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जुल्फों की घटा लेकर सावन की परी आयी....मन्ना डे ने कहा आशा से "रेशमी रुमाल" देकर

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 127 यूँ तो फ़िल्म जगत में एक से बढ़कर एक संगीतकार जोड़ियाँ रही हैं, जिनके नाम गिनवाने की कोई ज़रूरत नहीं है, लेकिन बहुत सारी ऐसी संगीतकार जोड़ियाँ भी हुई हैं जो सफलता और शोहरत में थोड़े से पीछे रह गये। कमचर्चित संगीतकार जोड़ियों की बात करें तो एक नाम बिपिन-बाबुल का ज़हन में आता है। स्वतंत्र रूप से संगीतकार जोड़ी बनने से पहले वे मदन मोहन साहब के सहायक हुआ करते थे। 1958 से वे बने कल्याणजी-आनंदजी के सहायक। बतौर स्वतंत्र संगीतकार बिपिन-बाबुल ने संगीत दिया 'सुल्ताना डाकू', 'बादल और बिजली', और '24 घंटे' जैसी फ़िल्मों में, जिनमें '24 घंटे' 'हिट' हुई थी। पर आगे चलकर बिपिन दत्त और बाबुल बोस की जोड़ी टूट गयी। बिपिन को कामयाबी नहीं मिली। लेकिन बाबुल को थोड़ी बहुत कामयाबी ज़रूर मिली। उनकी फ़िल्म '40 दिन' के गानें आज भी सदाबहार गीतों में शामिल किया जाता है। वैसे बाबुल की तमन्ना थी गायक बनने की। लखनऊ के 'मॊरिस कॊलेज' से तालीम लेकर दिल्ली और लाहौर के रेडियो से जुड़े रहे, लेकिन देश विभाजन के बाद उनहे भारत लौट आना पड़ा, तथ

न ग़म कशोद-ओ-बस्त का, न वादा-ए-अलस्त का..........अभी तो मैं जवान हूँ!!

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #२५ ग ज़लों की यह महफ़िल अपने पहले पड़ाव तक पहुँच चुकी है। आज हम आपके सामने महफ़िल-ए-गज़ल का २५वाँ अंक लेकर हाज़िर हुए हैं। आगे बढने से पहले हम इस बात से मुतमईन होना चाहेंगे कि जिस तरह इस महफ़िल को आपके सामने लाने पर हमने फ़ख्र महसूस किया है, उसी तरह आपने भी बराबर चाव से इस महफ़िल की हर पेशकश को अपने सीने से लगाया है। ऐसा करने के पीछे हमारी यह मंशा नहीं है कि आपका इम्तिहान लिया जाए, बल्कि हम यह चाहते हैं कि अब तक जितने भी फ़नकारों को हमने इस महफ़िल के बहाने याद किया है, उनकी यादों का असर थोड़ा-सा भी कम न हो। वैसे भी बस आगे बढते रहने का नाम हीं ज़िंदगी नहीं है, राह में चलते-चलते कभी-कभी हमें पीछे छूट चुके अपने साथियों को भी याद कर लेना चाहिए। और इसी कारण आज से २९ वें अंक तक हम हर बार आपसे दो सवाल पूछेंगे जिसके जवाब उस दिन के या फिर पिछली कड़ियों के आलेख में छुपे होंगे। अगर आपने पिछली कड़ियों को सही से पढा होगा तो आपको जवाब ढूँढने में मुश्किल नहीं होगी, नहीं तो आपको थोड़ी मेहनत करनी होगी। और हाँ, हर बार पहला सही जवाब देने वाले को ४ अंक, उसके बाद ३ अंक और उसके बाद हर किसी

बेकरार दिल तू गाये जा खुशियों से भरे वो तराने... जो बजते हैं ओल्ड इस गोल्ड की शान बनकर

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 126 कि शोर कुमार द्वारा निर्मित, निर्देशित, अभिनीत और संगीत बद्ध किये हुए गिने चुने फ़िल्मों का ज़िक्र हो रहा हो, तो उसमें एक महत्वपूर्ण नाम आता है फ़िल्म 'दूर का राही' का। १९७१ में बनी इस फ़िल्म मे किशोर दा के साथ साथ अभिनय किया था उनके बेटे अमित कुमार और बड़े भाई अशोक कुमार ने, नायिका बनीं तनुजा। वाणिज्यिक दृष्टि से फ़िल्म को उतनी सफलता नहीं मिली जितनी उम्मीद की गयी थी, लेकिन किशोर दा ने इस फ़िल्म में कुछ ऐसा संगीत दिया कि इसके गानें आज भी दिल को सुकून प्रदान कर जाते हैं। जीवन दर्शन के विचारों से ओत-प्रोत इस फ़िल्म के गीत आज भी सुननेवाले के मन में एक सकारात्मक सोच पैदा करती है। चाहे वह हेमन्त कुमार का गाया "फिर भी चला जाये दूर का राही" हो, या किशोर दा की ही आवाज़ में "जीवन से ना हार ओ जीनेवाले", या फिर सुलक्षणा पंडित और किशोर दा की युगल स्वरों में इस फ़िल्म का सब से प्यारा गीत "बेक़रार दिल तू गाये जा ख़ुशियों से भरे वो तरानें"। जी हाँ, आज यही गीत गूंज रहा है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल में। यूँ तो इस फ़िल्म में शैल