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यूँ न रह-रहकर हमें तरसाईये.....एक फ़नकार जो चला गया हमें तरसाकर

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #३३ यूँ तो हमने पिछली दफ़ा फ़रमाईश की गज़लों का सिलसिला शुरू कर दिया था.. लेकिन न जाने क्यों आज मन हुआ कि कम से कम एक दिन के लिए हीं अपने पुराने ढर्रे पर वापस आ जाया जाए। अहा..... हम अपने वादे से मुकर नहीं रहे, आने वाली ७ कड़ियों में हमें फ़रमाईश की ५ गज़लों/नज़्मों को हीं सुनाना है, इसलिए आगे भी दो बार हम अपने संग्रह से चुनी हुई २ गज़लों/नज़्मों का आनंद ले सकते हैं। तो चलिए आज की गज़ल की ओर बढते हैं। आज की गज़ल "यूँ न रह-रहकर हमें तरसाईये" को लिखा है "सागर निज़ामी" ने और संगीत से सँवारा है चालीस के दशक के मशहूर संगीतकार "पंडित अमरनाथ" ने। जानकारी के लिए बता दूँ कि "पंडित अमरनाथ" जानी-मानी संगीतकार जोड़ी "हुस्नलाल-भगतराम" के बड़े भाई थे। रही बात "सागर निज़ामी" की तो अंतर्जाल पर उनकी लिखी चार हीं गज़लें मौजूद हैं- "यूँ न रह-रहकर", "हैरत से तक रहा", "हादसे क्या-क्या तुम्हारी बेरूखी से हो गए" और "काफ़िर गेशु वालों की रात बसर यूँ होती है"। संगीतकार और शायर के बाद जिसका नाम हमा

रंग और नूर की बारात किसे पेश करूँ...सुनील दत्त का दर्द, रफी के स्वर

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 153 'द स चेहरे एक आवाज़ - मोहम्मद रफ़ी' के तहत आज जिस चेहरे पर रफ़ी साहब की आवाज़ सजने वाली है, उस चेहरे का नाम है सुनिल दत्त। सुनिल दत्त उन अभिनेताओं में से हैं जिनका कई गायकों ने पार्श्व-गायन किया है जैसे कि तलत महमूद, मुकेश, किशोर कुमार, महेन्द्र कपूर, और रफ़ी साहब भी। रफ़ी साहब की आवाज़ और दत्त साहब के अभिनय से सजी एक बेहद मशहूर फ़िल्म रही है 'ग़ज़ल'. १९६४ में बनी यह फ़िल्म एक मुस्लिम सामाजिक फ़िल्म थी। ज़ाहिर है ऐसे फ़िल्मों में उर्दू शायरी का बड़ा हाथ हुआ करता है और यह फ़िल्म भी व्यतिक्रम नहीं है। साहिर लुधियानवी के अशआर, मदन मोहन का संगीत, सुनिल दत्त और मीना कुमारी के अभिनय, तथा रफ़ी साहब की आवाज़, कुल मिलाकर आज यह फ़िल्म यादगार फ़िल्मों में अपना जगह बना चुकी है, और यह जगह इसके गीत संगीत के वजह से ही और ज़्यादा पुख़्ता हुई है। साहिर, मदन मोहन, रफ़ी साहब, ये तीनों अपने अपने क्षेत्र में अग्रणी रहे हैं और आज का प्रस्तुत गीत इन तीनों के संगीत सफ़र का एक महत्वपूर्ण अध्याय रहा है, इसमें कोई शक़ नहीं है। "रंग और नूर की बारात किसे पेश करूँ,

जुलाई का पॉडकास्ट कवि सम्मेलन और बारिश की फुहारें

सुनिए ऑनलाइन कवि सम्मेलन का बारिश अंक रश्मि प्रभा खुश्बू एक समय था जब हम महीने के नाम से मौसम का मिज़ाज बता सकते थे। उत्तर भारत में सावन का महीना झूलों का, छोटी-बड़ी नदियों में आई उफानों का, धान की रोपाई का महीना होता था- जैसे धरती हरे रंग का छाता लगा लेती थी। लेकिन मनुष्य के प्रकृति को जीतने की उत्कंठा और होड़ ने पूरी तस्वीर ही बदल दी। आलम यह कि जहाँ 20 मिलि॰ वर्षा होती थी वहाँ 500 मिलि॰ बारिश हो रही है और जहाँ बरसात न हो तो किसना खाना नहीं खाता, वहाँ सूखा पड़ा है। सूरत यह कि गुजरात के सौराष्ट्र में बाढ़ और जल-प्लावन का संकट है तो वहीं उत्तर प्रदेश के 20 जिलों को वहाँ की सरकार सूखा घोषित कर चुकी है। मौसम विज्ञानियों कि मानें तो मौसम के इस नये मिजाज़ को समझने की ज़रूरत है और यह मान लेने की ज़रूरत है कि जलवायु में 180 डिग्री का बदलाव आ चुका है। जितनी जल्दी समझेंगे, उतनी जल्दी शायद हम इस संकट से उबर पायेंगे। इसीलिए हमने भी मौसम के जानकारों की मानने की सोची और इतनी विडम्बनाओं के बावज़ूद भी पॉडकास्ट कवि सम्मेलन का बारिश अंक लेकर हम आपके सामने उपस्थित हैं, जिसमें बारिश, सूखा और इससे जुड़ीं