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हम उस देश के वासी हैं, जिस देश में गंगा बहती है....गणतंत्र दिवस पर एक बार फिर गर्व के साथ गाईये

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 326/2010/26 ६१ -वें गणतंत्र दिवस के उपलक्ष्य पर 'आवाज़' की पूरी टीम की तरफ़ से आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएँ। हमारा देश निरंतर प्रगति के मार्ग पर बढ़ती रहे, समाज में फैले अंधकार दूर हों, यही कामना करते हैं, लेकिन सिर्फ़ कामना करने से ही बात नहीं बनेगी, जब तक हम में से हर कोई अपने अपने स्तर पर कुछ ना कुछ योगदान इस दिशा में करें। देशभक्ति का अर्थ केवल हाथ में बंदूक उठाकर दुश्मनों से लड़ना ही नहीं है। बल्कि कोई भी काम जो इस देश और देशवासियों के लिए लाभकारी सिद्ध हो, वही देशभक्ति है। इसलिए हर व्यक्ति देशभक्ति का परिचय दे सकता है। ख़ैर, आइए अब रोशन करें 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल को। दोस्तों, साल २००९ के अंतिम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की कड़ी, यानी कि ३००-वीं कड़ी में हमने आप से पूछा था एक महापहेली, जिसमें कुल १० सवाल थे। इन दस सवालों में सब से ज़्यादा सही जवाब दिया शरद तैलंग जी ने और बनें इस महासवाल प्रतियोगिता के विजेयता। इसलिए आज से अगले पाँच दिनों में हम शरद जी के पसंद के चार गानें सुनेंगे, जो उन्हे हमारी तरफ़ से इनाम है। तो आज पेश-ए-ख़िदमत है शरद

कहीं बेखयाल होकर यूं ही छू लिया किसीने...और डुबो दिया रफ़ी साहब ने मजरूह की शायरी में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 325/2010/25 इं दु जी के पसंद के गीतों को सुनते हुए आज हम आ पहुँचे हैं उनके चुने हुए पाँचवे और फ़िल्हाल अंतिम गीत पर। पिछले चार गीतों की तरह यह भी एक सदाबहार नग़मा है। इन सभी गीतों में एक समानता यह रही कि इन गीतों का संगीत जितना सुरीला है, इनके बोल भी उतने ही ख़ूबसूरत। आज का गीत है "कहीं बेख़याल होकर युं ही छू लिया किसी ने, कई ख़्वाब देख डाले यहाँ मेरी बेख़ुदी ने"। अब बताइए कि भाव तो बहुत ही साधारण और रोज़ मर्रा की ज़िंदगी वाला है कि बेख़याली में किसी ने छू लिया। लेकिन इस साधारण भाव को लेकर एक असाधारण गीत की रचना कर डाली है मजरूह साहब, दादा बर्मन और रफ़ी साहब की तिकड़ी ने। हालाँकि मजरूह साहब का कहना है कि दरसल इस गीत को कॊम्पोज़ जयदेव जी ने किया था जो उन दिनों दादा के सहायक हुआ करते थे। ख़ैर, हम इस वितर्क में नहीं पड़ना चाहते, बल्कि आज तो सिर्फ़ इस गीत का आनंद ही उठाएँगे। फ़िल्म 'तीन देवियाँ' का यह गीत है जो देव आनंद पर फ़िल्माया गया था जो कश्मीर में किसी महफ़िल में इसे गाते हैं। थोड़ा सुफ़ीयाना अंदाज़ भी झलकता है इस ख़ूबसूरत ग़ज़ल में, और इसके

रण में उलझे रामू संगीत के साथ समझौता कर गए....

ताज़ा सुर ताल 04/ 2010 ताज़ा सुर ताल के मंच पर मुझे देखकर आपको हैरानी ज़रूर हो रही होगी... हो भी क्यों न, जब मुझे हीं हैरानी हो रही है तो आपका हैरान होना तो लाजिमी है। बात दर-असल यह है कि सुजोय जी अभी कुछ दिनों तक कुछ ज्यादा हीं व्यस्त रहने वाले हैं.. कुछ व्यक्तिगत कारण हैं शायद... तो इसलिए सजीव जी ने यह काम मुझे सौंपा है.... अरे डरिये मत, मैं इस मंच पर बस इस हफ़्ते हीं नज़र आऊँगा, अगले हफ़्ते से सुजोय जी वापस कमान संभाल लेंगे। तो आज के इस अंक में मुझे झेलने के लिए कमर कस लीजिए...वैसे परसो तो मैं आने हीं वाला हूँ महफ़िल-ए-गज़ल की नई कड़ी के साथ, तब आप भाग नहीं पाईयेगा। अब चूँकि सुजोय जी नहीं, इसलिए उनका वह अंदाज़ भी नहीं। आज की संगीत-समीक्षा एक सीधी-सादी समीक्षा होगी, बिना किसी लाग-लपेट के, बिना किसी वाद-विवाद के... और न हीं अपने विचार रखने के लिए सजीव जी दूरभाष (टेलीफोन...शुद्ध हिन्दी में इसलिए लिखा क्योंकि पिछली कड़ी में एक मित्र ने आंग्ल भाषा से बचने की सलाह दी थी) के सहारे हाज़िर होंगे। तो खोलते हैं पिटारी और देखते हैं कि भानूमति की इस पिटारी में आज किस चलचित्र के गानों की किस्मत

आप यूं ही अगर हमसे मिलते रहें....देखिये आपको भी 'ओल्ड इस गोल्ड' से प्यार हो जायेगा

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 324/2010/24 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' पर इन दिनों आप सुन रहे हैं इंदु जी के पसंद के गीतों को। कुल पाँच में से तीन गानें हम पिछले तीन कड़ियों में सुन चुके हैं। आज है चौथे गीत की बारी। मोहम्मद रफ़ी और आशा भोसले की आवाज़ों में यह है फ़िल्म 'एक मुसाफ़िर एक हसीना' का एक बड़ा ही ज़बरदस्त और सुपरहिट डुएट " आप युं ही अगर हमसे मिलते रहे, देखिए एक दिन प्यार हो जाएगा"। "मस्त, प्यारा सा खूबसूरत गीत जिस के बिना कोई पिकनिक, कोई प्रोग्राम पूरा नही होता। साधना की मासूमियत भरा सौन्दर्य, प्यार के इजहार का खूबसूरत अंदाज, मधुर संगीत, सब ने मिल कर एक ऐसा गीत दिया है जिसे आप किसी भी कार्यक्रम में गा कर समा बांध सकते हैं और इंदु पुरी का मतलब ही...समा बंध जाना, महफिल की जान। " बहुत सही कहा इंदु जी, आपने। आप के पसंद पर यह गीत आज इस महफ़िल में ऐसा समा बांधेगा कि लोग कह उठेंगे कि भई वाह! क्या पसंद है! साधना और जॊय मुखर्जी पर फ़िल्माया यह गीत कश्मीर की ख़ूबसूरत वादियों में पिक्चराइज़ हुआ था। इस फ़िल्म की चर्चा तो हम पहले कर चुके हैं इस महफ़िल में, तो क्यों ना आ

वो शाम कुछ अजीब थी...जब किशोर दा की संजीदा आवाज़ में हेमंत दा के सुर थे

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 323/2010/23 आ ज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस कड़ी की शुरुआत में हम श्रद्धांजली अर्पित करते हैं इस देश के अन्यतम वीरों में से एक, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस को, जिनकी आज जयंती है। उन पर कई फ़िल्में बनीं हैं, आज इस वक़्त मुझे ऐसी ही किसी फ़िल्म के जिस गीत की याद आ रही है वह है "झंकारो झंकारो झननन झंकारो, झंकारो अग्निवीणा, आज़ाद होके बंधुओं जीयो, ये जीना कोई जीना, ये जीना क्या जीना"। आइए अब आगे बढ़ते हैं और इंदु जी के पसंद का तीसरा गीत सुनते हैं ख़ामोशी से। मेरा मतलब है फ़िल्म 'ख़ामोशी' से। वैसे दोस्तों, यह गीत इतना भावुक और नायाब है कि इसे बिल्कुल ख़ामोश होकर ही सुनें तो बेहतर है। "वो शाम कुछ अजीब थी, ये शाम भी अजीब है, वो कल भी पास पास थी, वो आज भी करीब है"। गुलज़ार साहब के बेहद बेहद बेहद असरदार बोल, हेमन्त कुमार का दिल को छू लेनेवाला संगीत, और उस पर किशोर कुमार की गम्भीर गायकी, कुल मिलाकर एक ऐसा गीत बना है कि दशकों बाद भी आज जब भी कभी इस गीत को सुनते हैं तो हर बार यह दिल को उतना ही छू जाता है जितना कि उस दौर के लोगों का छूता होगा। आख़ि

सुनो कहानी: गरजपाल की चिट्ठी - अनुराग शर्मा

'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में हरिशंकर परसाई की कहानी " अशुद्ध बेवकूफ " का पॉडकास्ट सुना था। आज हम आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं अनुराग शर्मा की एक कहानी " गरजपाल की चिट्ठी ", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने। कहानी "गरजपाल की चिट्ठी" का कुल प्रसारण समय 7 मिनट 32 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। इस कथा का टेक्स्ट बर्ग वार्ता ब्लॉग पर उपलब्ध है। यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें। पतझड़ में पत्ते गिरैं, मन आकुल हो जाय। गिरा हुआ पत्ता कभी, फ़िर वापस ना आय।। ~ अनुराग शर्मा हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी वासंती के नाम की चिट्ठी जाती तो रोज़ थी मगर किसी ने कभी वासंती की कोई चिट्ठी आते न देखी। ( अनुराग शर्मा की " गरजपाल की चिट्ठी " से एक अंश ) नीचे के प

बलमा माने ना बैरी चुप ना रहे....चित्रगुप्त का रचा एक और चुलबुला नगमा

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 322/2010/22 इं दु जी के पसंद के गीत आजकल ओल्ड इज़ गोल्ड की शान बनें हुए हैं। कल के गीत में रोने रुलाने की बात थी। चलिए आज मूड को ज़रा बदलते हैं और एक ख़ुशनुमा गीत सुनते हैं लता जी की ही आवाज़ में। शास्त्रीय संगीत पर आधारित यह रचना है फ़िल्म 'ओपेरा हाउस' का। मजरूह सुल्तानपुरी के लिखे और चित्रगुप्त के संगीतबद्ध किए इस गीत के बोल हैं "बलमा माने ना बैरी चुप ना रहे, लगी मन की कहे हाए पा के अकेली मोरी बैयाँ गहे"। इंदु जी कहती हैं कि " बचपन में एक म्युज़िक कॊम्पीटिशन में पहला इनाम जीता था इसे गा कर, बस तभी से पसंद है। जब भी सुनती हूँ जैसे बचपन के वो दिन सामने आ जाते हैं। खूबसूरत गीत तो है ही, बी.सरोजा देवी का नृत्य व हाव भाव मनमोहक है, कमाल है। " इंदु जी, चलिए इसी बहाने हम सब को यह पता चल गया कि आप गाती भी हैं। अगर संभव हो तो अपनी आवाज़ में इस गीत को रिकार्ड कर हमें ज़रूर भेजिएगा। जैसा कि आप बता ही चुकी हैं कि यह गीत फ़िल्माया गया है बी. सरोजा देवी पर, इस फ़िल्म के अन्य कलाकार थे अजीत, के. एन. सिंह, ललिता पवार, और बेला बोस प्रमुख। ए. ए. नड