ठुमरी। आज हम लेकर आये हैं उस्ताद अमीर ख़ान का गायन, राग है मालकौन्स। उस्ताद अमीर ख़ान का जन्म १५ अगस्त १९१२ को इंदौर में एक संगीत परिवार

ई मेल के बहाने यादों के खजाने (२५), आईये आपका परिचय कराएँ सुजॉय के एक खास मित्र से

'ओल्ड इस गोल्ड' के सभी दोस्तों को हमारा नमस्कार! इस शनिवार विशेष प्रस्तुति में आप सभी का हार्दिक स्वागत है| जिस तरह से 'ओल्ड इज गोल्ड' का नियमित स्तम्भ ५६० अंक पूरे कर चूका है, वैसे ही यह शनिवार विशेष भी आज पूरा कर रहा है अपना २५-वां सप्ताह| शनिवार की इस ख़ास प्रस्तुति में आपने ज़्यादातर 'ईमेल के बहाने यादों के खजाने' पढ़े और इस और आप सब का भरपूर सहयोग हमें मिला जिस वजह से हम इस साप्ताहिक पेशकश की आज 'रजत जयंती अंक' प्रस्तुत कर पा रहे हैं| आप सभी को बहुत बहुत धन्यवाद, और उन दोस्तों से, जो हमारी इस महफ़िल में शामिल तो होते हैं, लेकिन हमें इमेल नहीं भेजते, उनसे ख़ास गुजारिश है की वो अपने जीवन की खट्टी मीठी यादों को संजो कर हमें ईमेल करें जिन्हें हम पूरी दुनिया के साथ बाँट सके| दोस्तों, आज मैं जिस ईमेल को यहाँ शामिल कर रहा हूँ, उसके लिखने वाले के लिए मुझे किसी औपचारिक भाषा के प्रयोग करने की कोई ज़रुरत नहीं है, क्योंकि वह शख्स मेरा बहुत अच्छा दोस्त भी है और मेरा छोटा भाई भी, जिसे कहते हैं 'फ्रेंड फिलोसोफर एंड गाइड'| आईये आज मेरे इस दोस्त सुमित चक्रवर

मैं हूँ एक खलासी, मेरा नाम है भीमपलासी....अन्ना के इस गीत को सुनकर आपके चेहरे पर भी मुस्कान न आये तो कहियेगा

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 570/2010/270 न मस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की ५७०-वीं कड़ी के साथ हम हाज़िर हैं और जैसा कि इन दिनों आप सुन और पढ़ रहे हैं कि सी. रामचन्द्र के संगीत और गायकी से सजी लघु शृंखला 'कितना हसीं है मौसम' जारी है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर। आज हम आ गये हैं इस शृंखला के अंजाम पर। आज इसकी अंतिम कड़ी में आपको सुनवा रहे हैं चितलकर और साथियों का गाया एक और मशहूर गीत। सी. रामचन्द्र के संगीत के दो पहलु थे, एक जिसमें वो शास्त्रीय और लोक संगीत पर आधारित गानें बनाते थे, और दूसरी तरफ़ पाश्चात्य संगीत पर उनके बनाये हुए गानें भी गली गली गूंजा करते थे। इस शृंखला में भी हमने कोशिश की है इन दोनों पहलुओं के गानें पेश करें। आज की कड़ी में सुनिए उसी पाश्चात्य अंदाज़ में १९५० की फ़िल्म 'सरगम' से एक हास्य गीत "मैं हूँ एक खलासी, मेरा नाम है भीमपलासी"। एक गज़ब का रॊक-एन-रोल नंबर है जिससे आज ६० साल बाद भी उतनी ही ताज़गी आती है। माना जाता है कि किसी हिंदी फ़िल्म में रॊक-एन-रोल का प्रयोग होने वाला यह पहला गाना था। और वह भी उस समय जब रॊक-एन-रोल विदेश में भी उतना लोक