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"तेरे मस्त-मस्त दो नैन" गाता हुआ हुड़हुड़ाता आ पहुँचा है एक दबंग, जिसके लिए मुन्नी भी बदनाम हो गई..

ताज़ा सुर ताल ३१/२०१० विश्व दीपक - 'ताज़ा सुर ताल' के इस अंक में हम सभी का स्वागत करते हैं। सुजॊय जी, अब ऐसा लगने लगा है कि साल २०१० के हिट गीतों की फ़ेहरिस्त ने रफ़्तार पकड़ ली है; एक के बाद एक फ़िल्म आती जा रही है और हर फ़िल्म का कोई ना कोई गीत ज़रूर हिट हो रहा है। सुजॊय - हिट गीतों की अगर बात करें तो कभी कभी कामयाब गीतों का फ़ॊरमुला फ़िल्मकारों और कुछ हद तक अभिनेता पर भी निर्भर करता है, ऐसा अक्सर देखा गया है। अब सलमान ख़ान को ही लीजिए, शायद ही उनका कोई फ़िल्म ऐसा होगा, जिसके गानें हिट ना हुए होंगे। वैसे तो उनकी फ़िल्में भी ख़ूब चलती हैं, लेकिन उनके फ़्लॊप फ़िल्मों के गानें भी कम से कम चल पड़ते हैं। विश्व दीपक - ठीक कहा, इसी साल उनकी फ़िल्म 'वीर' बॉक्स ऑफ़िस पर नाकामयाब रही, लेकिन फ़िल्म के गाने चल पड़े थे, ख़ास कर "सलाम आया" गीत तो बहुत पसंद किया गया। पिछले कुछ सालों से सलमान ख़ान की फ़िल्मों में साजिद-वाजिद संगीत दे रहे हैं। 'तेरे नाम' की अपार कामयाबी के बावजूद सल्लु मिया ने हिमेश रेशम्मिया से साजिद वाजिद पर स्विच-ओवर कर लिया था। पिछले साल '

ये साये हैं....ये दुनिया है....जो दिखता है उस पर्दे के पीछे की तस्वीर इतने सरल शब्दों में कौन बयां कर सकता है गुलज़ार साहब के अलावा

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 462/2010/162 मु साफ़िर हूँ यारों' शृंखला की दूसरी कड़ी में आप सभी का स्वागत है। आज हम इसमें सुनने जा रहे हैं गुलज़ार साहब की लिखे बड़े शहर के तन्हाई भरी ज़िंदगी का चित्रण एक बेहद ख़ूबसूरत गीत में। यह गीत है १९८० की फ़िल्म 'सितारा' का जिसे राहुल देव बर्मन के संगीत में आशा भोसले ने गाया है - "ये साये हैं, ये दुनिया है, परछाइयों की"। अगर युं कहें कि इस गीत के ज़रिये फ़िल्म की कहानी का सार कहा गया है तो शायद ग़लत ना होगा। 'सितारा' कहानी है एक लड़की के फ़िल्मी सितारा बनने की। फ़िल्मी दुनिया की रौनक को रुसवाइयों की रौनक कहते हैं गुलज़ार साहब इस गीत में। वहीं "बड़ी नीची राहें हैं ऊँचाइयों की" में तो अर्थ सीधा सीधा समझ में आ जाता है। मल्लिकारुजुन राव एम. निर्मित इस फ़िल्म के निर्देशक थे मेरज, और फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे मिथुन चक्रबर्ती, ज़रीना वहाब, कन्हैयालाल, आग़ा, दिनेश ठाकुर और पेण्टल। इस फ़िल्म में लता मंगेशकर और भूपेन्द्र का गाया हुआ "थोड़ी सी ज़मीन, थोड़ा आसमाँ, तिनकों का बस एक आशियाँ" गीत भी बेहद मक़बूल हुआ था।

सूलियों पे चढ़ के चूमें आफ़ताब को....तन मन में देश भक्ति का रंग चढ़ाता गुलज़ार साहब का ये गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 461/2010/161 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' की एक नई सप्ताह और एक नई शृंखला के साथ हम हाज़िर हैं। आज रविवार है, यानी कि छुट्टी का दिन। लेकिन यह रविवार दूसरे रविवारों से बहुत ज़्यादा ख़ास बन गया है, क्योंकि आज हम सभी भारतवासियों के लिए है साल का सब से महत्वपूर्ण दिन - १५ अगस्त। जी हाँ, इस देश की मिट्टी को प्रणाम करते हुए हम आप सभी को दे रहे हैं स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ। आज दिन भर आपने विभिन्न रेडियो व टीवी चैनलों में ढेर सारे देशभक्ति के गीत सुनें होंगे जो हर साल आप १५ अगस्त और २६ जनवरी के दिन सुना करते हैं, और सोच रहे होंगे कि शायद उन्ही में से एक हम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर भी बजाने वाले हैं। यह बात ज़रूर सही है कि आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर देश भक्ति का रंग ही चढ़ा रहेगा, लेकिन यह गीत उन अतिपरिचित और सुपरहिट देश भक्ति गीतों में शामिल नहीं होता, बल्कि इस गीत को बहुत ही कम सुना गया है, और बहुतों को तो इसके बारे में मालूम ही नहीं है कि ऐसा भी कोई फ़िल्मी देशभक्ति गीत है। इससे पहले कि इस गीत की चर्चा आगे बढ़ाएँ, आपको बता दें कि आज से 'ओल्ड इज़ ग

रविवार सुबह की कॉफी और जश्न-ए-आजादी पर जोश से भरने वाला एक अप्रकाशित दुर्लभ गीत रफ़ी साहब का गाया - लहराओ तिरंगा लहराओ

रात कुछ अजीब थी सच कहूँ तो रात चाँदनी ऐसे लग रही थी जैसे आकाश से फूल बरसा रही हो और बादल समय समय पर इधर उधर घूमते हुए सलामी दे रहे हों. और सुबह सुबह सूरज की किरणों की भीनी भीनी गर्मी एक अलग ही अंदाज़ मे अपनी चह्टा बिखेर रही थी. ऐसा लग रहा था के जैसे ये सब अलमतें हमें किसी ख़ास दिन का एहसास क़रना चाहते हैं. रात कुछ अजीब थी सच कहूँ तो रात चाँदनी ऐसे लग रही थी जैसे आकाश से फूल बरसा रही हो और बादल समय समय पर इधर उधर घूमते हुए सलामी दे रहे हों. और सुबह सुबह सूरज की किरणों की भीनी भीनी गर्मी एक अलग ही अंदाज़ मे अपनी छटा बिखेर रही थी. ऐसा लग रहा था के जैसे ये सब अलमतें हमें किसी ख़ास दिन का एहसास क़रना चाहते हैं. शायद आज सचमुच कोई ख़ास दिन ही तो है और ऐसा ख़ास दिन कि जिसकी तलाश करते हुए ना जाने कितनी आँखें पथरा गयीं, कितनी आँखें इसके इंतज़ार मे हमेशा के लिए गहरी नींद मे सो गयीं. आज हमारे द्वारा 15 ऑगस्ट को मनाने का अंदाज़ सिर्फ़ कुछ भाषण होते हैं या फिर तिरंगे को फहरा देना कुछ देशभक्ति गीत बजाना जो सिर्फ़ इसी दिन के लिए होते हैं. मुझे याद आ रहा है के 90 के दशक की शुरुआत मे 1 हफ्ते पहले ही से

ई मेल के बहाने, यादों के खजाने - ३, देश प्रेम का जज्बा और राज सिंह जी का बचपन

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार! 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ानें', 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के इस साप्ताहिक विशेषांक में आप सभी का फिर एक बार स्वागत है! आज १४ अगस्त है और पूरा राष्ट्र इस वक़्त जुटी हुई है अपनी ६४-वीं स्वतंत्रता दिवस समारोह की तय्यारियों में। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कल आप इस अवसर पर ख़ास पेशकश तो सुनेंगे और पढ़ेंगे ही, लेकिन क्योंकि 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ानें' आप ही की यादों को ताज़ा करने का स्तंभ है, इसलिए हमने सोचा कि क्यों ना आज के इस अंक में आप में से ही किसी दोस्त की यादों को ताज़ा किया जाए जो देश भक्ति की भावना से सम्बंधित हो। कोई ऐसी देश भक्ति फ़िल्म जो आपने किसी ज़माने में देखी हो, जिसके साथ कई यादगार क़िस्से जुड़े हुए हो, या कोई ऐसा देश भक्ति गीत जिसने आपको बहुत ज़्यादा प्रभावित किया हो और आप उसे इस ख़ास अवसर पर सुनना और सुनवाना चाहते हों। ऐसे में अपने ख़ूबसूरत ईमेल और जगमगाती यादों के ख़ज़ाने के साथ सामने आए राज सिंह जी। तो अब मैं आपका और वक़्त ना लेते हुए राज सिंह जी का ईमेल आपके साथ शेयर करता हूँ। *********************

जिसे अंधी गंदी खाईयों से लाए हम बचा के, उस आजादी को हरगिज़ न मिटने देंगें- ये प्रण लिया वी डी, बिस्वजीत और सुभोजीत ने

Season 3 of new Music, Song # 16 ६३ वर्ष बीत चुके हैं हमें आजाद हुए. मगर अब समय है सचमुच की आजादी का. तन मन और सोच की आजादी का. अभी बहुत से काम बाकी है, क्योंकि जंग अभी भी जारी है. आतंकवाद, नक्सलवाद, भ्रष्टाचार, जाने कितने अन्दुरुनी दुश्मन हैं जो हमारे इस देश की जड़ों को अंदर से खोखला कर रहे हैं. आज समय आ गया है कि हम स्मरण करें उन देशभक्तों की कुर्बानियों का जिनके बदौलत आज हम खुली हवा में सांस ले पा रहे हैं. आज समय है एक बार फिर उस सोयी हुई देशभक्ति को जगाने का जिसके अभाव में हम ईमानदारी, इंसानियत और इन्साफ के कायदों को भूल ही चुके हैं. आज समय है उस राष्ट्रप्रेम में सरोबोर हो जाने का जो त्याग और कुर्बानी मांगती है, जो एक होकर चलने की रवानी मांगती है. कुछ यही सोच यही विचार हम पिरो कर लाये हैं अपने इस नए स्वतंत्रता दिवस विशेष गीत में, जिसे लिखा है विश्व दीपक तन्हा ने, सुरों से सजाया है सुभोजित ने और गाया है बिस्वजीत ने. जी हाँ इस तिकड़ी का कमाल आप बहुत से पिछले गीतों में भी सुन ही चुके है, जाहिर है इस गीत में भी इन तीनों ने जम कर मेहनत की है. तो आईये सुनते है आज का ये ताज़ा अपलोड और इस

फिर छिड़ी रात बात फूलों की......तलत अज़ीज़ और खय्याम से सुनिए इस गज़ल के बनने की कहानी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 460/2010/160 ये महकती ग़ज़लें इन दिनों आप सुन रहे हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर लघु शृंखला 'सेहरा में रात फूलों की' के तहत। 'सेहरा में रात फूलों की, जैसा कि आप में से बहुतों को मालूम ही होगा मशहूर शायर मख़्दूम महिउद्दिन की एक मशहूर ग़ज़ल के एक शेर का हिस्सा है, जिसे हमने इस शृंखला के शीर्षक के लिए चुना। क्यों चुना, शायद यह हमें अब बताने की ज़रूरत नहीं। ८० के दशक के संगीत का जो चलन था, उस लिहाज़ से ये ग़ज़लें सेहरा में फूलों भरी रात की तरह ही तो हैं। ख़ैर, आज इस शृंखला की अंतिम कड़ी में मख़्दूम के इसी ग़ज़ल की बारी, जिसे फ़िल्म 'बाज़ार' के लिए स्वरबद्ध किया था ख़य्याम साहब ने। और यह ख़य्याम साहब के संगीत में इस शृंखला की चौथी ग़ज़ल भी है, जैसा कि हमने आप से वादा किया था। फ़िल्म 'बाज़ार' के सभी ग़ज़लें कंटेम्पोररी शायरों की ग़ज़लें हैं। ऐसा कैसे संभव हुआ आइए जान लेते हैं ख़य्याम साहब से जो उन्होने विविध भारती के 'संगीत सरिता' कार्यक्रम में कहे थे। " वो हमारी फ़िल्म आपको याद होगी, 'बाज़ार'। उसमें ये सागर सरहदी सा