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ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, वहशत-ए-दिल क्या करूँ...मजाज़ के मिजाज को समझने की कोशिश की तलत महमूद ने

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #८५ कु छ शायर ऐसे होते है, जो पहली मर्तबा में हीं आपके दिल-औ-दिमाग को झंकझोर कर रख देते हैं। इन्हें पढना या सुनना किसी रोमांच से कम नहीं होता। आज हम जिन शायर की नज़्म लेकर इस महफ़िल में दाखिल हुए है, उनका असर भी कुछ ऐसा हीं है। मैंने जब इनको पहली बार सुना, तब हीं समझ गया था कि ये मेरे दिमाग से जल्द नहीं उतरने वाले। दर-असल हुआ यूँ कि एक-दिन मैं यू-ट्युब पर ऐसे हीं घूमते-घूमते अली सरदार ज़ाफ़री साहब के "कहकशां" तक पहुँच गया। वहाँ पर कुछ नामीगिरामी शायरों की गज़लें "जगजीत सिंह" जी की आवाज़ में सुनने को मिलीं। फिर मालूम चला कि "कहकशां" बस गज़लों का एक एलबम या जमावड़ा नहीं है, बल्कि यह तो एक धारावाहिक है जिसमें छह जानेमाने शायरों की ज़िंदगियाँ समेटी गई हैं। इन शायरों में से जिनपर मेरी सबसे पहले नज़र गई, वो थे "मजाज़ लखनवी"। इनपर सात या आठ कड़ियाँ मौजूद थीं(हैं)..मैं एक हीं बार में सब के सब देख गया.. और फिर आगे जो हुआ.... आज का आलेख, आज की महफ़िल-ए-गज़ल उसी का एक प्रमाण-मात्र है। मजाज़ के बारे में मैं खुद कुछ कहूँ, इससे अच्छा मैं यह समझत

कविहृदय शैलेन्द्र ने जब फ़िल्मी गीत लिखे तो उनके कलम स्पर्श से सैकड़ों गीत अमरत्व पा गए

ओल्ड इस गोल्ड /रिवाइवल # ३५ फ़ि ल्म 'तीसरी कसम' से जुड़ी बहुत सी बातें हमने समय समय पर 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में की है। आज इसी फ़िल्म का गीत "सजनवा बैरी हो गए हमार" हम सुनने जा रहे हैं। तो आइए आज शैलेन्द्र के जीवन से जुड़ी कुछ बातें की जाए। हम आप तक फिर एक बार पहुँचा रहे हैं शैलेन्द्र जी की सुपुत्री आमला मजुमदार के उद्‍गार जो उन्होने कहे थे दुबई स्थित १०४.४ आवाज़ एफ़.एम रेडियो पर और जिसका प्रसारण हुआ था ३० अगस्त २००६ के दिन, यानी कि शैलेन्द्र जी के जन्मदिन के अवसर पर। आमला जी कहती हैं, "हम बहुत छोटे थे जब बाबा गुज़र गए और अचानक एक, जैसे overnight एक void सा, एक ख़ालीपन सा जैसे छा गया था हमारी ज़िंदगी के उपर। बाबा के गुज़र जाने के बाद we were determined that not to let that void eat us up और I think it was also in a way we realised that baba never left us. Through his songs, उनके गानों के ज़रिए उन्होने हमें एक राह दिखाई और उस राह पर चलते हम आज यहाँ तक पहुँच गए हैं। और हम बहुत ही proud होके, बहुत ही फक्र के साथ कह सकते हैं कि बाबा ने हमें छोड़ा नहीं, बाबा हमारे

बर्मन दा, आपके रचे गीत भारतीय फिल्म संगीत के आसमान पर सदैव टिमटिमाते रहेंगें, आपको सलाम

ओल्ड इस गोल्ड /रिवाइवल # ३४ क्यों कि आज हम आपको सुनवा रहे हैं सचिन देव बर्मन की संगीत रचना फ़िल्म 'गाइड' से, तो आज हम दोहरा रहे हैं दो 'जयमाला' कार्यक्रमों से चुन कर कुछ अंश। पहला 'जयमाला' जिसे प्रस्तुत किया था ख़ुद दादा बर्मन ने और दूसरा 'जयमाला' जिसे प्रस्तुत किया था उनके सुपुत्र पंचम ने। पहले ये हैं दादा बर्मन - "फ़ौजी भाइयों, आप सभी को सचिन देव बर्मन का नमस्कार! मैं जब बहुत छोटा था तब त्रिपुरा के गाँव में एक बूढ़े किसान को गाते हुए सुनता था, "रोंगीला रोंगीला रोंगीला रे, रोंगीला"। जैसे जैसे मैं बड़ा हुआ यह गीत भी मेरे साथ जवान होता गया। मेरी जो संगीत में रुचि है वह इसी गाने को सुनकर पैदा हुई थी।" दोस्तों, ये जो "रोंगीला रोंगीला" की धुन थी, वही धुन बनी "आन मिलो आन मिलो" की। और अब जान लीजिए कि बर्मन दादा ने उस कार्यक्रम का समापन कैसे किया था - "मेरी गीतों में जो लोक संगीत झलकती है, उसे मैने अपने गाँव के बूढ़े किसानों से सीखा है और शास्त्रीय संगीत अल्लाउद्दिन ख़ान साहब से सीखा है। मैं सब से ज़्यादा प्यार अपनी

संगीतकारों के अग्रणी नामों के पीछे कुछ ऐसे दिग्गज भी थे जिन्हें वो सब नहीं मिल पाया जिसके वो हक़दार थे

ओल्ड इस गोल्ड /रिवाइवल # ३३ आ ज 'ओल्ड इज़ गोल्ड रिवाइवल' में एक बड़ा ही ख़ूबसूरत और दुर्लभ गीत। दुर्लभ इसलिए कि इस गीत के संगीतकार ने अपने करीयर में केवल १४ फ़िल्मों में संगीत दिया। जी हाँ, सज्जाद हुसैन। आज सुनिए उनकी धुन में फ़िल्म 'रुस्तम सोहराब' का गीत "ऐ दिलरुबा नज़रें मिला"। सज्जाद साहब अपने उसूलों पर चलने वाले इंसान थे। उन्होने कभी किसी से कोई समझौता नहीं किया और इस वजह से उन्हे भी बहुत ज़्यादा फ़िल्में नहीं मिली। लेकिन जितने भी फ़िल्मों में उन्होने संगीत दिया वो सभी उच्च कोटी के थे जो उस ज़माने के सभी संगीतकार मानते थे। मैंडोलीन को फ़िल्म संगीत मे लाने का श्रेय भी सज्जाद साहब को ही जाता है। इस साज़ पर उन्होने बहुत शोध किये और उनके बजाये इस साज़ के कई रिकार्ड्स भी निकले और आज उनके तीनों बेटे इस क्षेत्र में अपने पिता के काम को आगे बढ़ा रहे हैं। अपने अलग स्वभाव, अलग 'मूड' और कम काम करने के बावजूद सज्जाद साहब एक बेहतरीन संगीतकार माने गये। अपनी ७९ वर्ष की आयु मे उन्होने अपनी संगीत यात्रा के दौरान अनेक बेशकीमती गीतों की धरोहर तैयार किये हैं जिसे आनेव

पुराने नायाब गीतों की सफलता में उन अदाकारों का अभिनय भी एक अहम घटक रहा जिन्होंने इन गीतों को परदे पर जीया

ओल्ड इस गोल्ड /रिवाइवल # ३२ रा ग अहिरीभैरव में रचा सचिन देव बर्मन का एक उत्कृष्ट रचना के साथ 'ओल्ड इज़ गोल्ड रिवाइवल' की आज की कड़ी में हम उपस्थित हुए हैं। फ़िल्म 'मेरी सूरत तेरी आँखें' में मन्ना डे साहब ने शैलेन्द्र के लिखे इस गीत को पुर्णता तक पहुँचाया था। "पूछो ना कैसे मैंने रैन बिताई"। मन्ना डे एक ऐसे गायक रहे हैं जिन्होने फ़िल्मों में सब से ज़्यादा इस तरह की रचनाएँ गाए हैं। या फिर युं कहिए कि इस तरह की शास्त्रीय रचनाओं के लिए उनसे बेहतर नाम कोई नहीं था उस ज़माने में और ना आज है। यह ज़रूर अफ़सोस की बात रही है कि मन्ना दा को नायकों के लिए बहुत ज़्यादा पार्श्वगायन का मौका नहीं मिला, लेकिन जब भी शास्त्रीय रंग में ढला कोई "मुश्किल" गीत गाने की बारी आती थी तो हर संगीतकार को सब से पहले इन्ही की याद आती थी। शास्त्रीय संगीत पर उनकी मज़बूत पकड़ और उनकी सुर साधना को सभी स्वीकारते हैं और फ़िल्म संगीत जगत में उनका नाम आज भी बड़े ही सम्मान के साथ लिया जाता है। जहाँ तक प्रस्तुत गीत के संगीत की बात है तो बर्मन दादा अपने इस गीत को अपनी सर्वोत्तम रचना मानते हैं,

सुनो कहानी: एक बंगला फिल्म - शरद जोशी

'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने प्रसिद्ध व्यंग्यकार पंकज सुबीर लिखित रचना " तुम लोग " का पॉडकास्ट अनुराग शर्मा की आवाज़ में सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं शरद जोशी लिखित व्यंग्य " एक बंगला फिल्म ", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने। "एक बंगला फिल्म" का कुल प्रसारण समय मात्र 8 मिनट 34 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें। लेखन मेरा निजी उद्देश्य है ... मैं इससे बचकर जा भी नहीं सकता। ~ पद्मश्री शरद जोशी (जन्म २१ मई १९३१; उज्जैन) हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी मैं और नरेन्द्र दोनों गंवार लग रहे थे। ( शरद जोशी के व्यंग्य "एक बंगला फिल्म" से एक अंश ) नीचे के प्लेयर से सुनें. (प्लेयर पर एक बार क्लिक करें

मजरूह, साहिर जैसे नामी गिरामी शायरों ने भी एक लंबी पारी खेली बतौर गीतकार

ओल्ड इस गोल्ड /रिवाइवल # ३1 'ओ ल्ड इस गोल्ड रिवाइवल' के अंतरगत आप कुल ४५ गानें सुन रहे हैं इन दिनों एक के बाद एक, और इस शृंखला का दो तिहाई हिस्सा पूरी कर चुके हैं। यानी कि ३० गीत हम सुन चुके हैं और अभी १५ गानें और सुनवाने हैं। हम उम्मीद करते हैं कि ये कवर वर्ज़न्स आप को अच्छे लग रहे होंगे। तो इसी सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए आज एक हंगामाख़ेज गीत जिसे राहुल देव बर्मन के पाश्चात्य शैली के गीतों की श्रेणी में सब से उपर रखा जाता है। जी हाँ, फ़िल्म 'कारवाँ' का "पिया तू अब तो आजा"। मजरूह सुल्तानपुरी ने इस गीत को लिखा था और आशा भोसले के साथ साथ पंचम ने भी "मोनिका ओ माइ डार्लिंग्" की आवाज़ लगाई थी इस गाने में। इस सेन्सुयस गीत का रिवाइव्ड वर्ज़न आज हम सुनने जा रहे हैं, लेकिन उससे पहले आपको यह बता दें कि 'कारवाँ' नासिर हुसैन की फ़िल्म थी। मुझे विकिपीडिया पर मजरूह साहब के जीवनी पर नज़र दौड़ाते हुए यह बात पता चली (वैसे मैं इसकी पुष्टि नहीं कर सकता) कि 'तीसरी मंज़िल' के लिए राहुल देव बर्मन को बतौर संगीतकार नियुक्त करने के निर्णय में मजरूह साहब का बड