Skip to main content

Posts

षड़ज ने पायो ये वरदान - एक दुर्लभ गीत

येसू दा का जिक्र जारी है, सलिल दा के लिए वो "आनंद महल" के गीत गा रहे थे, उन्हीं दिनों रविन्द्र जैन साहब भी अभिनेता अमोल पालेकर के लिए एक नए स्वर की तलाश में थे. जब उन्होंने येसू दा की आवाज़ सुनी तो लगा कि यही एक भारतीय आम आदमी की सच्ची आवाज़ है, दादा(रविन्द्र जैन) ने बासु चटर्जी जो कि फ़िल्म "चितचोर" के निर्देशक थे, को जब ये आवाज़ सुनाई तो दोनों इस बात पर सहमत हुए कि यही वो दिव्य आवाज़ है जिसकी उन्हें अपनी फ़िल्म के लिए तलाश थी. उसके बाद जो हुआ वो इतिहास बना. चितचोर के अविस्मरणीय गीतों को गाकर येसू दा ने राष्टीय पुरस्कार जीता और उसके बाद दादा और येसू दा की जुगलबंदी ने खूब जम कर काम किया. वो सही मायनों में संगीत का सुनहरा दौर था. जब पूरे पूरे ओर्केस्ट्रा के साथ हर गीत के लिए जम कर रिहर्सल हुआ करती थी, जहाँ फ़िल्म के निर्देशक भी मौजूद होते थे और गायक अपने हर गीत में जैसे अपना सब कुछ दे देता था. येसू दा और रविन्द्र दादा के बहाने हम एक ऐसे ही गीत के बनने की कहानी आज आपको सुना रहे हैं. येसू दा की माने तो ये उनका हिन्दी में गाया हुआ सबसे बहतरीन गीत है. पर दुखद ये है कि न

"दासेएटन" (येसुदास) के हिन्दी गीतों की मिठास भी कुछ कम नहीं...

कल हमने बात की सलिल दा की और बताया की किस तरह उन्होंने खोजा दक्षिण भारत से एक ऐसा गायक जो आज की तारीख में मलयालम फ़िल्म संगीत का दूसरा नाम तो है ही पर जितने भी गीत उन्होंने हिन्दी में भी गाये वो भी अनमोल साबित हुए. आज हम बात करेंगे ४०.००० से भी अधिक गीतों को अपनी आवाज़ से संवारने वाले गायकी के सम्राट येसुदास की. लगभग ४ दशकों से उनकी आवाज़ का जादू श्रोताओं पर चल रहा है, और इस वर्ष १० जनवरी को उन्होंने अपने जीवन के ६० वर्ष पूरे किये हैं. उनके पिता औगेस्टीन जोसफ एक मंझे हुए मंचीय कलाकार एवं गायक थे, जो हर हाल में अपने बड़े बेटे येसुदास को पार्श्वगायक बनाना चाहते थे. उनके पिता जब वो अपनी रचनात्मक कैरिअर के शीर्ष पर थे तब कोच्ची स्थित उनके घर पर दिन रात दोस्तों और प्रशंसकों का जमावडा लगा रहता था. पर जब बुरे दिन आए तब बहुत कम थे जो मदद को आगे आए. येसुदास का बचपन गरीबी में बीता, पर उन्होंने उस छोटी सी उम्र से अपने लक्ष्य निर्धारित कर लिए थे, ठान लिया था की अपने पिता का सपना पूरा करना ही उनके जीवन का उद्देश्य है. उन्हें ताने सुनने पड़े जब एक इसाई होकर वो कर्नाटक संगीत की दीक्षा लेने लगे. ऐसा भी

सलिल दा के बहाने येसुदास की बात

बीते १९ तारीख को हम सब के प्रिय सलिल दा की ८६ वीं जयंती थी, लगभग १३ साल पहले वो हम सब को छोड़ कर चले गए थे, पर देखा जाए इन्ही १३ सालों में सलिल दा की लोकप्रियता में जबरदस्त इजाफा हुआ है, आज की पीढी को भी उनका संगीत समकालीन लगता है, यही सलिल दा की सबसे बड़ी खासियत है. उनका संगीत कभी बूढा ही नही हुआ. सलिल दा एक कामियाब संगीतकार होने के साथ साथ एक कवि और एक नाटककार भी थे और १९४० में उन्होंने इप्टा से ख़ुद को जोड़ा था. उनके कवि ह्रदय ने सुकांता भट्टाचार्य की कविताओं को स्वरबद्ध किया जिसे हेमंत कुमार ने अपनी आवाज़ से सजाया. लगभग ७५ हिन्दी फिल्मों और २६ मलयालम फिल्मों के अलावा उन्होंने बांग्ला, तमिल, तेलुगु, कन्नड़, गुजरती, मराठी, असामी और ओडिया फिल्मों में अच्छा खासा काम किया. सलिल दा की पिता डाक्टर ज्ञानेंद्र चौधरी एक डॉक्टर होने के साथ साथ संगीत के बहुत बड़े रसिया भी थे. अपने पिता के वेस्टर्न क्लासिकल संगीत के संकलन को सुन सुन कर सलिल बड़े हुए. असाम के चाय के बागानों में गूंजते लोक गीतों और और बांग्ला संगीत का भी उन पर बहुत प्रभाव रहा. वो ख़ुद भी गाते थे और बांसुरी भी खूब बजा लेते थे. अपने पि