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गर्मी के मौसम राहत की फुहार लेकर आया गीत -"झिर झिर झिर झिर बदरवा बरसे..."

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 69 "सा वन आये या ना आये, जिया जब झूमे सावन है"। दोस्तों, अगर मै आप से बरसात पर कुछ गाने गिनवाने के लिए कहूँ तो शायद आप बिना कोई वक़्त लिए बहुत सारे गाने एक के बाद एक बताते जायेंगे। जब भी फ़िल्मों में बारिश की 'सिचुयशन' पर गीत बनाने की बात आयी है तो हमारे गीतकारों और संगीतकारों ने एक से एक बेहतरीन गाने हमें दिये हैं, और फ़िल्म के निर्देशकों ने भी बहुत ही ख़ूबसूरती से इन गानों का फ़िल्मांकन भी किया है। आज हम एक ऐसा ही रिमझिम सावन बरसाता हुआ एक बहुत ही मीठा गीत 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में लेकर आये हैं। हमने बरसात पर इतने सारे गीतों में से इसी गीत को इसलिए चुना क्योंकि यह गीत बहुत सुंदर सुरीला होते हुए भी लोगों ने इसे ज़रा कम सुना है और आज बहुत ज़्यादा किसी रेडियो चैनल पर सुनाई भी नहीं देता है। आज बहुत दिनो के बाद यह गीत सुनकर आप ख़ुश हो जायेंगे ऐसा हमारा विश्वास है। यह गीत है १९५६ की फ़िल्म परिवार से "झिर झिर झिर झिर बदरवा बरसे हो कारे कारे"। सन १९५६ संगीतकार सलिल चौधरी के लिए एक अच्छा साल साबित हुआ क्योंकि इस साल उनके संगीत से सजी तीन

रविवार सुबह की कॉफी और कुछ दुर्लभ गीत (4)

दोस्तों, यादें बहुत अजीब होती हैं, अक्सर हम हंसते हैं उन दिनों को याद कर जब साथ रोये थे, और रोते हैं उन पलों को याद कर जब साथ हँसे थे. इसी तरह किसी पुराने गीत से गुजरना यादों की उन्हीं खट्टी मीठी कड़ियों को सहेजना है. यदि आप २५ से ४० की उम्र-समूह में हैं तो हो सकता है आज का ये एपिसोड आपको फिर से जवानी के उन दिनों में ले जाये जब पहली पहली बार दिल पर चोट लगी थी. बात १९९१ के आस पास की है, भारतीय फिल्म संगीत एक बुरे दशक से गुजरने के बाद फिर से "मेलोडी" की तरफ लौटने की कोशिश कर रहा था. सुनहरे दौर की एक खासियत ये थी कि लगभग हर फिल्म में कम से कम एक दर्द भरा नग्मा अवश्य होता था, और मुकेश, रफी, किशोर जैसी गायकों की आवाज़ में ढल कर वो एक मिसाल बन जाता था. मारधाड़ से भरी फिल्मों के दौर में दर्दीले नग्में लगभग खो से चुके थे तो जाहिर है उन दिनों दिल के मारों के लिए उन पुराने नग्मों की तरफ लौंटने के सिवा कोई चारा भी नहीं था. ऐसे में सरहद पार से आई एक ऐसी सदा जिसने न सिर्फ इस कमी को पूरा कर दिया बल्कि टूटे दिलों के खालीपन को कुछ इस तरह से भर दिया, कि सदायें लबालब हो उठी. जी हाँ हम बात कर र

तू छुपी है कहाँ, मैं तड़पता यहाँ.....अपने आप में अनूठा है नवरंग का ये गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 68 'न वरंग' हिंदी फ़िल्म इतिहास की एक बेहद मशहूर फ़िल्म रही है। वी. शांताराम ने १९५५ में 'म्युज़िकल' फ़िल्म बनाई थी 'झनक झनक पायल बाजे'। गोपीकिशन और संध्या के अभिनय और नृत्य तथा वसंत देसाई के जादूई संगीत ने इस फ़िल्म को एक बहुत ऊँचा मुक़ाम दिलवाया था। 'झनक झनक पायल बाजे' की अपार सफलता के बाद सन् १९५९ में शांतारामजी ने कुछ इसी तरह की एक और नृत्य और संगीतप्रधान फ़िल्म बनाने की सोची। यह फ़िल्म थी 'नवरंग'। महिपाल और संध्या इस फ़िल्म के कलाकार थे और संगीत का भार इस बार दिया गया अन्ना साहब यानी कि सी. रामचन्द्र को। फ़िल्म के गाने लिखे भरत व्यास ने। आशा भोंसले और मन्ना डे के साथ साथ नवोदित गायक महेन्द्र कपूर को भी इस फ़िल्म में गाने का मौका मिला। बल्कि इस फ़िल्म को महेन्द्र कपूर की पहली 'हिट' फ़िल्म भी कहा जा सकता है। लेकिन आज हमने इस फ़िल्म का जो गीत चुना है उसे आशाजी और मन्नादा ने गाया है। यह गीत अपने आप में बिल्कुल अनूठा है। इस गीत को यादगार बनाने में गीतकार भरत व्यास के बोलों का उतना ही हाथ था जितना की सी. रामचन्द्र