Skip to main content

Posts

ठाढ़े रहियो ओ बाँके यार...लोक-रस से अभिसिंचित ठुमरी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 697/2011/137 'ओ ल्ड इज गोल्ड' पर जारी श्रृंखला 'रस के भरे तोरे नैन' की सत्रहवीं कड़ी में समस्त ठुमरी-रसिकों का स्वागत है| श्रृंखला के समापन सप्ताह में हम 70 के दशक की फिल्मों में शामिल ठुमरियों से और वर्तमान में सक्रिय कुछ वरिष्ठ ठुमरी गायक-गायिकाओं से आपका परिचय करा रहे हैं| कल के अंक में हमने पूरब अंग की ठुमरियों की सुप्रसिद्ध गायिका सविता देवी और उनकी माँ सिद्धेश्वरी देवी से आपका परिचय कराया था| आज के अंक में हम विदुषी गिरिजा देवी से आपका परिचय करा रहे हैं| गिरिजा देवी का जन्म 8 मई 1929 को कला और संस्कृति की नगरी वाराणसी (तत्कालीन बनारस) में हुआ था| पिता रामदेव राय जमींदार थे और संगीत-प्रेमी थे| उन्होंने पाँच वर्ष की आयु में ही गिरिजा देवी के संगीत-शिक्षा की व्यवस्था कर दी थी| गिरिजा देवी के प्रारम्भिक संगीत-गुरु पण्डित सरयूप्रसाद मिश्र थे| नौ वर्ष की आयु में पण्डित श्रीचन्द्र मिश्र से उन्होंने संगीत की विभिन्न शैलियों की शिक्षा प्राप्त करना आरम्भ किया| नौ वर्ष की आयु में ही एक हिन्दी फिल्म "याद रहे" में गिरिजा देवी ने अभिनय भी किया

"बैयाँ ना धरो.." श्रृंगार का ऐसा रूप जिसमें बाँह पकड़ने की मनाही भी है और आग्रह भी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 696/2011/136 श्रृं खला "रस के भरे तोरे नैन" के तीसरे और समापन सप्ताह के प्रवेश द्वार पर खड़ा मैं कृष्णमोहन मिश्र आप सभी संगीतानुरागियों का अभिनन्दन करता हूँ| पिछले तीन सप्ताह की 15 कड़ियों में हमने आपको बीसवीं शताब्दी के चौथे दशक से लेकर सातवें दशक तक की फिल्मों में शामिल ठुमरियों का रसास्वादन कराया है| श्रृंखला के इस समापन सप्ताह की कड़ियों में हम आठवें दशक की फिल्मों से चुनी हुई ठुमरियाँ लेकर उपस्थित हुए हैं| श्रृंखला के पिछले अंकों में हम यह चर्चा कर चुके हैं कि 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम तक भारतीय संगीत शैलियों को समुचित राजाश्रय न मिलने और तवायफों के कोठों पर फलने-फूलने के कारण सुसंस्कृत समाज में यह उपेक्षित रहा| ऐसे कठिन समय में भारतीय संगीत के दो उद्धारकों ने जन्म लिया| आम आदमी को संगीत सुलभ कराने और इसे समाज में प्रतिष्ठित स्थान दिलाने में पं. विष्णु नारायण भातखंडे (1860) तथा पं. विष्णु दिगम्बर पलुस्कर (1872) ने पूरा जीवन समर्पित कर दिया| इन दोनों 'विष्णु' को भारतीय संगीत का उद्धारक मानने में कोई मतभेद नहीं| भातखंडे जी ने पूरे देश

उर्जा से भरी तान और ठेके "टप्पे" के

सुर संगम - 28 - पारंपरिक संगीत शैली - टप्पा टप्पों को एकाएक प्रस्तुत करने हेतु नियमानुसार पहले आलाप को ठुमरी अंग में गाया जाता है तथा उसके पश्चात तेज़ी से असमान लयबद्ध लहज़े में बुने शब्दों के उपयोग से तानायत की ओर बढ़ा जाता है| सु र-संगम के सभी श्रोता-पाठकों को सुमित चक्रवर्ती का स्नेह भरा नमस्कार! तो कहिए कैसे बीते गर्मियों के दिन? जैसे किसी किसी मुसाफ़िर का मंज़िल पाने पर संघर्ष समाप्त हो जाता है, मानो ठीक उसी प्रकार गर्मियों के ये झुलसा देने वाले दिन भी अब बीत चुके हैं| और आ गयी है वर्षा ऋतु सबके जीवन में हर्ष की नई फुहार लिए| तो हम ने भी सोचा की क्यों न इस बार के अंक में कुछ अलग प्रकार का संगीत चर्चा में लाया जाए| आज का सुर-संगम आधारित है पंजाब व सिंध प्रांतों की प्रसिद्ध उप-शास्त्रीय गायन शैली 'टप्पा' पर| टप्पा भारत की प्रमुख पारंपरिक संगीत शैलियों में से एक है| यह माना जाता है की इस शैली की उत्पत्ति पंजाब व सिंध प्रांतों के ऊँट चलाने वालों द्वारा की गई थी| इन गीतों में मूल रूप से हीर और रांझा के प्रेम व विरह प्रसंगो को दर्शाया जाता है| खमाज, भैरवी, काफ़ी, तिलांग, झिन्झोट

ओल्ड इस गोल्ड -शनिवार विशेष - संगीतकार दान सिंह को भावभीनी श्रद्धाजंली

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी दोस्तों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार, और स्वागत है आप सभी का इस 'शनिवार विशेषांक' में। फ़िल्म-संगीत के सुनहरे दौर के बहुत से ऐसे कमचर्चित संगीतकार हुए हैं जिन्होंने बहुत ही गिनी चुनी फ़िल्मों में संगीत दिया, पर संख्या में कम होने की वजह से ये संगीतकार धीरे धीरे हमारी आँखों से ओझल हो गये। हम भले इनके रचे गीतों को यदा-कदा सुन भी लेते हैं, पर इनके व्यक्तिगत जीवन के बारे में बहुत कम लोगों को पता होता है। यहाँ तक कि कई बार इनकी खोज ही नहीं मिल पाती, ये जीवित हैं या नहीं, सटीक रूप से कहा भी नहीं जा सकता। और जिस दिन ये संगीतकार इस जगत को छोड़ कर चले जाते हैं, उस दिन उनके परिवार वालों के सहयोग से किसी अख़्बार के कोने में यह ख़बर छप जाती है कि फ़लाना संगीतकार नहीं रहे। पिछले महीने एक ऐसे ही कमचर्चित संगीतकार हमसे हमेशा के लिए जुदा हो गये। लीवर की बीमारी से ग्रस्त, ७८ वर्ष की आयु में संगीतकार दान सिंह नें १८ जून को अंतिम सांस ली। दान सिंह का नाम लेते ही फ़िल्म 'माइ लव' के दो गीत "वो तेरे प्यार का ग़म" और "ज़िक्र होता है जब क़यामत का&quo

अनुराग शर्मा की कहानी "लागले बोलबेन"

'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने जयशंकर प्रसाद की कहानी " कला " का पॉडकास्ट अनुराग शर्मा की आवाज़ में सुना था। आज हम आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं अनुराग शर्मा की एक सामयिक कहानी " लागले बोलबेन ", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने। कहानी "लागले बोलबेन" का कुल प्रसारण समय 1 मिनट 19 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। इस कथा का टेक्स्ट बर्ग वार्ता ब्लॉग पर उपलब्ध है। यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें। पतझड़ में पत्ते गिरैं, मन आकुल हो जाय। गिरा हुआ पत्ता कभी, फ़िर वापस ना आय।। ~ अनुराग शर्मा हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी उन महाशय ने पहले तो आँखें तरेर कर देखा फ़िर वापस अपने अखबार में मुंह छिपाकर बड़ी बेरुखी से बोले, "लागले बोलबेन" ( अनुराग शर्मा की "लागले बो

फूल गेंदवा ना मारो... - रसूलन बाई के श्रृंगार रस में हास्य रस का रंग भरते मन्ना डे

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 695/2011/135 "ओ ल्ड इज गोल्ड" पर जारी श्रृंखला "रस के भरे तोरे नैन" की आज की इस नई कड़ी में कृष्णमोहन मिश्र की ओर से आप सभी पाठकों / श्रोताओं का स्वागत है| कल के अंक में हमने पूरब अंग ठुमरी की अप्रतिम गायिका रसूलन बाई के कृतित्व से आपका परिचय कराया था| आज हम पूरब अंग की ठुमरी पर चर्चा जारी रखते हुए एक ऐसे व्यक्तित्व से परिचय प्राप्त करेंगे, जिन्हें ठुमरी की "बनारसी शैली के प्रवर्तक" के रूप में मान्यता दी गई है| ठुमरी के इस शिखर-पुरुष का नाम है जगदीप मिश्र| इनका जन्म आजमगढ़ (उत्तर प्रदेश) के एक कथक परिवार में हुआ था| संगीत के संस्कार उन्हें अपने संगीतजीवी परिवार से ही मिले| बाद में इनका परिवार वाराणसी आकर बस गया| जगदीप जी, भैया गणपत राव के समकालीन थे और उन्ही के समान ठुमरी गायन में बोलों के बनाव अर्थात बोलों में निहित भावों को स्वरों की सहायता से अभिव्यक्त करने के पक्ष में थे| वाराणसी के संगीत परिवेश के जानकार और ठुमरी गायक रामू जी (रामप्रसाद मिश्र) के अनुसार मौजुद्दीन खाँ ने प्रारम्भ में जगदीप मिश्र को सुन-सुन कर ही ठुमरी गाना सीखा थ

जा मैं तोसे नाहीं बोलूँ....मान-मनुहार की ठुमरी का मोहक अन्दाज़

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 694/2011/134 पि छली कुछ कड़ियों में हमने आपसे "बोल-बाँट" या "बन्दिश" की ठुमरियों और इस शैली के प्रमुख रचनाकारों के विषय में चर्चा की है| आज के इस अंक में हम आपसे "बोल-बनाव" की ठुमरियों पर कुछ बातचीत करेंगे| दरअसल बोल-बनाव की ठुमरियों का विकास बनारस में हुआ| इस प्रकार की ठुमरियों में शब्द बहुत कम होते हैं और यह विलम्बित लय से शुरू होती हैं| इनमें स्वरों के प्रसार की बहुत गुंजाइश होती है| छोटी-छोटी मुरकियाँ, खटके, मींड का प्रयोग ठुमरी की गुणबत्ता को बढाता है| कुशल गायक ठुमरी के शब्दों से अभिनय कराते हैं| गायक कलाकार ठुमरी के कुछ शब्दों को लेकर अलग-अलग भावपूर्ण अन्दाज़ में प्रस्तुत करते हैं| अन्त में कहरवा ताल की लग्गी के साथ ठुमरी समाप्त होती है| ठुमरी के इस भाग में तबला संगतिकार को अपनी प्रतिभा दिखाने का भरपूर मौका मिलता है| बात जब बोल-बनाव ठुमरी की हो तो रसूलन बाई का ज़िक्र आवश्यक हो जाता है| पूरब अंग की गायकी- ठुमरी, दादरा, होरी, चैती, कजरी आदि शैलियों की अविस्मरणीय गायिका रसूलन बाई बनारस (वाराणसी) की रहनेवाली थीं| संगीत का संस्कार इ