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है न बोलो बोलो....पापा मम्मी की मीठी सुलह भी कराते हैं बच्चे गीत गाकर

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 268 दो स्तों, बच्चों वाले गीतों की शृंखला को आगे बढ़ाते हुए आज हम एक बार फिर से शम्मी कपूर और शंकर जयकिशन के कॊम्बिनेशन का एक गीत लेकर उपस्थित हुए हैं। लेकिन इस बार गीतकार शैलेन्द्र नहीं बल्कि हसरत जयपुरी साहब हैं। यह है १९७१ की फ़िल्म 'अंदाज़' का एक गीत जिसे मोहम्मद रफ़ी, सुमन कल्याणपुर, सुषमा श्रेष्ठ और प्रतिभा ने गाया है। बच्चों वाले गीतों की श्रेणी में यह गीत भी लोकप्रियता की कसौटी पर खरा उतरा था अपने ज़माने में। जी. पी. सिप्पी निर्मित, रमेश सिप्पी निर्देशित, और शम्मी कपूर, राजेश खन्ना व हेमा मालिनी अभिनीत इस फ़िल्म की कहानी कुछ इस तरह की थी कि राजु (राजेश खन्ना) और शीतल (हेमा मालिनी) एक दूसरे से प्यार करते हैं। राजु अपने पिता की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ एक मंदिर में शीतल से शादी कर लेता है, जिसे राजु का पिता स्वीकार नहीं करता। जल्द ही राजु एक रोड-ऐक्सिडेंट में मर जाता है और उधर शीतल माँ बनने वाली है। वो एक लड़के दीपु (मास्टर अलंकार) को जन्म देती है। शीतल को एक स्कूल टीचर की नौकरी मिल जाती है। उसका एक स्टुडेंट एक छोटी सी प्यारी सी बिन माँ की बच्ची मुन्नी ह

दादी अम्मा दादी अम्मा मान जाओ...जब तुतलाती आवाजों में ऐसे बच्चे मनाएं तो कौन भला रूठा रह पाए

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 267 'ब्र च्चों का एक गहरा लगाव होता है अपने दादा-दादी और नाना-नानी के साथ। कहते हैं कि बूढ़ों और बच्चों में ख़ूब अच्छी बनती है। कभी दादी-नानी बच्चों को परियों की कहानी सुनाते हुए रूपकथाओं के देश में ले जाते हैं तो कभी सर्दी की किसी सूनसान रात में बच्चों के ज़िद पर भूतों की ऐसी कहानी सुनाते हैं कि फिर उसके बाद बच्चे बिस्तर से नीचे उतरने में भी डरते हैं। कहानी चाहे कोई भी हो, नानी-दादी से कहानी सुनने का मज़ा ही कुछ और है। ठीक इसी तरह से बच्चे भी अपने इन बड़े बुज़ुर्गों का ख़याल रखते हैं। उनके साथ सैर पे जाना, उनकी छोटी मोटी ज़रूरतों को पूरा करना, चश्मा या लाठी खोजने में मदद करना जैसे काम नाती पोती ही तो करते आए हैं। घर में जब तक बड़े बूढ़े और बच्चे हों, घर की रौनक ही कुछ और होती है। अफ़सोस की बात है कि आज की पीढ़ी के बहुत से लोग अपने बूढ़े माँ बाप से अलग हो जाते हैं। ऐसे में आज के बच्चे भी अपने दादा-दादी से अलग हो जाते हैं। यह एक ऐसी हानि हो रही है बच्चों की जिसकी किसी भी और तरीके से भरपाई होना असंभव है। जो संस्कृति और शिक्षा दादा-दादी और नाना-नानी से मिलती ह

चक्के पे चक्का, चक्के पे गाडी....बच्चों के संग एक मस्ती भरी यात्रा पे चलिए

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 266 'ब्र ह्मचारी' गीतकार शैलेन्द्र की अंतिम फ़िल्म थी। इस फ़िल्म के गीत "मैं गाऊँ तुम सो जाओ" के लिये उन्हे मरणोपरांत सर्वश्रेष्ठ गीतकार के फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। बच्चों पर केन्द्रित फ़िल्मों की फ़हरिस्त में १९६८ की इस फ़िल्म का एक महत्वपूर्ण स्थान रहा है। इस फ़िल्म में कई कालजयी गीत हैं, और कुछ तो लोकप्रियता की कसौटी पर ऐसे खरे उतरे हैं कि आज भी अक्सर कहीं ना कहीं से "आजकल तेरे मेरे प्यार के चर्चे" या "दिल के झरोखे में तुझको बिठा के" सुनाई दे जाता है। अनाथ बच्चों पर आधारित इस फ़िल्म में दो बच्चों वाले गीत थे, एक जिसका उल्लेख हमने शुरु में ही किया ("मैं गाऊँ तुम सो जाओ"), और दूसरा गीत था बड़ा ही मस्ती भरा "चक्के पे चक्का, चक्के पे गाड़ी, गाड़ी में निकली अपनी सवारी", जिसे रफ़ी साहब और बच्चों ने बड़े ही बच्चों वाले अंदाज़ में गाया था। आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर है इसी गीत की बारी। इस गीत के बोल साफ़ साफ़ इसी बात की तरफ़ इशारा करते हैं कि यह गीत किसी ख़ास मक़सद या सिचुएशन के लिए न

हाय हम क्या से क्या हो गए....लज्जत-ए-इश्क़ महसूस करें जावेद अख़्तर और अल्का याज्ञनिक के साथ

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #६० आ ज की महफ़िल में हम हाज़िर हैं शरद जी की पसंद की तीसरी और अंतिम नज़्म लेकर। गायकी के दो पुराने उस्तादों(मन्ना डे और मुकेश) को सुनने-सुनाने के बाद आज हमने रूख किया है १९९० और २००० के दशक की ओर और इस सफ़र में हमारा साथ वह दे रही हैं जो आज भी उसी शिद्दत से सुनी जाती हैं जिस शिद्दत से ३० साल पहले सुनी जाती थीं। नए दौर में कई सारी नई गायिकाएँ आईं, लेकिन इनके जादू को दुहरा न सकीं। इन्होंने अपना पहला गाना १९७९ की फिल्म "पायल की झनकार" में गाया था, वह गाना ज्यादा मशहूर तो नहीं हुआ, लेकिन हाँ उस गाने ने यह घोषणा तो कर दी कि एक लम्बे दौर का घोड़ा मैदान में उतर चुका है। फिर १९८१ में आई "लावारिस" जिसमें अमिताभ बच्चन का गाया "मेरे अंगने में" बच्चे-बच्चे की जुबान पर चढ गया। लेकिन हाँ अमित जी के गाए इस गाने का एक रूप और था, जिसे परदे पर "राखी" गाती हैं और परदे के पीछे हमारी आज की फ़नकारा। यह गाना भी खूब चला, लेकिन अगर कोई यह पूछे कि इन्हें सही मायने में सफ़लता कब मिली, तो निर्विरोध एक हीं जवाब होगा और वह जवाब है १९८८ में रीलिज हुई फिल्म &quo

इचक दाना बिचक दाना....पहेलियों में गुंथा एक अनूठा गाना

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 265 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' पर आप लगातार सुन रहे हैं बच्चों वाले गानें एक के बाद एक। दोस्तों, हर रोज़ गीत के आख़िर में हम आप से एक पहेली पूछते हैं, आज भी पूछेंगे, लेकिन आज का जो गीत है ना वो भरा हुआ है पहेलियों से। पहेली बूझना बच्चों का एक मनपसंद खेल रहा है हर युग में। हिंदी फ़िल्मों में कई गीत ऐसे हैं जो पहेलियों पर आधारित हैं, जैसे कि उदाहरण के तौर पर फ़िल्म 'ससुराल' का गीत "एक सवाल मैं करूँ एक सवाल तुम करो", 'मिलन' फ़िल्म का गीत "बोल गोरी बोल तेरा कौन पिया"। और भी कई गीत हैं इस तरह के, लेकिन इन सब में जो सब से ज़्यादा प्रोमिनेंट है वह है राज कपूर की फ़िल्म 'श्री ४२०' का "ईचक दाना बीचक दाना दाने उपर दाना"। इस गीत का मुखड़ा और सारे के सारे अंतरे पहेलियों पर आधारित है। लता मंगेशकर, मुकेश और बच्चों के गाए इस गीत का फ़िल्मांकन कुछ इस तरह से हुआ है कि नरगिस एक स्कूल टीचर बच्चों को पहेलियों के माध्यम से पाठ पढ़ा रही हैं, और छत पर खड़े दूर दूर से राज कपूर ख़ुद भी उन पहेलियों को सुलझाने की कोशिश कर रहे हैं। हर प

मास्टरजी की आ गयी चिट्टी, चिट्टी में से निकली बिल्ली....गुलज़ार और आर डी बर्मन का "मास्टर" पीस

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 264 ब च्चों पर जब फ़िल्म बनाने या गीत लिखने की बात आती है तो गुलज़ार साहब का नाम बहुत उपर आता है। बच्चों के किरदारों या गीतों को वो इस तरह का ट्रीटमेंट देते हैं कि वो फ़िल्में और वो गानें कालजयी बन कर रह जाते हैं। फिर चाहे वह 'परिचय' हो या 'किताब', या फिर १९८३ की फ़िल्म 'मासूम'। हर फ़िल्म में उन्होने बच्चों के किरदारों को बहुत ही समझकर, बहुत ही नैचरल तरीके से प्रस्तुत किया है। बड़े फ़िल्मकार की यही तो निशानी है कि किस तरह से छोटे से छोटे बच्चो से उनका बेस्ट निकाल लिया जाए! आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर हम ज़िक्र करेंगे एक ऐसी ही फ़िल्म का जिसका निर्माण किया था प्राणलाल मेहता और गुलज़ार ने। पटकथा, निर्देशन और गीत गुलज़ार साहब के थे और संगीत था राहुल देव बर्मन का। जी हाँ, यह फ़िल्म थी 'किताब'। मुख्य भुमिकाओं में थे उत्तम कुमार, विद्या सिंहा, श्रीराम लागू, केष्टो मुखर्जी, असीत सेन, और दो नन्हे किरदार - मास्टर राजू और मास्टर टीटो। 'किताब' की कहानी एक बच्चे के मनोभाव पर केन्द्रित थी। बाबला (मास्टर राजू) अपनी माँ (दीना पाठक) क

"ऑल इज वेल" है शांतनु-स्वानंद की जोड़ी के रचे "३ इडियट्स" के संगीत में

ताजा सुर ताल TST (35) दोस्तो, ताजा सुर ताल यानी TST पर आपके लिए है एक ख़ास मौका और एक नयी चुनौती भी. TST के हर एपिसोड में आपके लिए होंगें तीन नए गीत. और हर गीत के बाद हम आपको देंगें एक ट्रिविया यानी हर एपिसोड में होंगें ३ ट्रिविया, हर ट्रिविया के सही जवाब देने वाले हर पहले श्रोता की मिलेंगें २ अंक. ये प्रतियोगिता दिसम्बर माह के दूसरे सप्ताह तक चलेगी, यानी 5 अक्टूबर से १४ दिसम्बर तक, यानी TST के ४० वें एपिसोड तक. जिसके समापन पर जिस श्रोता के होंगें सबसे अधिक अंक, वो चुनेगा आवाज़ की वार्षिक गीतमाला के 60 गीतों में से पहली 10 पायदानों पर बजने वाले गीत. इसके अलावा आवाज़ पर उस विजेता का एक ख़ास इंटरव्यू भी होगा जिसमें उनके संगीत और उनकी पसंद आदि पर विस्तार से चर्चा होगी. तो दोस्तों कमर कस लीजिये खेलने के लिए ये नया खेल- "कौन बनेगा TST ट्रिविया का सिकंदर" TST ट्रिविया प्रतियोगिता में अब तक- पिछले एपिसोड में, अब तो लगता है सीमा जी अकेली रनर रह गयी हैं, अब उन्हें चुनौती देना तो असंभव सा ही लग रहा है... सजीव - सुजॉय, 'ताज़ा सुर ताल' में इस हफ़्ते हम चर्चा करेंगे विधु विनोद